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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

* सेमी *

                      मैं सेमी अभी कहाँ हूँ और किस हालत में हूँ !ए मैं आपको बाद में बताउंगी मेरी हालत उन मानसिक विक्षेपितों जैसा हो गई है, जिन्होंने अपना ठौर-ठिकाना भुला दिया है। कुछ विक्षेपितों को अपना क्रिया-कलाप तो याद रहता है पर वे क्या और क्यूँ कर रहें हैं, इस पर उनका अपना पकड़ नहीं होता, साथ ही उन्हें इसकी भी भान नहीं होती। इन से मेरी हालत कुछ अच्छी है। क्यूँ के लिए तो मैं कुछ नहीं कर सकती पर क्या-क्या हो रही है औरक्या-क्या हमारे साथ हुई लगभग पूर्णतः नहीं पर अंशतः मुझे आज भी याद है। 

                           आप सोच रहें होंगे, आखिर यह कौन है ? इसकी कहानी क्या है ? इस पर विश्वास किया जाए या नहीं इत्यादि-इत्यादि। मैं आप को बता दूँ , "मैं आग्नेयास्त्र समूह का एक सदस्य हूँ।" मेरी यह कहानी आपबीती है। हमें लोग क्यों रखना चाहते हैं, हमारे उत्कृष्ट सदस्यों को कैसे प्राप्त करते हैं, जो इसके योग्य नहीं भी हैं।हमें रखने या प्राप्त करने का क्या तरीका है। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ की आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं मतलब आप हमारे द्वारा बयान की गई बातों को सत्य माने। 

                          आज ही नहीं प्राचीन काल से यह परम्परा रही है, जिन्हे हमारी आवश्यकता है, चाहे इसका कारण कुछ भी हो। जैसे आत्मरक्षा, सम्पत्ति सुरक्षा, दबंगई,रोजी-रोजगार प्राप्ति हेतु या शौखिया उन्हें शासन-प्रशासन द्वारा अनुज्ञा (लाइसेंस) प्रदान की जाती है। जिस पर मेरी प्रकार, संख्या और उनके तस्वीर के साथ उनका पूर्ण पत्र-व्यवहार एवं स्थाई, अस्थाई पता अंकित रहती है। निर्गत अधिकारी का हस्ताक्षर शील मुहर के साथ वर्ष को दर्शाया जाता है। मेरी और उनका अभिलेख सम्बंधित विभाग में सुरक्षित रहती है। 

                           आप को मैं यहाँ बता दूँ मैं या मेरी सहेली आज तक किसी का जान बचाई नहीं बल्कि लिए ही हैं। कोई कुछ भी दलील दे यह सिद्ध नहीं कर सकता की मेरे समूह का सदस्य किसी की रक्षा की हो। हाँ मैं यह मान सकती हूँ। जो हमें पहले इस्तेमाल करता है। वह किसी का पहले जान ले सकता है। हमारी जाती समूह का फितरत ही है, खून बहाना, जान लेना। कुछ लोग जो दिल के कमजोर ( यानि दिल का पुकार सुनने वाला, क्यों की दिल प्रथम बार सत्य और सही बोलता है पर लोग उसे अपने स्वार्थ, अभिमान एवं क्रोध से दबा देते हैं) और दिमाग के दुरुस्त होते हैं। वह हमें देखने के उपरांत समझौता में विश्वास व्यक्त करते हैं। मुझे इस्तेमाल न किया जाए ऐसा प्रयास करते हैं। 

                             मेरा नाम सेमी, कोई १५ बोर भी कहता है।  यह  ८.४ एम.एम. सेमी पुराने समय में या आज से पहले, मैं स्वचालित आती थी। अब वर्तमान में नहीं। वर्तमान में  मुझ में से स्वचालित वाली पुर्जा हटा दी गई है। सशस्त्र बालो को छोड़, सामान्य नागरिकों को स्वचालित आग्नेयास्त्र रखने की अनुमति नहीं है। इसके लिए न कोई अनुज्ञा निर्गत की जाती है। अब मैं आप को अपनी व्यथा सुनाती हूँ। 

                             बिहार का दियारा क्षेत्र जहाँ शासन-प्रशासन के लोग कभी कभार ही जाते हैं। वर्षा के मौसम में नाव की सवारी कर यहाँ लोग आसानी से आवा-गमन करते हैं। यह क्षेत्र सोन और गंगा नदी के पेटी के मिलने से बना है। यहाँ नाव और आग्नेयास्त्र लगभग प्रत्येक घर में मिल जाएगी। कुछ क़ानूनी कुछ गैर क़ानूनी। वर्षा का मौसम छोड़ अन्य समय में किसी व्यक्ति को अनजान व्यक्ति द्वारा ढूँढना बड़ा कष्टकर एवं मुश्किल है। इसी दियरा क्षेत्र में एक टोला है, 'मान सिंह का टोला।' यहाँ एक घर में दो भाई हैं। एक का नाम सुरेन्द्र सिंह दूसरे का नाम महेन्द्र सिंह। इनका अपना घाट चलता है, जिसका घटवारी इन्हें प्राप्त होता है। इनके पास कई नाव हैं, जो मोटर चालित है। इनसे ए सवारी एवं माल (सामान) ढोने के साथ बालू  निकलवाने का भी काम करवाते हैं। इसके अलावे ये दोनों भाई बालू घाट में पट्टा पर कार्य करते हैं। इनके पेशा एवं सोच ने इन्हें आग्नेयास्त्र का शौकीन बना दिया। ऐसे इनके पास कई आग्नेयास्त्र हैं। जैसा की आपको बिदित है अब सेमी स्वचालित का अनुज्ञा नहीं मिलती है। फिर भी इन्होने ऐसे किसी जोगाड़ तंत्र से बनवा लिया। जिसे हम फर्जी भी कह सकते हैं। उसी अनुज्ञा पर ए मुझे प्राप्त किए। जो लोग आग्नेयास्त्र रखने की मानशिकता रखते हैं उन सभी में मैं, सभी की पहली पसंद हूँ। यहाँ से पास के शहर आरा में पाँच भाई रहते हैं। इनमें दो का नाम सभी जानते हैं। तीसरा भी सर्वगुण आगर है और  दो व्यवसाय में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। वहाँ से आस-पास के क्षेत्र में कोई भी बड़ा काम क़ानूनी हो या गैर कानूनी इन्हें बखूबी जानकारी होती है। उस कार्य में ए सहभागी रहते हैं या या उस काम को कौन सी गुर्गा कर रहा है या किया है इन्हे बखूबी मालूम होती है। ऐसे ए यहाँ एक व्यवसाई की हैसियत से जाना जाता है। पैसा एवं राजनीति के खेल में इनकी अच्छी पैठ है। इनके पास आस-पास के इलाके के बेरोजगारों एवं मुफ्त के फुटानी करने वालो की, एवं जिन्हें अपने योग्यता से ज्यादा पाने की लालसा होती है। जो समाज में दबंगई दिखाना चाहता है, जिसे कुछ लोग लफूआ भी कहते हैं। जो शारीरिक परिश्रम नहीं करना चाहते और झूठ-मूठ की जाती एवं पूर्वजों के प्रतिष्ठा से चिपके हुए हैं। उनका एक फौज इन्होंने रख रखा है और उनका बखूबी इस्तेमाल भी करते हैं।

                        आप को आगे बता दू की मेरी खबर भी इन्हें लगी। मेरा उन दोनों भाइयों के पास होना इन्हें अच्छा नहीं लगा या यूँ कहे की इनका दिल मेरे उपर आ गई। दोनों भाई मेरा भरपूर इस्तेमाल करते। मेरा उनके पास होना उस क्षेत्र में उनके लिए गर्व की बात हो गई थी। मैं जब उनके पास होती तो वे नदी के दूसरे छोड़ के घाट से विरोधी को उतरने भी नहीं देते। उधर व्यवसाई बंधु उर्फ़ सेठ जी हमें पाना चाहते थे या यूँ कहे की उन दोनों भाइयों से हमें अलग करना चाहते थे। इसी बीच संयोग से उसी क्षेत्र के दूसरा टोला जिसका नाम बथानी टोला है। वहाँ के एक गुर्गे ने मुझे उन दोनों भाइयों से नव पर ही धोखे से हथियाँ लिया। वे दोनों भाई उसे जानते न थे न वे लोग ही उसे जानते थे। पर वे किस स्थान के निवासी है वे दोनों भाई जान गए। मैं कहाँ हूँ और मुझे कौन रखा है, वे लोग किसके घर के थे इसके लिए उस क्षेत्र में तनाव व्याप्त हो गई। मेरे चकर में कई लोगों का जान चली गई। कई बार पंचायत हुई। मुझे छुपा दिया गया ताकी मुझे रखने वाले की पहचान उजागर न हो। वह गुर्गे के लोग जो मुझे उन दोनों भाइयों से हथियाया था। वे बथानी टोला के स्थाई निवासी नहीं थे। वे समय रहते वहाँ से खाली हाथ हीं निकल गए। इसका मुख्य कारण उस क्षेत्र में दोनों भाइयों का वर्चस्व था। जो व्यक्ति मुझे इनसे हथियाया था, वह उनसे सही तरीके से परिचित नहीं था। पर उन दोनों भाइयों को पूर्ण विश्वास था की वह सख्स बथानी टोला का ही है और यह सत्य भी था। इनके लिए वहाँ से मुझे निकालना आसान भी नहीं था। क्योंकि मैं किसके पास हूँ यह उन्हें मालूम न था। दोनों भाई अपने गुर्गे के साथ वहाँ गए पर इनका हथियार ले कर दबंग की तरह वहाँ आना वहाँ के लोगों को नागवार गुजरा। वहाँ के लोगों से उन्हें किसी प्रकार का सहयोग न मिला बल्कि उनका विरोध उन्हें झेलना पड़ा। वे वहाँ से खाली हाथ लोगों को कोसते हुए वापिस आ गए। उन दोनों भाइयों ने आपस में बैठ कर एक योजना बनाई और सही समय का इंतजार करने लगे। लोग समझे वे शांत हो गए, पर वे कब शांत होने वाले थे। वे मुझे पाने को व्याकुल हो रहे थे। जैसे उनका संगी गुम हो गया हो या उसे कोई भगा ले गया हो। मेरा खो जाना उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रही थी। वे अपना तौहिणी समझ रहे थे।

                                  वर्षा का मौसम था। सोन और गंगा नदी का पाट  पूर्णतः भरा हुआ था। जैसे शेर दहाड़ता है, हाथी चिंघाड़ता है उसी प्रकार दोनों नदी के आवाज से लोग शांत हो रहे थे। उस समय लगभग सभी लोग अपने-अपने घरों में ही रहना पसंद करते हैं। उस नाज़ुक स्थिति को देखते हुए दोनों भाइयों एवं उनके गुर्गे ने बथानी टोला को चारों तरफ से नव पर सवार हो कर घेर लिया। उस समय वह टोला समुद्र में एक छोटा द्वीप (टापू) से ज्यादा कुछ नहीं था। दोनों भाइयों ने समुचित आदर सूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए, लोगों का सम्बोधन किया और अपनी बात बताई तथा सभी का तलाशी लेना चाहा। उनके इच्छा का किसी ने बिरोध भी नहीं किया। जो लोग थोड़ा कुनमुन कर रहे थे, वे भी वस्तु स्थिति को भांपते हुए चुप एवं शांत रहने में ही भलाई समझा। वे छानबीन कर लिए पर मैं उन्हें वहाँ कहा मिलने वाली थी। मैं जिसके पास थी वह मुझे बचाने के लिए या फिर उनके डर से उस दहाड़ में भी एक छोटी सी नाव पर ले कर सो रहा था। उस नाव को आम तौर पर डेंगी भी कहते हैं। मुझे वहाँ उस स्थिति में रखी जा सकती है। वे लोग सोच भी न सके। वे पुनः खाली हाथ वापिस लौट गए। वे समुद्र की तरह बिलकुल शांत हो गए। पर उनके मुखबिरों का दल सक्रिय रहा।

