प्रेम, प्रेम, प्रेम... हाय रे शब्द, प्रेम को व्यक्त करने के अनेक तरीके और विभिन्न आयाम हैं।
प्रेम, प्यार, इश्क, मोहब्बत, Love इत्यादि, इन शब्दों को लगभग एक ही अर्थ में लिया जाता है, पर इनकी अभिव्यक्ति के तरीके अलग-अलग हैं। इन शब्दों पर अनेक विद्वानों ने अनेक दोहे, काव्य, महाकाव्य, ग्रंथ लिखे हैं। कबीर की एक साखी है -
पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।।
प्रेम को कोई ईश्वर का रूप मानता है, कोई इसे समुद्र कहता है, तो कोई पर्वत का शिखर। हम यहाँ न प्रेम को परिभाषित करना चाहते हैं और न उसकी सीमा बताना चाहते हैं। हम तो इस लोक में, धरातल पर, जो हो चुका है, जो हो रहा है, उसी का संक्षिप्त रूप में चर्चा करना चाह रहे हैं। हम यहाँ कोई नया शब्द या नई सीमा का निर्माण नहीं करने जा रहे हैं, हम तो सिर्फ उसे देखने का प्रयास कर रहे हैं, जो हमारे सम्मुख हो चुका है और हो रहा है और उसका परिणाम क्या हुआ, सिर्फ उस पर हम एक नजर डालेंगे और हमारे बीच की संतति जो बोल-वचन करती है, उसे हम विवेक और हृदय के तराजू पर तोलने का कोशिश करेंगे।
हम यहाँ पहले भद्र-अभद्र टीका-टिप्पणी पर चर्चा करेंगे। फिर जो ऐतिहासिक और मशहूर उपमा है, उस पर चर्चा करेंगे। कोई पे्रम को इबादत कहता है, तो कोई कुछ और। यहाँ हम कुछ उक्ति और बोलचाल में प्रयुक्त शब्दों और वाक्यों पर ध्यान देंगे -
प्रेम और युद्ध में सब जायज है। आखिर कैसे युद्ध द्वेष, ईष्र्या एवं विरोध से उत्पन्न होता है ? क्या ये सभी समाज के नव-निर्माण के लिये सही हैं। कोई भी युद्ध हो, चाहे उसे धर्मयुद्ध की उपाधि से विभूषित किया गया हो, युद्ध को कभी उचित नहीं ठहराया जा सकता। जहाँ प्रेम को इस अर्थ मे प्रयोग किया जाता हो, उसे हम कैसे सही ठहरा सकते हैं, जो कहता हो सब जायज है। रास्ता सही है या गलत, तो फिर उसे सही कैसे ठहरा सकते हैं।
L = Loss of Money
O = Out of Mind
V = Value of Time
E = End of Life
इस उक्ति में जो लिखा है, क्या सही है या फिर गलत ! अगर सही है, तो किसके संदर्भ में। हम जब युवा हैं और जब हमारा तरूण अवस्था चलता है, तो हम अपना बहुमूल्य समय व्यतीत कर देते हैं। हम न अपना जीवन संवारते हैं, न समाज के विकास में काम आते हैं और समय निकल जाने पर समय को कोसते हैं, जो सही नहीं है। समय (काल) तो गतिशील है, यह अपने निश्चित चाल में चलता रहता है। सही ही कहा गया है
- अब पछताये क्या होत है,
जब चिडि़या चुग गई खेत।
प्रेम को अंग्रेजी में 'Love is Blind' कहकर विभूषित किया गया है। Blind यानी अंधा। जो अंधा है, उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं ? मानते हैं अंधे व्यक्ति भी प्रतिभा के धनी होते हैं, पर सभी ऐसे नहीं होते। अंधा तो अंधा ही होता है। जो लोग इस उक्ति का प्रयोग करते हैं, उनके बारे में हम क्या कहें। जिसके मुख से ऐसा उक्ति निकलता हो, उसका मस्तिक कितना उचित होगा। क्या अंधे को संसार का दृश्य दिखता है, जो वह दुनिया का सही निरूपण कर सके। सभी श्रीकृष्ण भक्त कवि सूरदास नहीं हो सकते।
लेकिन दूसरे अर्थ में कहा जा सकता है कि 'Love is Blind' उक्ति को हमारे समझ से प्रथम बार प्रयोग करने वाला कोई योग्य व्यक्ति ही रहा होगा। जब बच्चा माँ के गर्भ में आता है, उसी समय से बिना देखे ही माँ उससे प्यार करती है। वह लड़का है या लड़की है, गोरा या काला है, उसका व्यवहार और चरित्र क्या होगा, माँ को कुछ भी पता नहीं होता।
Love is game - Play it .
Love is book - Read it .
Love is life - Enjoy it .
Love is danger -Face it
इन उक्तियों में ध्यान देने योग्य निम्न बातें हैं:-
Love is game - Play it . - प्यार अगर खेल है, तो नियम से होना चाहिए। इन्सान, जिसने मनोरंजन के लिए खेल बनाया, उसके लिए बहुत सारे नियम बनाये और ईश्वर ने प्रेम (Love) बनाया, क्या उसका कोई नियम-कायदा, अभिव्यक्ति का सलीका (तरीका) नहीं है। प्रेम तो सृष्टी चलाने के लिए ईंधन का काम करती है। प्रेम तो बहुत बड़े खेल का रूप है, जो पूरे जगत में व्याप्त है। प्रेम के लिए भी तो नियम (Rule) हैं, जो जगत-व्यवहार या शास्त्रों में वर्णित हैं। हमें उसका अनुसरण तो करना ही चाहिए।
Love is book - Read it . प्रेम अगर पुस्तक है, तो सही है। पर यहाँं लोगों को हमारे द्वारा नहीं, बल्कि विद्धानों द्वारा सलाह दी गई है कि कभी सस्ता साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए और निम्न कोटि के पुस्तकों से दूरी बनाकर ही रहना चाहिये। सस्ती लोकप्रियता ज्यादा दिन नहीं टिकती। कोई भौतिक वस्तु ही लें, जो आसानी से या सस्ते में मिल जाती है, वह ज्यादा दिन नहीं चलती। कभी-कभी उसके उल्टे और बुरे परिणाम भी भोगने पड़ते हैं। पे्रम जो सृष्टि का आधार है, इसे सस्ते में कैसे लिया जा सकता है ?
Love is life - Enjoy it . -प्रेम (प्यार) तो जीवन का आधार है। प्रेमवश ही एक माता-पिता अपने बच्चे पर सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। बच्चा ही उनका जीवन बन जाता है। उसी में उन्हें आनन्द की प्राप्ति होती है। आनन्द (Enjoy) के लिए स्वस्थ शरीर, स्वच्छ और निर्मल मन, शांत-सगुण भरा वातावरण होना ही चाहिए। जहाँ शान्ति है, वहाँ सगुण है, सगुण है तो आनन्द (Enjoy) है। जहाँ बेचैनी हो, तृष्णा हो, वहाँ आनन्द (Enjoy) कैसे हो सकता है। जीवन के आनन्द को हम सिर्फ तरूण युगल से नही