                            मैं  कहाँ और किसके पास थी या हूँ इसकी सूचना सेठ बंधुओं को बखूबी थी। उनका तार उस गुर्गे से जुड़ा हुआ था। जैसा की मैं पहले बता चुकी हूँ। वे भी हमें प्राप्त करने का इच्छा रखे हुए थे। ऐसा नहीं की वे मुझे पा नही सकते थे पर वे इसके लिए कोई बड़ा कीमत चुकाना नहीं चाहते थे। यहाँ कीमत का मतलब रुपया-पैसा नहीं है। मैं जिसके पास थी उस में और सेठ बंधु के आदमी में मेरे सौदे की बात पक्की को गई। समय स्थान सब निश्चित हो गया। यहाँ भी सेठ बंधु पर्दे के पीछे ही रहे। वे नहीं चाहते थे की उनका भी तार इस में जुड़ा हुआ है या मेरी कोई खबर उनके पास है। उन दोनों भाइयों को मालूम हो। उधर दोनों भाई मुझे खो जाना अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर देख रहे थे। वे मुझे किसी भी कीमत पर प्राप्त करना चाहते थे। उन्हें जैसे ही मेरे सौदे की भनक लगी। उन्होंने वहाँ अपना जाल बिछा दिया, पर वहाँ भी दोनों दल पहले से ही सतर्क था। जैसे ही दोनों दल मैदान में आई दोनों भाइयों का दल भी उसमे सम्मिलित हो गया। तीनों तरफ से गोली चली और दो लोग वहीं ढेर हो गए। मैं उन्हें वहाँ भी नहीं मिल सकी। मुझे उसी क्षेत्र में छुपा दिया गया। यूँ कहे हमें मम्मी बना दफ़ना दिया गया। मारे जाने वाले में दोनों भाइयों के दल में से कोई नहीं था। मेरी अदला-बदली करने वाली दल में से ही मारे गए थे।

                          उधर इस घटना की खबर सेठ बंधुओं को ज्ञात हुआँ। उन्हें इसका दुःख भी हुआँ। उन्हें दुःख से ज्यादा यह चिंता थी की कही वे मुख्य पृष्ठ पर न आ जाए। वे उस क्षेत्र का मुख्य कार्य (काम) उन दोनों भाइयों से ही करवाते थे। उस क्षेत्र में किसी कार्य की सफलता के लिए उन दोनों भाइयों की सहमति जरूरी चाहिए थी। सेठ बंधु अब यहाँ सुलह चाहते थे। उनके प्रयास से उस क्षेत्र के सभी गुर्गो को एकत्र किया गया। इस प्रकार की घटना पुनः न दोहराई जाए, इसके लिए दोनों भाइयों को मनाने की प्रयास किया गया। दोनों भाइयों ने कहाँ हमें हमारा हथियार चहिए। सेठ जी ने उन्हें मुझे और उस घटना को भूलने का अपील किया। वे उन्हें मेरे बदले में या मुझे भूलने के लिए अपने तरफ से पैसे देने का पेशकश किया और कहा उस में क्या रखा है, कोई दूसरा ले लो। दोनों भाइयों ने पैसा लेने से इंकार कर दिया और कहा पैसे की बात नहीं है। हम इतने दयनीय स्थिति में नहीं हैं की हमें आप से आर्थिक मदद लेनी पड़े। वहाँ राय विचार और अन्य लोगों को हिदायत दे कर उस घटना को दोनों भाइयों के जेहन से विसारने का प्रयास किया गया।

                          मैं आज गुमनाम स्थिति में हूँ। मेरे खोने का कसक दोनों भाइयों के दिल में आज भी है। मुझे जिस दिन सक्रिय किया गया या मैदान में निकालने का प्रयास किया गया और उसका भनक दोनों भाई को लगी तो पुनः पुरानी घटना दोहराई जा सकती है। वर्तमान में मेरे सम्बन्धी सभी लोग शांत हैं। भविष्य में मुझ से सम्बंधित कोई घटना क्रम घटती या होती है तो उन सभी के साथ मैं पुनः आप से अगली कड़ी में मुखातिब होउंगी। तब तक के लिए राम-राम। 


मंगलवार, 29 मार्च 2016

* भीम सिंह का जहाज *

                         भीम सिंह हमारे क्षेत्र के जाने-माने शख्सियत हैं, इनका नाम बच्चा-बूढ़ा सभी के जुबान पर है। इनके पूर्वज रईस थे और इन्हें रहीसी विरासत में मिली थी। इनके पास एक दो नहीं पुरे सात पानी की जहाज थी जो गंगा नदी में भाड़े का सामान (माल) के साथ सवाड़ी  ढोने का कार्य करती थी। ऐसे जहाज तो आज बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं जिस पर लड़ाकू विमान से खेल के मैदान तक होते हैं। भीम सिंह की जहाज इतनी बड़ी नहीं थी किन्तु जो गंगा में चलती थी उन में सबसे बड़ी थी। यहाँ के लोग शायद इस से बड़ी जहाज नहीं देखी होगी। जिस कारण यहाँ के आस-पास के क्षेत्र में एक जुमला प्रचलित हो गई है, अगर कोई भी व्यक्ति, कोई बड़ा समान बनता है और वह बेडौल होता जिसे छोटा करने पर भी काम चल जाती तो लोग कहते "भीम सिंह का जहाज बना दिया, जो कभी भड़े ही नहीं।"

                             भीम सिंह का जीवन रहीसी में गुजर रहा था। वह कही भी जाता तो लाव-लश्कर के साथ जाता। ऐसा नहीं की वह कुर्र प्रविर्ती का था। वह जरुरत मंद लोगों का मदद भी करता था। इसी क्रम में उसका जहाजो से कमाई कम होने लगी और उसका खर्च बेहिसाब बढ़ता गया। उसके रहीसी में कुछ पतित गुणों का समिश्रण हो गया। वह अपने मित्रों के साथ मुजरा सुनने और सुनाने मुजरेवाली के पास जाता। इसी दौरान उसे एक मुजरे वाली से इश्क हो गई। मुजरे वाली का नाम सांता बाई था। सांता बाई के नयन-नक्स तीखे थे। उसकी शारीरिक संरचना को बनाने वाले ने सचमुच नाप-तौल कर सही सांचे से बनाया था। उसकी आवाज कोयल के सामान मधुर थी, उसका तारत्व का कोई जबाब नहीं था। वह निर्त्य कला में अत्यंत निपुण थी। उसकी निर्त्य सचमुच मनमोहक होती थी। वह ऐसे थिरकती थी जैसे मोर थिरकते हैं। बाध्य यंत्रो से उसका ताल-मेल देखने लायक होती। वह तबले के थाप पर ऐसा सामा बांधती की देखने वाले की सांस थम जाती। उसने अपने रूप एवं गुण का भरपूर इस्तेमाल किया। भीम सिंह उसके प्रेम पाश  या यू कहें की रूप पाश में बंधता गया।  जैसे नाग-नागिन को पाश से बंध जाने के बाद उन्हें उस समय आसानी से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भीम सिंह सांता बाई के रूप पाश में बंध गया। वह अब अपने जहाज के व्यापार पर कम ध्यान देता। सम्पूर्ण समय वह उसी के पास रहता। जहाज का कारोबार मुंशी-मुनीब के भरोसे रह गया, जो अपना पेट भड़ने के बाद जो शेष राशि बचता वहीं बही-खाते में दिखाते। अब उसका व्यापार घाटे का सौदा हो कर रह गया।

                      भीम सिंह सारी दुनियाँ से वेपरवाह सांता बाई के पास पड़ा रहता। उसे जब पैसे की जरुरत होती या सांता बाई जब कोई फरमाइस करती उसे पूरा करने के लिए मुंशी को कह देता। मुंशी उसके आदेश को सर आँखों पर लिए घूमता। धीरे-धीरे उसका सारा व्यापार कर्ज में डूब गया। एक दिन वह सांता बाई के बांहो में पड़े हुए उसे शादी के लिए कहा तो सांता बाई बोली इतना जल्दी क्या है। मैं कहीं दूसरे के साथ दूसरी जगह थोड़े ही जा रही हूँ। अब जब भी वह कोई फरमाइस करती, भीम सिंह अपनी मुंशी को कहता तो मुंशी कहता मालिक कर्ज बढ़ गया है। भीम सिंह ने आदेश जारी किया जहाज बेच दो। फिर क्या था एक-एक कर बारी-बारी से छः जाहजे बिक गई। अपनी स्थिति से वेपरवाह भीम सिंह सांता बाई के पास पड़ा रहता। वह उसके शादी का प्रस्ताव स्वीकार करने का इंतजार कर रहा था। वह सांता बाई पर इतना मंत्र-मुग्ध था की उसे अपने स्थिति का भान नहीं हो रहा था। वह उसके हर सही गलत फरमाइस को पूरा करवाता। वह उसके अवस्था (स्थिति) पर मंद-मंद मुस्काती। उसकी वह मुस्कान एक जहरीली नागिन से कम नहीं थी। भीम सिंह उसके मोहपाश में बिलकुल जकड़ चूका था। शायद उसे वहाँ से निकालना आसान नहीं था और कोई उसे वहाँ से निकालने का प्रयाश भी नहीं किया। भला दुनियाँ वालों को किसी से क्या ? यहाँ तो प्रतिशत लोग बनते का यार (दोस्त) हैं। लोग को बस अपनी सुबिधा चाहिए, अगर आप को बुरा साथ-संगत, वस्तु, आदत अच्छी लगती है और आप उस से खुश रहते हैं तो लोग उसी माध्यम से अपना कार्य आप से करवाना चाहते हैं। उन्हें आपके भलाई-बुराई से कुछ नहीं लेना देना।

                           भीम सिंह का लॉ-लश्कर धीरे-धीरे कम होता गया। उस से मिलने आने वालो मित्रों की संख्या भी कम होते-होते नगण्य हो गई। एक बूढ़ा मुंशी कभी-कभी आता जो उसे सांता बाई के नशे में डूबे हुए बेशुध अवस्था से जगाने का प्रयाश करता, पर वह सफल नहीं हो सका। एक रोज मुंशी बोला मालिक अब तो जग जाइए। मैं अपना फर्ज समझ कर कह रहा हूँ, कल दुनियाँ वाले मुझे गाली न दे की बूढ़ा स्वार्थ में परा रहा अपने अन्नदाता को कभी जगाने का प्रयास नहीं किया। इस पर भीम सिंह हँसता हुआँ बोला 'काका इसके आगे हमें सौ गली पसंद है। मैं अब यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगा मुंशी बोला मालिक जिनके साथ हमारा व्यापार चलता है वे लोग हिशाब करना चाहते हैं। भीम सिंह बोला ठीक है कल उन्हें यहीं ग्यारह बजे लाना और आप जाइए। वह सांता बाई की तरफ मुखातिब हो कर बोला, कल हमारे हिस्सेदार (पाटनर)  आ रहें हैं उनके बैठने के लिए व्यवस्था करवा देना। वह कुटिल मुस्कान के साथ हामी में शिर हिला दी।

                                दूसरे दिन निश्चित समय पर मुंशी के साथ कई लोग आए जो भीम सिंह के साथ जहाज का व्यापार करते थे। उन्हें एक बड़े हॉल में ले जाया गया। जहाँ चारों तरफ ताम-झाम लगा हुआ था। ऊपर कसीदार झूमड़ लटकती हुई घूम रही थी। वहाँ किसी प्रकार की सुविधा और आकर्षण में कोई कमी नहीं थी। पर वे लोग भीम सिंह की स्थिति से परिचित थे। भीम सिंह हॉल में आ गया, साथ में सांता बाई भी थी। सभी का सभी से अभिवादन हुआ फिर परिचय। बाहर से जो लोग आए हुए थे, सब कुछ जानते हुए भी पूछा, ए .... भीम सिंह बोला,  ए मेरी साँस हैं इनके लिए मेरा हर कुछ कुर्बान है। जैसे कोई जीव बिना साँस का नहीं रह सकता ठीक वैसे ही मैं भी उसी प्रकार बिना इनके एक पल नहीं रह सकता। इनकी खूबियाँ मैं क्या गिनाउ। व्यापारी लोग भावशीकोरते हुए मुस्का कर अच्छी है। भीम सिंह कौन ? व्यापारी बोले, आप आपकी पसंद आपकी लगाव, पर हमारे पूर्व शर्त के अनुसार हमारे व्यापारिक बातचित में दुपक्षीये समझौता था तीसरा वयक्ति व्यापारिक पाटनर छोड़ यहाँ नहीं रह सकता। आप चाहे तो मुंशीजी को रख सकते हैं। भीम सिंह ठीक है, ऐसे हम और ये दोनों एक ही हैं। फिर भी..... बीच में बात काटती हुई वह बोली ठीक है, मैं चलती हूँ, जब आप लोगों का हिसाब समाप्त हो जाए तो हमें बता दीजिएगा और वह वहाँ से चली जाती है।

                                 मुंशी अपना बही-खाता फैलता हुआ, मालिक यह हमारी व्यापार का हिसाब-किताब है। आपको मालूम ही  है की हमारी छः जहाजे बिक चुकी हैं। इन  लोगों का हिसाब हमारे उपड निकल रहा है। साथ में और भी देनदारी है और जो कल आप ने बताया था..। भीम सिंह बस-बस, ठहाका लगता हुआ हा.. हा.. हा.. यानि हमारी सातवी जहाज भी डूब जाएगी। यह तो हमारी सबसे कीमती जहाज है। खैर, मुंशी जी लाइए कागजात सभी पर हस्ताक्षर कर दूँ। इसे भी बेच कर सारी देनदारी चूका दीजिए। कल कोई यह न कहे की भीम सिंह के पास मेरा लेनदारी है और जो कल बताया था, उसका भी व्यवस्था कर दीजिए। मुंशी बोला और शेष राशि। भीम सिंह, 'अपने पास रखिए। आपने बहुत सेवा किया है। भविष्य में जरुरत पड़ेगा तो ... मुंशी ठीक है मालिक, और सभी लोग वहाँ से प्रस्थान कर जाते हैं।

                                    भीम सिंह की मनोस्थिति उस समय गजब थी। वह एक तरह से पागल हो गया था। ऐसे वह पहले भी सांता बाई के जाल में पागल था और अभी का क्या कहना। उसकी मनोस्थिति का कोई कैसे अंदाजा लगा सकता था। हमारे यहाँ एक कहावत है "पुत्र शोक बर्दास्त होता है पर धन शोक नहीं" पर पता नहीं यहाँ उसे कौन सा शोक था। वहाँ से लड़खडाता हुआँ वहाँ से सांता बाई के भवन में जाता है। वहाँ उसे ज्ञात होता है की वह उसका इंतजार शयन कक्ष में कर रही है। वह वहाँ जाता है, सांता बाई को निहारता हुआ ठहाका लगता हैहा.. हा.. हा..। वह भी मंद-मंद मुस्कान से उसे बेहोश करती है। वह उसके पास बैठ कर उसके हर अंग को शिर से पैर तक निहारता है। उसके अंगो को टटोलते हुए ठहाका लगाता है। पुनः निहारने और टटोलने में लग जाता है। मानो वह अपना कुछ ढूंढ रहा हो। सांता बाई उससे पूछती है यह क्या कर रहे हो। भीम सिंह तुम्हारा थाह लगा रहा हूँ। तुम्हारी बनावट एवं गहराई को मापना चाह रहा हूँ। तुम्हारी प्रत्येक कोण का अनुभव चाह रहा हूँ। वह बोली इतने दिनों से थाह लगा रहे हो, अनुभव कर रहे हो। अब जो कुछ करना है, कहना है जल्दी करो। कुछ बचा है तो...... उसका भी ताकत दिखा दो जोड़ आजमाइश कर लो या फिर जाओ आराम करो। भीम सिंह ठहाका लगता हुआ, तुम क्या खाती हो, क्या पहनती हो, तुम कितनी गहरी हो। भीम सिंह के पूर्वजो का जहाज को जिसे कोई नहीं डुबो सका यहाँ तक की माँ गंगा भी, उसे तुमने डुबो दिया। जो जहाज हमारे पूर्वजो को खिलता था उससे सैकड़ो लोग जीवकोपार्जन करते (जीते-खाते) थे। उसे तुम अकेला खा गई और डकार भी नहीं लिया। तुम तो बरमूडा के ट्रैंगल से भी भयावह निकली जहाँ जहाजो का आता-पता खो जाता है। तुम और तुम्हारी अंग कौन सा समुद्रर, सागर है और ठहाका मारता हुआ भीम सिंह मुर्क्षित हो जाता है। कुछ दिनों तक उसका कोई आता-पता नहीं चलता। किसी को क्या आवश्यकता थी की वह उसका पता लगता,  खोज करता।

                           कुछ दिनों के बाद भीम सिंह को उसी क्षेत्र में  देखा गया।  उस समय वह सांता बाई और शहर के गलियों में विक्षिप्त अवस्था में घूमता हुआ दिखाई देता। सभी उससे नफ़रत करते। वह दाने-दाने के लिए मुहताज था। वह भीख मांगता हुआ नजर आता। एक रोज उसका पुराना मुंशी उसे अपने घर ले गया। अब वह ज्यादातर अपने मुंशी के दरवाजे पर ही रहता। उसका वह बूढ़ा मुंशी उसे खिलता-पिलाता और देख भाल करता। ऐसे कई लोग यह भी कहते सुने जाते की मुंशी और उसका लड़का उससे खूब मॉल बनाया है। जिसका चुकता मुंशी कर रहा है। यह सब सुन कर दिल को थोड़ा सकून मिलता है। चलो थोड़ा-बहुत तो इंसानियत अभी भी जिन्दा है।

                      हमें इस बात का ध्यान रखना चहिए की कही हम भी तो भीम सिंह की तरह डूबने तो नहीं जा रहे। किसी अति में तो नहीं फंस रहे। ऐसे संस्कृत में कहा गया है 'अति सर्वत्र बर्जते'।हमें ऐसे शौख, साथ-संगत एवं आदत से बचना चहिए जो हमें पतित करें एवं अंततः गर्त में ले जा कर डुबो दे।

मंगलवार, 8 मार्च 2016

* उद्धधार *

                   उद्धधार यानि मुक्ति, जब कोई अपनी वर्तमान अवस्था स्थिति से निजात पाना चाहता है और जब उसे उस स्थिति से निजात, छुटकारा मिल जाता है तो कहते हैं उसका  उद्धधार हो गया या जब किसी को उसके वर्तमान स्थिति या अवस्था से उत्कृष्ट स्थिति या अवस्था प्राप्त होता है तो वह उसका  उद्धधार कहलाता है।

                    हम आप को यहाँ एक जीवन वृति का कुछ अंश सुनाने जा रहा हूँ। इसमें दो चरित्र हैं दोनों एक दूसरे का  उद्धधार का कारण बने। जब हमने उसका निर्णय जाना तो पहले मुझे बहुत ओ ... महसूस हुआ की कोई आज के समाज में भी इतना बड़ा फैसला ले सकता है। वह भी मध्यवर्गीय परिवार का सदस्य जो बिना समाज  सहयोग का एक कदम भी नहीं चल सकता। जिनकी सारी रीती-रिवाज, परम्परा समाज की दुहाई पर ही चलता है। हमें बाद में ज्ञात हुआ की वह उसका पूर्व का पहचान छुपा कर ऐसा किया साथ में मज़बूरी एवं लोभ भी समाहित था।

                       मेरे दोस्त का भाई का साला है करीमन। करीमन जैसा की नाम से विदित है। उसका रंग बिलकुल काला है फिर भी वह देखने में उतना बुरा नहीं लगता। उसके आँख नाक और वदन की बनावट उसे आकर्षित बनाते हैं। उसके मुख मण्डल पर गजब का चमक है जिसे आम बोल-चाल की भाषा में पानी कहते हैं। वह उसके चेहरे पर पूर्ण रूप से विराजमान है जो उसके रंग के प्रभाव को थोड़ा कम करता है।

                            जितना मैं जानता हूँ। करीमन के घर में खाने के लाले नहीं पड़े थे तो इतना आय भी नहीं थी की वो उच्चस्तरीय जीवन व्यतीत कर सके। उसके पिता जी का असमय मृत्यु हो जाने के बाद उनके पालन-पोषण की जबाबदेही उनके दादा-दादी पर आ गई। उन्होंने इन्हें किसी तरह पाल-पोश कर बड़ा किया। करीमन अपने भाई बहनों में सबसे बड़ा था। जब वह युवा हुआ तो बाहर नौकरी करने लगा। उसी दौरान उसने अपने से छोटी बहन का शादी मेरे दोस्त के भाई से किया। जैसा की मैं जनता हूँ यह शादी बिना कोई खास लेन-देन (बिन दहेज़) के हुई थी फिर भी अन्य खर्च तो होता ही है। उस खर्च के वहन के लिए भी उन्हें जमीन बेचनी पड़ी थी। जिस से स्पस्ष्ट होता है, उनके पास कोई जामा और नगद पूंजी नहीं थी। उसके बाद भी उसने अपने और दो बहनों की शादी किया, एक भाई को दिल्ली रख कर पढ़ाया।

                        करीमन ठेका पट्टा वाले के साथ काम करता था। जो मुख्य रूप से रेलवे एवं संचार टावर का काम करते थे। इसमें उसे पगार के साथ कुछ इधर-उधर से भी आमद(आय) हो जाती थी। जितना मैं जानता हूँ, वह अल्कोहल नहीं लेता पर वह अपने सहभागियों के साथ पिकनिक एवं पार्टी अवश्य मनाता था। उसके बहुत सारे घूमते-फिरते दोस्त थे। उसकी जवानी भी अपनी तरुण अवस्था को पार कर रही थी। उसके ऊपर कोई मजबूत गार्जियन भी नहीं था। घर का भी कोई सही स्थिति नहीं था। जिस कारण उसके लिए कोई रिश्ता नहीं आ रही थी। इन सब कारणों से वह इधर-उधर ज्यादा घूमता रहता। तृष्णा कहे या हवस की भूख उस में जग रही थी। जिसे मिटाने के लिए वह मुजफरपुर के चककर चौक एवं अन्य दूसरे गलियों का अपने साथियों के साथ चककर लगाता रहता। उस में अभी गैरत बाकि थी जिस कारण वह वहाँ जाने के बाद भी ज्यादा सक्रिए नहीं था। वहाँ आने-जाने, घूमने के क्रम में उसका नजर वही एक लड़की पर पड़ी जिसे वह पाना चाहा। उसकी फरमाइस उसने वहाँ की मालकिन से किया। मालकिन ने माना कर दी और बोली इसकी कीमत तुम नहीं दे सकते, कोई और पसंद कर लो और इच्छा पूरी करो। अच्छी सेवा की शर्त हमारी है। तुम्हारा मन खुश हो जाएगा। किसी प्रकार की शिकायत का कोई मौका नहीं मिलेगा। वह बोला हम भी इसके शौकीन नहीं हैं। हम तो बस यू ही मन बहलाने के लिए घूमने चले आते हैं। हम सब को पसंद भी नहीं करते। वह बोली अच्छी बात है यहाँ आना माना थोड़े ही है। वह अब वहाँ जाता और सिर्फ घूमता, उस लड़की को देखने के बाद वापिस आ जाता। वहाँ की मालकिन उसकी हरकत देखती थी। उसने उस लड़की से उसे बात करने की छूट दे दी। अब वह उस से मिलने प्रति दिन जाया करता और बहुत खुश रहता। दोनों घंटो-घंटो बातें करते रहते। लड़की ने उसे साफ बता दी की वह इस धंधा से निकलना चाहती है और वह आजतक इस में पूर्ण संलिप्त नहीं है। वह उसे तो पहले से पाना चाह रहा था अब उसकी इच्छा और दृढ हो गई। उसने भी अपनी सारी कहानी उसे बता दिया और बोला मैं तो अभी कवाड़ा हूँ। यहाँ बस यू ही घूमने आ जाता था तो तुम्हें देखा और तुम मुझे पसंद हो मालकिन को बताया तो वह बोली तुम इसका कीमत नहीं दे सकते। मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ पर तुम्हारा कीमत तो.. , वह हँस कर बोली मेरा कीमत रुपया पैसा नहीं है, मैं जिसके साथ रहूँगी उसे मुझे अपना नाम और कुल एवं वंश नाम देना होगा। वह बोला मैं तैयार हूँ पर गाँव घर में रहना बड़ा मुश्किल होगा। एक तो वहाँ सभी एक दूसरे के विषय में पूर्ण जानकारी चाहते हैं दूसरा तुम्हें ये सुख-सुबिधा नहीं मिलेगी। वह बोली अगर हम लोग स्थाई रूप से शहर में बस जाये तो कैसा रहेगा। वह बोला पर मेरे पास इतना आय कहाँ है की मैं शहर में बस सकु और किराए पर कितने दिन रहेंगे। वह बोली उसकी चिंता तुम न करो उसकी व्यवस्था मेरी माँ कर देगी। वह आश्चर्य से बोला तुम्हारी माँ वह कहाँ हैं। वह बोली वही जिसने तुम्हें मुझ से मिलने का इजाजत दिया और बोली थी की तुम उसका कीमत नहीं दे सकते। वह भी इसी दिन का इंतजार कर रही है की मेरा नाम किसी वंश, कुल से जुड़ जाए। इसलिए तो अभी तक हमें इस धंधे में नहीं उतरा है। ऐसे तो बहुत लोग शादी के लिए तैयार हैं पर उनका न कोई प्रतिष्ठा है न वंश उन से जुड़ने के बाद भी हमें यही धंधा करना-कराना पड़ता फिर क्या फायदा। मेरे औलाद भी इसी से जुड़ा रह जाएगा। पैसा का व्यवस्था तो हो जाएगा पर नाम का व्यवस्था कैसे होगी फिर वह बोली कल आना मैं माँ से बात करती हूँ। वह लड़की अपनी माँ से बात करती है, माँ ने उसे जितना जानकारी मालूम करने के लिए बताई थी वह सारी बात जितना वह जानकारी इकट्ठा (एकत्रित) कर सकी थी या मालूम कर ली थी माँ को बता दी साथ में यह भी बता दी की शादी करने के लिए भी तैयार है। उसकी माँ बोली शादी के लिए तो बहुत लोग तैयार हैं।

                      अगले दिन तीनों इकट्ठा (एकत्रित) हुए। पूर्ण विस्तार से वार्तालाप हुई। मालकिन ने अपने तरफ से पूर्ण तहकीकात की। उसके घर में कौन-कौन है। उनका रिश्तेदारी कहाँ-कहाँ है। अगर इसे प्रेम विवाह दिखाया जाए तो कौन-कौन विरोध और कौन-कौन सहयोग करेगा। तय हुआ की पहले मंदिर में शादी होगा दोनों साथ रहेंगे फिर न्यालय में। उसने करीमन से पूछी किस शहर में बसना चाहते हो। उसके बाद उसने भी अपनी राय दी। वह बोली यहाँ से दूसरा शहर ही ठीक होगा। आपके लिए पटना ही ठीक होगा। एक तो वह यहाँ से दूर है दूसरा आपके क्षेत्र में है, तीसरी खूबी है वह राजधानी है। अगर दूसरे स्थान पर बसोगे तो लोग बहुत छान-बिन करेंगे, वहाँ क्यों किस लिए, कैसे बसा। इस से अपका नाम, वंश नाम बचा रहेगा। किसी को ज्यादा सोचने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी। कुल वंश से जुड़ाव बना रहेगा और वहाँ शहरी सुरक्षा भी प्राप्त हो जाएगी  जो आम शहरों में होता है। शहरों में लोग किसी से ज्यादा जुड़ाव या उसके विषय में जानकारी रखने की इच्छा बिना वजह नहीं रखते जैसा की गाँवो में होता है। वहाँ से यह तुम्हारे रिश्तेदारी-नातेदारी में भी घुल-मिल जाएगी और इसकी अपनी पहचान भी बन जाएगी। तीनों इस पर सहमत हो गए। उसके बाद दोनों का शादी मंदिर में सम्पन हुआ। दोनों पटना आ कर किराए के मकान में रहने लगे। मालकिन या अब यूँ कहे करीमन की सास जी ने अपनी बेटी के नाम बहादुरपुर पटना में जमीन खरीद कर उस में माकन (घर) निर्माण शुरू करा दी। 

                           उधर गावँ में शोर हो गया की करीमन प्रेम विवाह कर लिया। गाँव वालों ने सोचा करीमन गाँव आ कर बहुभोज देगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। लोगों में काना-फूसी होने लगी। लोगों ने अनेक बातें कही जो हवा में तीर चलाने समान थी। लोग अपने-अपने ढंग से अंदाज लगाने लगे। इनमें  से कुछ का सही भी था। उसके चाचा जी उससे मिलने आए। वे कुछ छान-बिन किया तो उन्हें कहीं से लड़की के विषय में कुछ मालूम हुआँ, उन्होंने करीमन से कहा चलो शादी कर लिया अच्छा है। तुमने कभी हमारे बारे में घर-परिवार, दादा-दादी के विषय में सोचा। गाँव में लोग क्या-क्या कह रहें हैं। दादा-दादी तो कुछ वर्षो में चल बसेंगे पर हमारा एवं हमारे वंशजों का क्या होगा। हमारे बाल-बच्चों का शादी-व्याह रुक जाएगी। गाँव में हम लोगों का साँस लेना दूभर हो जाएगा। वे उस पर दबाव बनाने की कोशिश करने लगे। वे पेशे से अधिवक्ता थे। शायद वह उनके बातों में थोड़ा आ भी गए। फिर तीनों करीमन ,करीमन की सास एवं करीमन की पत्नी राय-विचार किया तदनुपरांत करीमन अपने चाचा से मिल कर उन्हें पटना में ही बस जाने का सलाह दिया और बहुत सारे दलील भी। वे बोले मेरे पास इतना पैसा कहाँ है। घर-परिवार चलना बच्चों को पढ़ाना है, इतना सारे खर्च हैं पैसा बचता कहाँ है। वह बोला इसका चिंता न करें। मैं जमीन अपने बगल में हीं रजिस्टरी करा दे रहा हूँ। कुछ नगद का भी वयवस्था करा दूंगा। दोनों चाचा-भतीजा वहीं बस गए। उन दोनों का शादी उसके चाचा के उपस्थिति में न्यालय में भी सम्पन हो गया। सभी उस उस समय को छोड़ कर आगे बढ़ गए।

                               दोनों किसी बड़े सोच या साहसिक कदम और समाज कोचुनौती देने या लोगों का सोच बदलने के लिए ऐसा नहीं किया, बल्कि मज़बूरी में समझौता किया। कहा जाता है 'मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी' , उस लोकोक्ति को चरितार्थ किया। एक को गरीबी से छुटकारा मिला तो दूसरे को नाम कुल वंश का पहचान। इस प्रकार दोनों एक दूसरे का उद्धधारक भी बने। शौख एवं सुधार के लिए नहीं मज़बूरी में हैं सही दोनों का उद्धधार तो हो ही गया। 

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

* जड़ मत काटो *

                     मैं और मेरा दोस्त राजू संध्या भ्रमण करते हुए हम अपने पास के बगीचा में पहुँच गए और वही बैठ कर इधर-उधर की बातें करने लगे। इतने में राजू बोला इस समय कुछ लिख रहे हो या बस यूँ ही घर बैठे समय बिता रहे हो। मैंने कहा क्या लिखें दोस्त घर परिवार से ही परेशान रहता हूँ, सोच रहा हूँ यहाँ से अपनी बोरिया-विस्तर बांध कर कहीं दूसरे जगह बस (सेटल हो) जाऊ। राजू बोलने लगा ठीक है, हो जाओ कौन रोका है, पर जब वहाँ भी परेशानी होगी तो फिर कहाँ जाओगे। मैं तुम को एक सच्ची कहानी का प्लाट दे रहा हूँ, हो सके तो अपनी रचना में शामिल कर लेना। मैंने कहा हाँ, तो वह बोला तुम इन पेड़ो को कटवा कर बेच दोगे। मैं कुछ नहीं बोला। 

                    वह कहने लगा "पेड़ो को कटवा दोगे तो इनका समूल जड़ से नाश हो जाएगा। तुम्हे कुछ पैसे प्राप्त हो जाएंगे, पर जब तक यह रहेंगी तब तक तुम्हें या जो इनका देख भाल करेगा उन्हें इन से कुछ न कुह प्राप्त होता रहेगा। इनके फल शाखा का इस्तेमाल कर सकोगे, जो बड़े और मोटे तने वाले वृक्ष हैं उनके शाखा से फर्नीचर (काठउत्पाद) बना सकते हो। जब भी तुम आओगे इन पर अपना हक़ जाना सकते हो। इनका इस्तेमाल जो लोग करेंगे, वो भी तुम्हारा नाम लेते रहेंगे। उनसे तुम्हारा आत्मीय रिश्ता भी जुड़ा रहेगा। मैं तो यहीं कहूँगा की कभी भी कहीं किसी का जड़ मत काटो न कटवाओ हीं हो सके तो जड़ को मजबूत करो।" वह भाउकता में कहीं खो गया। मैं उसे बीच में टोका तुम्हे क्या हो गया पर्यावरणविद की तरह बात कर रहे हो और इतना भाउक क्यों हो रहे हो। मैं तुम्हे छोड़ कर कही नहीं जानें वाला हूँ। तुम्हे इन पेड़ो से क्या मिलने वाली है। वह बोल पड़ा कुछ नहीं मिलेगा तो स्वच्छ हवा तो मिलेगी उसे तो कोई नहीं रोक सकता और वह मुस्का दिया।

                     हमने पूछा तुम हमें कोई कहानी का प्लाट दे रहे थे, उसका क्या हुआँ सुनाओ, वह बोला सुनाता हूँ। फिर वह कुछ सोचने लगा मैंने पूछा क्या हो गया। वह बोल पड़ा, मैं तुम्हे संक्षेप में सुना दे रहा हूँ, तुम उसे कड़ी वार रोचकता पूर्ण जोड़ लेना। मैं कहा ठीक है। वह काने लगा :- यह उस समय की बात है जब मैं भारत के पूर्वोत्तर राज्य में पदस्थापित था उस समय वहाँ कई नक्शली एवं उग्रवादी समूह सक्रीय थे और उनमे से कई आज भी सक्रिय हैं। ऐसे ये राज्य उस समय बहुत ही पिछड़े हुएँ थे। आज उनकी स्थिति में सुधार है पर उतना नहीं जितना चाहिए। इनके पिछड़ेपन का मुख्य कारण वहाँ संसाधनों के कमी के साथ वहाँ के लोगों में कार्य करने की इच्छा की कमी है। वहाँ शिक्षा का भी अभाव है। वहाँ के लोग त्यौहार उत्सव ज्यादा मनाते हैं। इनमें नशे के साथ अवकाश मनाने का भी आदत पाई जाती है।

                  इसी दौरान वहाँ बाहर से यानी दूसरे राज्यों से आ कर लोग बसने लगे। वे जीतोड़ मेहनत कर एवं अपने अनुभव ज्ञान का इस्तेमाल कर वहाँ अच्छा-खासा धन सम्पति अर्जित कर लिए और वहीं स्थाई तौर पर निवास  करने लगे। कुछ समय बाद जब वहाँ के लोग जागरूक हुएँ तो वे वहाँ अन्य निवासियों का विरोध करने लगे। विरोध सही या गलत था या है इसे यहीं छोड़ते हैं। वहाँ के लोग अन्य लोगो का काम से विरोध न कर संगठित हो  कर अस्त्र-शस्त्र से विरोध करते। वे सिर्फ धनवानों का ही नहीं निम्न वर्ग के मजदूरी करने वालो का भी बिरोध करते। यह बिरोध आर्थिक सामाजिक के साथ राजनितिक से ज्यादा प्रेरित था और आज भी है। फिर वह चुप हो कर कुछ सोचने लगा। मैंने टोका क्या हुआँ। वह बोला कुछ नहीं। वह बोला वहाँ की स्थिति प्रस्थिति को छोड़ो लोग क्यों बिरोध कर रहे थे या कर रहें हैं। उन्हें हथियार या अन्य सुबिधा कौन मुहैया करता है। इस बिरोध का क्या अभिप्राय था। मैं कहा हमें क्या मालूम, थोड़ा बहुत खबर जो समाचार पत्रों में छपता है, उसे ही पढ़ लेते हैं और उतना ही हमें जानकारी है। खैर आगे बताओ। वह मायुश होता हुआ कहने लगा :-

                   " मैं अवकाश ले कर घर आ रहा था। ट्रेन पकड़ने के लिए अभी रेलवे स्टेशन पहुँचा ही था। ट्रेन अभी-अभी आ कर लगी ही थी। उसे वहाँ से प्रस्थान करने में अभी कुछ समय शेष था। मैं अपने कोच की तरफ आराम से बढ़ रहा था। इतने में मैं देखा की एक अर्धवृद्ध व्यक्ति जिसका उम्र लगभग ५५ वर्ष के आस-पास होगी, उसे टी० टी० पकडे हुए है और पास में जी०आर०पी० के दो जवान खड़े हैं। वह व्यक्ति रो-रो कर अपनी बात कह रहा है। इतने में वहाँ अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठी हो गई। लोग तमाशाबीन बने हुए थे। कुछ बात जानना चाह रहे थे तो कुछ उस भीड़ को देख कर वहाँ इकट्ठा हो रहे थे इतने में वहाँ मिडिया (खबर) वाले भी पहुँच गए। मैं भी थोड़ा समीप गया तो ज्ञात हुआ की वह व्यक्ति बिहार में मुजफरपुर का रहने वाला है। मैं थोड़ा और समीप गया। उसके बाद जो घटना हमें ज्ञात हुआ, बड़ा ही दुःखद था।" मैं पूछा क्या दुःखद था, वो भी तो बताव। राजू एक लम्बी सांस लेता हुआ बोला बताता हूँ।

                         राजू अपने चेहरे पर हाथ फेरता हुआ बोला :- उस व्यक्ति का नाम घनश्याम गुप्ता था। वह रोजगार की तलास में असम गया था वह पढ़ा-लिखा था और दिमाग से ऊधम (व्यापार) करने वाला भी। वह वहाँ गया तो उसे वहाँ काम मिल गई और वह काम करने लगा। वह शिक्षित था ही वहाँ के बच्चों को जिसमें वहाँ के मूल निवासी एवं बहार से आ कर बसे, दोनों को पढ़ना शुरू किया या यूँ कहे वह उन्हें ट्यूशन देना लगा। उससे उसका आमद (आय) भी बढ़ गया। वह नौकरी छोड़ अपना व्यवसाय करने लगा और एक निजी विधालय भी चलाने लगा। उस क्षेत्र में उसका पहचान शतप्रतिशत लोगो से हो गई। उसे मान सम्मान भी मिलने लगा। फिर क्या वह वही स्थाई बस गया। वह अपनी पत्नी को वही ले गया। उसके दो लड़के हुए दोनों ने कभी अपने पुराने गाँव की तरफ मुर कर भी नहीं देखा। वह  वही पूर्ण रूपेण रस-बस गए। अब वह गाँव कम जाता था। कभी जाता भी था तो अपनी हिस्सेदारी के लिए। मैं बोल परा इसमे कौन सी बुरी बात है। राजू बोला अपनी हिस्सा लेना बुरी बात नहीं है पर उसका जड़ ही काट देना बुरी बात है। मैं पूछा तुम्हारा मतलब ? वह बोलने लगा उस, उस व्यक्ति को लगा उसका हिस्सा गाँव में यूँ ही पड़ा ही रहेगा। अब मेरे बाल-बच्चे गाँव तो जाएंगे नहीं दूसरा ही उसका उपभोग करेगा, मैं क्यों नहीं अपनी सम्पूर्ण हिस्सा बेच कर ले जाऊ। वह जहाँ रहता था वहाँ उसने एक अच्छा सा घर बना लिया था। जमीन-जयदाद भी खरीद लिए थे। उसने ऐसा ही किया अपनी पुश्तैनी सम्पति से अपना जड़ ही काट लिया। उसे ऐसा करने से उसके सगे-सम्बन्धी, भाई-बंधू रोकना चाहे पर वह नहीं माना, वह सोचने लगा इनके मन में बैमानि है। मैं इन्हे अपना हिस्सा क्यों खाने दूँ। वह अपना सारा हिस्सा बेच कर गाँव से सदा के लिए पलायन कर गया। फिर उसने न कभी गाँव का रुख किया न कोई संवाद किया। वह वहाँ एसो-आराम, सुख-चैन में या जो कहो रहने लगा पर नियति और किस्मत को कौन टाल सकता है। और वह चुप हो गया।

                      मैं पूछा फि क्या हुआ। राजू बताने लगा वही व्यक्ति जो वर्षो पहले गाँव एवं अपने सगे-सम्बधियों को छोड़ चूका था, आज जब घर-गाँव का रुख किया तो उसके पास एक फूटी कौड़ी न थी, जिससे वह रेल में सफर के लिए एक वैध टिकट ले सके। उसके पास था तो सिर्फ आँखों में आंशु और दिल में मलाल कष्ट। वह कभी सोचा भी न था की उसका ऐसा दिन भी आ सकता है। मैं  पूछा कैसा दिन ? राजू बताने लगा।

                              पूर्वोत्तर राज्यों में प्रवासी लोगो के खिलाफ सुनियोजित तरीके से बिरोध चल रहा था। घनश्याम गुप्ता ने सोचा यहाँ तो मेरा तो सब से जान पहचान है। हमारी किसी से दुश्मनी भी नहीं है। सभी लोग हमें सम्मान भी देते हैं तो मुझे और मेरे परिवार को किस बात का डर है। ए लोग भला हमारा क्यूँ नुकसान पहुचाएंगे। पर उसका सोचना गलत साबित हुआँ। एक ही झटके में उसका समूल नाश हो गया। सिर्फ वह ही विलाप करने के लिए बचा। मैं पूछा कैसे ? राजू बोला, वह बता रहा था। एक रोज वह किसी काम से दूसरे गाँव गया था। उसी रोज जहाँ वह रहता था, वहाँ विद्रोहियों ने हमला कर दिया। पुरे प्रवासियों के घर में आग लगा दी, धन-सम्पति लूट लिया सभी लोगों का क़त्ल कर दिया यहाँ तक की बूढ़े,बच्चे और बीमार व्यक्ति को भी नहीं छोड़ा। वह बता रहा था की उसके परिवार में उसके साथ उसकी पत्नी दो लड़के दोनों का पत्नी और उन दोनों का भी दो-दो बच्चे थे, जिसमे एक का उम्र दो माह था। उन्होंने उसे भी नहीं छोड़ा।

                      राजू आगे बताता है की घनश्याम गुप्ता बता रहा था। वह जब दूसरे गाँव से वापिस आ रहा था तो उसे रास्ते में ही एक वृद्ध व्यक्ति ने उधर जाने से रोका और कहा, विद्रोहियों ने उधर गाँव पर हमला कर दिया है। गाँव के लगभग सभी घरों को आग के हवाले कर दिया है। उधर मत जाओ, वे अभी उधर ही हैं। घनश्याम गुप्ता माना करने के बाद भी गया उसके बाद उसने जो दृश्य देखा तो उसके मुख से आवाज भी न निकली, विद्रोही सभी का क़त्ल कर रहे थे। उसका घर भी आग के लपटों से लाल हो रहा था। वह वहाँ से बिना आवाज किए जंगल के रास्ते लुकता-छिपता भागा और किसी तरह रेलवे स्टेशन पहुँचा। वह बिहार जाने वाली रेल (ट्रेन)  की तरफ बढ़ा। उसी दौरान उसे टिकट निरीक्षक ने पकड़ लिया। उसी समय हमने उसे विलाप करता हुआँ देखा। राजू फिर चुप हो गया। मैं उसे पुनः टोका फिर क्या हुआँ ? वह कहने लगा होना क्या था ? अब वह जिस पेड़ की छाया और फल की चाह में गाँव का रुख किया था, जिसका जड़ वह वर्षो पहले काट चूका था।

                           राजू आगे बताता है की मिडियाँ वालो ने उससे पूछा आप गाँव जा रहें हैं, वहाँ आपका कोई संगी-सम्बन्धी है ? क्या वहाँ आपकी कोई अपनी धन-संम्पति है ? तो वह (घनश्याम गुप्ता) फफकता हुआँ बोला, मैं किस मुख से बोलू की वहाँ मेरा अपना सहोदर भाई एवं अन्य संगे-सम्बन्धी हैं। मैं तो बहुत पहले ही वहाँ से नाता तोड़ लिया। मैं यह कह सकता हूँ की वहाँ मेरा धन-सम्पति के नाम पर कुछ नहीं है। मिडियाँ वालो ने पुनः पूछा फिर भी, कोई तो होगा जिसके पास आप जा रहे हो। तो बड़ा मिश्किल से आवाज निकलता हुआँ बोला, हाँ वहाँ मेरा एक सहोदर भाई है। मैं उसी के पास जा रहा हूँ। मैं बोला फिर क्या हुआँ ? राजू बोला बताता हूँ। पुनः बताने लगा, मिडियाँ वालो ने उसके लिए उचित टिकट का प्रबंध  किया और उसके साथ उसके गाँव गए।

                   घनश्याम गुप्ता और मिडियाँ वाले जब गाँव पहुँचे तो वहाँ उन्हें देखने के लिए पूरा गाँव इक्ठा हो गया। वहाँ के बड़े-बुजुर्गो को छोड़ दे तो बच्चे एवं युवा घनश्याम गुप्ता को पहचानते भी न थे। उसे वहाँ आया हुआँ देख लोगों लो आश्चर्य हो रहा था। जितने लोग उतनी बातें। उसके भाई और घर वालों ने जब उसकी दशा देखि और सम्पूर्ण घटना क्रम उन्हें जब ज्ञात हुआँ तो वहाँ  माहौल गमनिगिन हो गई। घर की स्त्रियाँ विलाप एवं रुदन करने लगी। उनके रुदन से पूरा माहौल शोकाकुल हो गया। लोगों ने उन्हें सांत्वना देना शुरू किया, सभी विभिन्न तरीकों एवं तर्क से उन्हें ढाढ़स बंधाया। मिडियाँ वालो को तो जाना  भी था। वे मानवता के नाते अपना कर्तव्य बखूबी निभाई। वे उनके भाई राधेश्याम गुप्ता से मिले और उनसे पूछा आप इस घटना या अपने भाई पर कुछ कहना चाहेंगे ? आप इनका मदद कैसे करेंगे ? वह अपनी नम आँखों को पोछता हुआँ भराई हुई आवाज में बोला, मैं इस पर क्या कह सकता हूँ ? हमने तो इन्हें पहले ही अपनी सम्पति बेचने से माना किया था। मैंने कहा था आप वहाँ जितना चाहें अर्जन करें पर यह आपका जड़ है, कृप्या इसे न काटे, हो सके तो इसे मजबूत करें। इन्होंने मेरा एक भी न सुना, खैर जो होना था सो हो गया। मैं अब इतना ही कह सकता हूँ। मैं जब तक जिन्दा रहूँगा इन्हें अपनी रोटी में से आधा देता रहूँगा।

                    भाई का यह शब्द सुन वहाँ उपस्थित सभी लोगों के आँखें नम हो गई। लोगों ने कहा आखिर अपने तो अपने ही होते हैं। अपनी जन्मभूमि अपनी जन्मभूमि है। जन्मभूमि माँ के समान है। इसे पूर्णरूपेण परित्याग कभी भी किसी हालत में नहीं करना चाहिए। आप ऊपर जितना उठ सके उठे पर जड़ का परित्याग न करें। इसे न काटे न कमजोड़ करें। जड़ तो आखिर जड़ है। इसे काट कर कभी कोई सुख चैन से नहीं रह सकता। आप जितना ऊपर उठे उतना ही जड़ को मजबूत करें। अपनी जड़ के लिए दिल में एक जगह अवश्य होनी चाहिए। इन शब्दों के साथ राजू बिलकुल चुप एवं शांत हो गया। मैं भी चुप रहा। थोड़ी देर तक वहाँ बिलकुल शांति रहा, जैसे वहाँ कोई है ही नहीं।

                   थोड़ी देर बाद राजू मेरे कंधे पर हाथ रखता हुआँ बोला। कैसा है यह सच्ची घटना, अगर अच्छी और मर्मस्पर्श ज्ञानवर्धक है तो इसे अपनी रचना में अवश्य स्थान देना। जिससे लोग अपने जड़ को काटने से बचें। अगर हो सके तो उसका शीर्षक रखना "जड़ मत काटो।"  


रविवार, 17 जनवरी 2016

* विचार *

                       "विचार" के आधार पर समाज का निर्माण होता है। कुछ अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे। विचार शून्य समाज की हम कल्पना नहीं कर सकते। विचार के आधार पर अनेको संघ एवं पार्टियाँ बनती हैं और बनी भी हैं, जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष एवं प्रयत्न करती हैं और कर रही हैं। विभिन्न विचारों से ही समाज को विभिद्धता (विभिन्नता) मिलती है। विभिद्धता समाज को रोचक एवं प्रयत्नशील बनाती है। विचार में बहुत सारे गुण हैं, पर आज समाज में विचार के नाम पर जो कटुता आ रही है वह अति अशोभनिए एवं चिंतनीए है। आज लोग विचार को ढाल बना कर अपनी तुक्ष्य स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए तुक्ष्य हरकत कर रहें हैं। लोग आज जब भी किसी से किसी भी आधार पर अलग होते हैं तो उसका दोश  सीधे विचार पर मढ़ देते हैं। वे कहते हैं -'मेरा उनका विचार नहीं मिलता'। वे यह क्यूँ नहीं कहते की मेरा उनका स्वार्थ नहीं मिलता या उनके साथ या उनसे मेरा स्वार्थ सिद्धि नहीं हो रहा। लोग अपना सम्पूर्ण दोष बेचारी विचार पर मढ़ देते हैं। 

                       वर्तमान में लोग घर-परिवार, रिश्ते-नाते , व्यक्तिगत सम्बन्ध को तोड़ने के लिए भी विचार का सहारा ले रहें हैं और विचार को बदनाम कर रहें हैं। माना विचार के आधार पर संघ-संघठन,पार्टी का निर्माण करते हैं पर परिवार का क्या ? जहाँ हम जन्म लेते हैं। माना परिवार भी एक सामाजिक संघठन है। इसका मुख्य आधार संस्कार, रीती-रिवाज, सहयोग, त्याग एवं रक्त सम्बन्ध है। कुछ लोग विचार को आधार बना कर परिवार से अलग हो रहें हैं। चलो यह भी ठीक है की उनका वहाँ विचार नहीं मिलता और वे अलग रहते हैं, पर वे उनके सुख-दुःख से भी मुख मोर लेते हैं। क्या उनका यही विचार है ? नहीं, उनका यह स्वार्थ है। यह उनका पशुता है। 

                           लोग पार्टी, संघ, संगठन को भी परिवार के नाम से पुकारते हैं यहाँ तक की राज्य देश के लिए भी परिवार शब्द का इस्तेमाल करते हैं, पर वे न  आज तक परिवार को सही से समझ सके न किसी के विचार को। अगर ऐसा नहीं होता तो लोग अवश्य एक दूसरे के सुख (खुशी) से ख़ुशी एवं दूसरे के दुःख दर्द से दुखी होते, पर ऐसा नहीं हैं। हमारी सभ्यता, संस्कृति में विश्व (जगत) को परिवार बताया गया है। यह कोई नई बात नहीं है। भारतीय शास्त्रों में "वसुधैव कुटुम्कबम्" की अवधारणा बहुत पहले ही विकशित हो चुकी थी, जो आज संकुचित हो गई है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है की जो लोग या व्यक्ति जब अपने छोटे परिवार से भी विचार को आधार बना कर उससे बिलकुल अलग हो जाता है। उस परिवार से उसे कोई सारोकार नहीं होता तो वह एक बड़े परिवार में विचार के आधार पर कैसे टिक सकता है। वह वहाँ विचार के आधार पर कैसे टिक सकता है। वह वहाँ विचार के आधार पर नहीं अपने स्वार्थ के आधार पर टिका रहता है।

                           आपको पहले विदित हो ही चूका है की विश्व एक परिवार (वसुधैव कुटुम्बकम्) की आवधारणा भारतीय जनमानस में बहुत पहले से संचार कर रही है। आज जो लोग विचार को ढाल बना कर परिवार को तोड़ रहें हैं, उनके समक्ष एक ऐसे परिवार का उदाहरण प्रस्तुत करने जा रहा हूँ, जिसके प्रत्येक सदस्यों के सान्निध्यों का विचार नहीं प्राकृतिक स्वभाव एक दूसरे का बिलकुल बिरोधी है, भिर भी वे एक परिवार से बंधे हुए हैं। उनके परिवार का मुख्य आधार एक दूसरे के प्रति सम्मान, समाज कल्याण है जो एक विचार का रूप है। इस परिवार का प्रत्येक सदस्य भारतीय सभ्यता संस्कृति में पुजनिए हैं। भारतीय सभ्यता संस्कृति से तालुक (सम्बन्ध) रखने वाला हर सदस्य इनसे परिचित है। लगभग सभी शास्त्रों एवं ग्रंथो में इनके परिवार के किसी न किसी सदस्य का किसी न किसी रूप में वर्णन मिल ही जाता है। आपके मन में विचार उठ रही होगी आखिर वह कौन सा परिवार है, जिसके सन्निध्यों का एक दूसरे के प्रति विपरीत प्राकृति स्वभाव है फिर भी वे एक पिरवार के रूप में हैं, तो आप को बता दूँ वह परिवार है शिव परिवार। इस परिवार का वर्णन हम संक्षिप्त में निचे प्रस्तुत करेंगे।
                          'शिव परिवार' शिव जी विभिन्न नमो से जाने जाते हैं, शंकर जी, भोले दानी, मृत्युंजय, भूतनाथ, महादेव, औघरदानी, महाकाल, नीलकंठ आदि-आदि। इनके गले में सांप की माला है तो सान्निध्य और वाहन नंदी जो एक बैल का रूप है। इनकी पत्नी पार्वती, गौरी, शक्ति शिवा हैं, जिनकी सान्निध्य सवारी बाघ है। इनके पुत्र गणेश और कार्तिक्य हैं। गणेश का सान्निध्य वाहन (सवारी) मूष  (चूहा) है। कार्तिक्य का सान्निध्य वाहन मोर है। अब यहाँ देखने वाली बात है की, मूष का शत्रु सांप है। सांप का शत्रु मोर है। बैल का शत्रु बाघ है। शत्रु क्या ए एक दूसरे का प्राकृति द्वारा प्रदत भोजन (आहार) हैं . .जब ए इतने विपरीत परिस्थिति एवं विपरीत स्वभाव के सन्निध्यों के साथ में भी परिवार के रूप में रह सकते हैं तो हम आप क्यूँ  नहीं ? इनका परिवार हमारी संस्कृति सभ्यता एवं सोच का उपज है। हमें इनके आदर्शों को ग्रहण करना चाहिए।

                          अब सोचने एवं मनन करने वाली बात यह है की लोग वर्तमान में छोटी-छोटी बातों को बड़ी समस्या बना कर विचार का हवाला दे कर एक दूसरे से या अपनो से दुरी बना रहें। इसका मुख्य कारण स्वार्थ, संकुचित मन और विकृत मनोदशा है।

                           विचार तोड़ने नहीं जोड़ने का कार्य करता है। आपने देखा की शिव परिवार विचार को आधार बना कर ही एक है। इनका विचार है लोक कल्याण, सदभावना, प्रस्पर आदर प्रेम। अब आप कहेंगे, कैसी लोक कल्याण, कैसी सदभावना, कैसी प्रेम तो आप को बता दे, महादेव ने लोक कल्याण वश ही हलाहल (विष) को अपने कंठ में धारण किया जिससे इनका कण्ठ नीला पर गया और इनका नाम नीलकंठ पर गया। लोक कल्याण वश ही कार्तिक्य ने देवो का सेनापति का पद ग्रहण किया। सदभावना का परिणाम है की इनके सन्निध्यों का विपरीत स्वभाव होने पर भी ए सभी एक परिवार से जुड़े हैं। आदर ही है जो गणेश सर्वप्रथम पूजे जाते हैं। इनके प्रेम का क्या वर्णन किया जाए, इनके प्रेम के समतुल्य कोई नहीं है। प्रेम वश ही शिवशंकर ने ताण्डव नृत्य किया।

                              मेरा आप से बस इतनी सी निवेदन है की आप न तो अपने विचार को मैली करें, न वेचारी विचार को बदनाम करें। विचार से जोड़ने का कार्य करें तोड़ने का नहीं।

                               ये हैं शिव परिवार के  सदस्य 

शनिवार, 2 जनवरी 2016

* खेल *

                     प्रति दिन की भाति उस दिन भी मैं संध्या  बेला में घर जा रहा था। उसी समय एक औरत अपने ९-१० वर्ष के लड़के को मार रही थी और बोल रही थी, बोल उन लोगों के साथ और जाओगे खेलने और साथ में कुछ लड़को का नाम भी ले रही थी। उसी समय मैं वहाँ से गुजर रहा था। मैं उसके पास गया और उसे रोकते हुए कहा क्यू मार रही हैं। मैं बच्चे से पूछा क्यू बाबू क्या सरारत (बदमाशी) कर दिया। वह रोते हुए बोला, हमने कुछ नहीं किया। फलनवा और फलनिया ने कहा चलो खेल खेलते हैं तो मैं भी गया था। मैं उस औरत के तरफ मुखातिब हो कर बोला, बच्चा है बच्चों के साथ नहीं खेलेगा तो किसके साथ खेलेगा। बचपन में खेलना कोई गुनाह काम थोड़े ही है। चलिए इसे छोड़ दीजिए। वह मेरे तरफ मुखातिब हो कर बोली, बबुआजी आप नहीं जान रहें हैं, ई सब कौन खेला खेल रहा है। ए सब बच्चा है !जवान का कान काट रहा है। ई लोग का हरकत देखिएगा और सुनिएगा तो........ । मैं बोला क्या हो गया, ऐसे भी पुत्र (बेटा) पिता (बाप) से तेज होते ही हैं, तभी तो आज देश, समाज तरकी कर रहा है। विकाश और उन्नति के लिए अगली पीढ़ी को पिछली पीढ़ी का कान तो कटनी ही पड़ेगी। मेरे चुप होने पर उस औरत ने जो बात बताई तो थोड़ा देर के लिए मैं सोच में पर गया एवं पुनः मेरी मस्तिष्क में वह १२ वर्ष पुरानी सम्पूर्ण घटनाक्रम याद आ गई। उस समय मेरा गिनती भी बच्चों में ही था। उस समय मैं जिस औरत से बात कर रहा था। उस से हमारा भाभी का रिश्ता था। यह रिश्ता कोई रक्त या वर्ग जाती सम्बन्धी नहीं था। बस उम्र के लिहाज से उनके पति को भाई (भईया) बोलने से हो गया था। उसने कहा बाबू जी आप नहीं जानते हैं। आप हमें भाभी कहते हैं फिर भी आज तक कोई ऐसी-वैसी बात या मजाक नहीं की, ये बच्चे बहुत गन्दी बात एवं गन्दी हरकत करते हैं। मैं बोला ऐसा क्या करते हैं ? वह बोली आप को बताना ही पड़ेगा, "ये बच्चे शरीर के गुप्त अंगो के साथ हरकत करते हैं। इन्हे अप्राकृतिक क्रिया भी करते हुए मैं देखी हूँ।"मैं बोला नहीं ऐसी बात नहीं होगी। उन्हें कुछ परेशानी रही होगी तो आप ने गलत समझ लिया होगा। वह जोड़ दे कर कहने लगी ऐसी बात नहीं है, मैं पूर्ण यकीन के साथ कहती हूँ की वही कही हूँ और वह १००% (सौ प्रतिशत) सत्य है। मैं झेप गया, खैर जाने दीजिए कहता हुआ मैं अपने घर की ओर चल दिया। 

                      आप को मैं बताता चलु। उस रोज से ठीक बारह वर्ष पहले मैं भी उसी प्रकार का घटना देखा था, उस समय मैं भी बच्चों के श्रेणी में था, पर वे लड़के मुझ से भी और छोटे थे। उन में से कुछ तो मुझ से ५-७ वर्ष से कम छोटे नहीं रहे होंगे। अगर आज वही बात किसी के सामने रखा जाए तो रिश्ते को शर्मशार करने वाली होगी। मैं उसी बात को उनके अभिभावकों को बताया तो, वे अपने बच्चों पर ध्यान देने के बजाए, मेरे घर पर उलाहना ले कर आ गए की मैं उनके बच्चों को बदनाम कर रहा हूँ। मेरी माँ मुझे डाटते हुए बोली अब तुम बड़े हो रहे हो। यही सब देखते चल रहे हो। तुमको क्या लेना देना है। मैं भी देखा की दो परिवार के बदनामी के साथ, मेरे साथ भी कीच-कीच होगा। पुरवा-साख कराने से कोई फायदा तो है नहीं। मैं भी उस समय चुप रहने में ही भलाई समझा। बिना मतलब उनके और मेरे  घर से तू तू मैं मैं हो जाता। उनके अभिभावकों का कहना था की उनके बच्चे कह रहे हैं  की उन्होंने ऐसा नहीं किया या नहीं कर रहे थे। मैं सोचा तो इसका मतलब अब वे बच्चे, बच्चे नहीं रहे। इसका मतलब उन्हें इसका आधा-सुधा ज्ञान है पर अभिभावक को तो सोचना चाहिए।

                         अब आप को ऐसी ही और घटना के विषय में बताते चलता हूँ, जो इस घटना के कुछ वर्ष बाद घटी थी। मैं अपने पड़ोस में लड़को को खेलते हुए देख रहा था। कुछ लड़के अपने खेल में मग्न थे तो उन में से दो-तीन उसी प्रकार का हरकत कर रहे थे। जिस प्रकार का वह औरत बता रही थी। मैं उनके हरकत को उनके माँ से बता दिया। जब वह लड़का घर गया तो उसकी माँ उसे मारने लगी और पूछने लगी पर उसकी दादी मेरा उलाहना देने मेरे घर पहुँच गई। मेरा नाम लेते हुए वह बोली वह मेरी बहु को क्या-क्या झूठ-साच बता दिया है। वह अपने लड़के को मार रही है। मैं उस समय घर में ही था। मेरी माँ बोली ठीक है दीदी मैं उस से पूछती हूँ, मगर मेरी माँ, मुझ से कुछ नहीं पूछी, अपने आप से बड़बड़ाते हुए वह  बोल रही थी। बच्चों का ख्याल तो रखेंगे नहीं अगर कोई सही या गलत देखा और बता दिया तो उसी पर चढ़ बैठते हैं। कुछ तो सोचना चहिए। मुझे आभास हुआ की माँ को भी इन बातो का भनक (जानकारी) जरूर है।

                            आज मैं उस पुरानी और इस नई बात में कोई अंतर नहीं देखा। समान उम्र समान हरकत। अंतर सिर्फ इतना था की कोई उस हरकत को अपने आँखों से देख ली थी और अपने बच्चे को सम्भालने का प्रयत्न कर रही थी पर उसका तरीका सही नहीं था। कोई-कोई अभिभावक तो अपने बच्चों पर ध्यान देते हैं पर कुछ लोग तो अगर कोई उनके बच्चे के बारे में कुछ कह दे तो वे उस बात को परखने के बजाए बताने वाले पर दाना-पानी ले कर चढ़ जाते हैं। बच्चों का उस हरकत को देख कर और आज सुन कर मैं सोचने पर मजबूर हुआ। आखिर क्या कारण है की बच्चे उम्र से पहले इस और आकर्षित हो रहें हैं। उन्हें इस प्रकार की क्रियाओं की जानकारी कैसे, समय पूर्व हो रही है। ऐ अपने उम्र के लिहाज से कुछ ज्यादा नहीं बहुत ज्यादा सक्रियता दिखला रहे हैं तो हमने प्रताल में पाया की इसके कई पहलु हैं।

                           पहला तो हमने पाया की आज संयुक्त परिवार बिखर रहा है। इसका सीधा प्रभाव बच्चों के परवरिश पर पड़ रहा है। कुछ संयुक्त परिवार है तो भी उनमे वह संयुक्ता नहीं रही। संयुक्त परिवार में बच्चे अपने दादा-दादी के पास ज्यादा रहते हैं। जिस से उन्हें खिस्से कहानियों द्वारा चरित्र निर्माण के साथ सामाजिक स्थिति समझने में मदद मिलती है। इस प्रकार के परिवार में जिसे नाती-पोता हो जाता तो वे एक दम्पति की जीवन त्याग कर घर में सन्यासी की तरह रहते हैं जो बच्चों का चरित्र निर्माण करता है। दादा-दादी के पास रहने से बच्चे बाल्यावस्था (बाल्यअवस्था) में इस प्रकार की क्रियाओं से अनभिग रहते हैं।

                             हमें ज्ञात है की मानव एक ऐसा जीव है, जिसके शिशु में सबसे काम चेतना पाया जाता है। इसमे धीरे-धीरे चेतना का विकाश होता है। यह अनुकरण से अथार्त  देख सुन कर ही सीखता है। अर्थात हम अपने बच्चों को जैसा माहौल दृश्य देंगे वे वैसा ही सीखेंगे।

                          संयुक्त परिवार के विघटन एवं व्यक्तिगत परिवार के निर्माण के फलस्वरूप बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं और उनके साथ ही सोते  हैं। इस दौरान अगर दम्पति प्रेम प्रलाप या प्रेम क्रीड़ा करते हैं। वे अपने बच्चों का ध्यान नहीं रखते की वह अभी कहाँ है या क्या कर रहा है, साथ में अगर वे यह सोचते हैं की यह तो अभी बच्चा है और वह बच्चे के उपस्थिति को नजर अंदाज करते हैं, जो गलत है। बच्चा उनके क्रियाओं को सीखता है और फिर उसे करने या दोहराने का प्रयत्न करता है। बच्चा अपने आस-पास होने वाली क्रियाओं का अनुकरण करता है।

                            दूसरा कारण हमने पाया की आज लोगों के पास निवाश के लिए प्रयाप्त स्थान नहीं है या यू कहे की उसका सही प्रबंधन भी नहीं है। एक ही कमरे में माता-पिता बच्चे सभी सोते हैं। उसी दौरान अगर वे बच्चे को नजर-अंदाज करते हुए किसी प्रकार का क्रिया कलाप करते हैं तो बच्चे उसे ग्रहण कर बाद में प्रदर्शित करते हैं। हम इतिहास में जाए तो देखेंगे सभी का निवाश अलग-अलग था। औरत कहाँ रहेंगी, मर्द कहाँ रहेंगे, कौन बच्चा कहाँ किसके साथ रहेगा। अब यह रीती (नियम) टूटता जा रहा है। जिसका परिणाम हमें देखने को मिल रहा है।

                         बच्चों का इस प्रकार का आचरण प्रदर्शन का अन्य मुख्य कारण है असामाजिक प्रकृति के लोग जो बच्चों के सम्मुख जान-बुझ कर उस प्रकार की बातें करते हैं या क्रिया कलाप और अवांछनीय हरकत करतें हैं। कुछ लोग तो अनजाने में उस समय इस बात को बच्चों के सम्मुख मजाक के तौर पर करते हैं। जिसे बच्चे बाद में प्रदर्शित करते हैं। कुछ लोग आधुनिकता दिखने-दिखाने के चकर में अपनी सभ्यता संस्कृति छोड़ अन्य सभ्यता का अनुकरण करते हैं। इसका प्रभाव भी बच्चों पर पड़ रहा है।

                             हमें इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए अपनी सभ्यता संस्कृति की गिरते स्तर को बचाना चहिए। अगर हमने मानव तन पाया है। मानव सामाजिक प्राणी है तो हमें अपने आचार-व्यवहार को समयानुकूल नियंत्रित रखना चाहिए। इस प्रकार का खेल बच्चों में कम से कम हमारे द्वारा प्रसारित न हो, इसका ख्याल रखना चाहिए। 


शनिवार, 26 दिसंबर 2015

* भाई बना भतार *

                   शीर्षक देख आपके मन में पहला विचार आएगा, ऐसा कैसे हो सकता है। यह सच नहीं हो सकता वो भी हमारी भारतीय संस्कृति में। लिखने वाला जरूर मानसिक बीमारी से ग्रस्त होगा पर यह झूठ नहीं है। ऐसी वारदात आपके आस-पास भी घटित हुई होगी पर आप इसे महसूस नहीं किया होगा। हमने किया है। मैं इसे कलमबंद इस लिए कर रहा हूँ ताकि लोग इस समस्या को समझ सके और किसी और अन्य को इस मानसिक दबाव से न गुजरना पड़े। इसके निदान पर ध्यान दे। अगर अगर यह शीर्षक और यह घटना झूठा है तो सचमुच यह किसी मानसिक रोगी के मस्तिस्क का उपज है।

                 मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ बंधुत्व, भाईचारा का माहौल रहा है। एक समय ऐसा भी था जब हमारा थाना+प्रखण्ड+ अंचल सन्देश नरसंघार के लिए राष्टीय क्या अन्तराष्टिय स्तर पर बदनाम था। इसी क्षेत्र में मेरा पंचायत भी आता है। यहाँ भी कुछ असामाजिक तत्वों ने तनाव फैलाने की योजना बना चुके थे, पर यहाँ यानि हमारे पंचायत और पास के पंचायत के निवासियों ने उस में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। यहाँ उस समय भी और आज भी बंधुत्व की भावना बरकार है। कुछ लोगो के व्यक्तिगत स्तर को छोड़ दे तो यहाँ सामाजिक स्तर पर शान्ति हर समय कायम रहा है। यहाँ की समाज विभिन्न जाती वर्गो एवं विभिन्न समुदायों, सम्प्रदायो से मिल कर बना है। यहाँ सभी लोग एक दूसरे को दीदी, भाया, चाचा-चाची, दादा-दादी या अन्यरिश्तेदारी जोड़ कर आदर सूचक शब्दों के साथ सम्बोधन करते है। 

                 अब मैं आपके सम्मुख उस घटना की चर्चा कर रहा हूँ, जो हमें यह शीर्षक देने को मजबूर किया। ऐसे सभी क्षेत्रों में जाती, सम्प्रदायो का शादी-व्याह के साथ अंतिम संस्कार का अलग-अलग रीतिरिवाज परम्परा है। ऐ सारी परम्परा रीतिरिवाज मानव व्यवहार एवं सोच की उपज हैं। कुछ तो उस समय सुबिधा एवं सहूलियत के लिए बनाई गई जो आज अपना प्रसंगीता खो चुके हैं। लोग आज भी उसे हाथी का जंजीर की तरह ढो रहें हैं। जब हाथी न रहा तो जंजीर ढोने की क्या आवश्यकता। कहा जाता है की किसी के दादा जी के पास एक हाथी था जो बड़ा ही शुभ था पर आज न दादा जी रहें न हाथी तो फिर जंजीर को क्यों ढोते रहा जाए। ऐसे भी आज जंजीर से भी मजबूत बंधन का निर्माण (अविष्कार) हो चूका है साथ ही आज हाथी पालना भी गैरकानूनी और महंगा शौक है। वर्तमान समय बचत का है व्यय का नहीं। 

                    मेरा उम्र उस समय २० वर्ष था। मैं अपना प्रवेशिका की पढाई समाप्त कर केंद्र सरकार का कर्मचारी बन चूका था। जो घटनाक्रम मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ, उस समय मैं अवकाश पर गाँव आया हुआ था। मेरा ज्यादा समय गाँव के चौपाल पर जो आज चट्टी का रूप ले चूका है, वहीं ब्यतीत होता। वहाँ हमें बैठे-बिठाए पुरे जेवर का नई से पुरानी खबर प्राप्त हो जाती। किसका सगाई हुआ, किसकी सगाई टूटी, किसका लड़का क्या कर रहा है। कौन कहाँ गुल खिला रहा है। किसका सितारा चमक रहा है, किसका सितारा गर्दिश में है। कौन डूबता सूर्य बनने वाला है। इसके साथ ही वहाँ बैठे लोग कौन क्या योजना बना रहा है उसका भी पूर्वानुमान लगाने से नहीं चूकते। वहाँ से मेरे घर जाने के रास्ते में एक कुआँ पड़ता था, जो पक्का था, उसके चारों तरफ चौड़ी जगत बनी हुई थी। जो वहाँ के लोगों को बैठने का स्थान प्रदान करती थी। अब उस कुँए का इस्तेमाल पानी के लिए नहीं हो रहा था पर जब उस टोले के बड़े-बूढ़े, बच्चें औरतों किसी को भी खाली समय मिलता तो वह वहीं आ कर बैठता और जो भी भी वहाँ आता उस से गप्पे लगता। एक रोज मैं वहाँ से दिन के करीब ग्यारह बजे गुजर रहा था। वहीं की एक लड़की जिसका नाम मुमताज था। वह हमसे कम से कम ६ वर्ष छोटी होगी। कुँए के जगत पर दोनों पैर मोड़ कर घुटनों के बीच में शिर रख चुप-चाप बैठी कुछ सोच रही थी। मैं वहाँ से गुजर रहा था यानि की उसे पार करने ही वाला था और वह हमें नहीं टोकी तो मैं सोचने लगा क्या बात है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। मैं जब भी गाँव आता हूँ और यह प्रथम बार मिलती है तो प्रणाम(अभिनन्दन) तो अवश्य करती फिर हम दोनों एक दूसरे का कुशल-छेम पूछते थे। ऐसा कभी नहीं हुआ की मैं उसके सामने से गुजर गया और वह कुछ न बोली हो। इन बातों को सोचकर मैं वहाँ रुक गया और उसके तरफ मुर कर पूछा, "क्या बात है मुमताज।" वह हड़बड़ा कर अपने ध्यान से निकली और प्रणाम करते हुए बोली कुछ नहीं और झेंप मिटाने की कोसिस करने लगी। मैं बोला कुछ तो है तभी तो इतना गहरी सोच में डूबी हुई थी। वह बोली आप को क्या बताऊ। मैं बोला नहीं बताव पर जब तक किसी को नहीं बताओगी समस्या का समाधान कैसे निकलेगा। इसी तरह कब तक सोचती रहोगी और चिंता में डूबी रहोगी। मैं फिर एक बार जोड़ दे कर बोला, बता दो। वह बोली "लाज आ रही है।" मैं सोचा लड़की है कुछ आंतरिक बात रही होगी। मेरा दिल फिर नहीं माना, मैं फिर सोचा एक बार पुनः पूछ कर देखता हूँ। मैं कहा ऐसी क्या बात है, चोरी और गलत रिश्ता छोड़ किसी बात के लिए क्या लाज। तुम अगर मुझे अपना भाई मानती हो तो बता। वह शर्माती हुई बोली मेरी निकाह होने वाली है। मैं बोला तो इसमे लाज की क्या बात है सभी का निकाह होता है और कोई परेशानी है क्या ? वह बोली, ऐसी बात नहीं है।मैं बोला तो फिर कैसी बात है। वह बोलने लगी अभी-अभी आपने बोला अपना भाई समझती हो तो बता। आप तो दूसरे जाती, धर्म सम्प्रदाय के हैं फिर भी भाई तो भाई होता है न ! अभी से ही मेरी सहेलियाँ बात बनाना शुरू कर दी हैं। मैं बोला बात क्या है, वह साफ-साफ बता और सहेलियों को छोड़, वह सहेली, सहेली थोड़ी ही है जो अपने सहेली की बात बनाए। वह बोली 'मेरी जिस से निकाह तय हुआ है वह मेरी बुआ जी (खाला) का लड़का है'। मैं बोल पड़ा वही न नवशाद वह तो अच्छा लड़का है। तुम लोगों में तो ऐसी शादियाँ होती ही हैं। वह बोल परी आप भी वही कह दिए न जो सभी कह रहें हैं, पर हमें यह रिश्ता अच्छा नहीं लग रहा, मैं उनका इज्जत करती हूँ अब मैं क्या करू ? मैं पूछा यह बात तू अपने मम्मी-पापा को बताई ? वह बोल पड़ी, वे कहते हैं हमें इतना अच्छा ररिश्ता मिल रहा है, अगर तुम्हे पसन्द नहीं है तो कैसे होगा ? हमारे पास उतनी आय या पैसा नहीं है की हम तुम्हारी शादी दूसरी जगह तय कर सके। मैं बोला अच्छा देखता हूँ, इसमे मैं कुछ कर सकता हूँ या नहीं और मैं वहाँ से चल दिया। मैं रास्ते में सोचता हुआ जा रहा था। इसी बीच हमें हमारे गाँव का ही एक बुजुर्ग का कहावत याद आ गई जो कभी-कभी कहते थे, "भैया जैसा खोजोगे तो कहाँ मिलेगा।" उनके बात से मुझे गजब तरह का अनुभूति हुई पर मैं मुमताज के चिंता पर सोचने लगा। सोचते हुए मेरा घर आ गया और मैं उसके बारे में ही सोचता रहा।

                          अगले दिन मैं घर से बाजार के लिए निकला। मैं उसी रास्ते से निकला जिस रास्ते में मुमताज का घर पड़ता था। संयोग से मुमताज के माता-पिता अपने दरवाजे पर ही बैठे हुए थे।  हम लोगों का आपस में अभिनन्दन हुआ कुशल-छेम पूछा और फिर घर का बात निकल गया। मैं भी मौका अच्छा देखा और बात पर बात बढ़ाता गया। उन्होंने खुद ही अपनी बेटी की निकाह तय होने की बात बताई। मैं अनजान बनते हुए पूछा, कहाँ तय किया तो उन्होंने सब बता दिया। मैं ने उन से पूछा आप ने मुमताज से पूछा, उसे यह रिश्ता पसन्द है या नहीं, आप लोगों में तो लड़की के राजी से ही न निकाह तय होता है। वह बोले बाबू उस से क्या पूछना, यह सब एक रीती रिवाज है। मैं इतना अच्छा रिश्ता  कहाँ से लाऊँगा। मैं उन्हें विभिन्न तरीको से समझाने का प्रयाश किया पर वे हमें ही समझा दिए। मैं अंत में कहा मुमताज अभी छोटी है, शादी से उसके शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ेगा और आपको यह पता ही होगा, अठ्ठारह वर्ष से कम की लड़की का शादी करना गैरकानूनी है। इसके लिए सरकार कितने कार्य-क्रम चला रही है, की इसके बुरे प्रभाव से बचा जा सके। वे बोल पड़े यह सब कहने की बात है। यह बड़े लोगों और शहर में होता है। लड़की पराई अमानत है जितना जल्दी वह अपनी घर जाए अच्छी है। वह कह पड़े काहे का कानून, क्या कानून हमें खाने के लिए और इसके निकाह के लिए पैसा देगी। कौन कितना मदद करेगा, अगर आप भी बड़ा दिल दिखाएंगे तो कुछ हजार का मदद या कर्ज दे देंगे, क्या उस से सब हो जाएगा। बाबू यह दुनियादारी है। गरीबों की जिंदगी तो और भी मुश्किल  है। मैं उनका दलील सुन हक्का-बक्का रह गया और मैं फिर बाजार के लिए प्रस्थान किया।

                       अगले दिन मैं उसी चौपाल पर बैठा था। जिसका हमने पहले चर्चा किया था। हमारे साथ और कई लोग भी थे जो हम से उम्र में बड़े थे। मैं बात-बात में यह बात निकाल दिया। मैं उन लोगों से पूछ बैठा यह शादी कैसे रुकवाई जा सकती है। उन लोगों ने हम सर मजाक कर दिया वे लोग बोले क्या बात है? कहीं कोई चककर-वककर तो नहीं। मैं उन लोगों को सही बात बता दिया और कहा मैं उस लड़की का मदद करना चाहता हूँ। अगर इसकी शिकायत थाना में कर दिया जाए की लड़की का उम्र (उमर) कम है। वह अभी नवालिक है। उसके अभिभावक जबरजस्ती बिना उसके इच्छा के शादी करा रहे है तो कैसा होगा। उसकी शादी तो रुक जाएगी। वहाँ के सभी लोग हमें डाटने लगे और कहने लगे तू पागल हो गया है। 
ऐसा भूल कर भी नहीं करना। यह शहर नहीं है। तुम सरकारी नौकरी करोगे या थाना कचहरी (न्यायालय) का चक्कर काटोगे। आज उस लड़की के बारे (विषय) में सोच रहे हो, कल वही तुम्हारे खिलाफ हो जाएगी।  उसे जब  थाना और कचहरी जाना पड़ेगा तथा उसके अभिभावक एवं रिश्तेदार जब उस पर दबाव बनाएंगे तो वह टूट जाएगी। तुम अगर ऐसा करते हो तो इसका असर बड़ा लम्बा-चौड़ा दूर तक होगी। कुछ लोग तो इससे साम्प्रदाइक सौहार्द बिगारने का भी प्रयाश करेंगे तुम्हे उसके नाम के साथ घसीटकर बदनाम करेंगे। उसके घर और रिश्तेदारवाले तुम्हारे कटर (जानी) दुश्मन हो जाएंगे। वे सिर्फ तुमसे ही नहीं तुम्हारे वशंज, आद-औलाद से भी दुश्मनी निभाएंगे। कहा गया है "सौ दोस्त बनाओ पर एक दुश्मन मत बनाओ।" संक्षेप में कहु तो यहाँ सम्पूर्ण समाज तुम्हारे खिलाप हो जाएगी। तुम्हारे साथ वही कहावत चरितार्थ होगी 'आ बैल मुझे मार।' मैं बोला ठीक है। हँस कर मैं अपना तनाव को कम करते हुए कहा, मैं तो बस यु ही पूछ रहा था की इस प्रकार के हालत या स्थिति पर आप लोगों की क्या राय हैं। अभी तक तो मैं मुमताज की चिंता पर चिंतित था अब मुझे अपने आप पर दया आने लगी। अपनी स्थिति एवं समाज की संरचना पर सोचने को मजबूर हो गया। 

                      अब मेरे अंतः मन में कई प्रश्न उठने लगे। आखिर यह ताना-बाना किसकी बुनी हुई है। मुमताज भी तो  उसी सम्प्रदाय की है, फिर उसे इस प्रकार के रिश्ता से क्यू गुरेज है। वह मिश्रित समाज में पली-बढ़ी है शायद इसलिए ! वह अगर सिर्फ उसी सम्प्रदाय के लोगों के बीच पली-बढ़ी रहती तो शायद उसे इस प्रकार के रिश्ते से इतना झिझक नहीं होती। इस घटनाक्रम से हमारे मन की एक बात साफ हो गई, अगर हमें सम्प्रदायों के मिथक को तोडना है तो संयुक्त समाज के रचना के साथ नवयुवकों एवं नवयुवतियों की भावना को समझते हुए उनके अच्छे विचारों को आदरपूर्वक आगे बढ़ाना होगा। कुछ समय के लिए मैं उस रास्ते से जाना छोड़ दिया था। मैं उसे किसी प्रकार से मदद नहीं कर सका तो मैं उसका सामना कैसे करता, यह मेरे अंतः मन का आवाज था। वह हमारे बारे में क्या सोचती थी यह हमें नहीं मालूम। उस रोज जब मैं उसके पिता जी से बात कर रहा था तो शायद वह सभी बातों को सुन चुकी थी। उसके हाव-भाव से लगा की वह हम पर दया कर तरस खा रही है। उसने फिर कभी भी इस पर बात नहीं की।

                      समय ब्यतीत होता गया। वह आज बाल-बच्चेदार हो चुकी है। वह एक रोज मुझ से मिली तो हँस कर बात की और कुशल छेम पूछी तो मेरा मन थोड़ा हल्का महसूस किया। मैं मन ही मन कहा चलो, लगता है यह इस रीती-रिवाजो से सामंजस्य कर चुकी है, जो अच्छा ही है। वह जाने लगी तो उसे मैंने टोका, वह पुनः मेरे तरफ मुड़ी, मैंने कहा, देखो जो हमें अच्छा न लगता हो शायद दूसरे को भी वह अच्छा न लगे, पर यह जरुरी नहीं है। तुम उनका ख्याल रखना। वह शायद मेरा कहने का मतलब समझ गई होगी। वह सिर हिलाती हुई बोली जी...... नमस्कार।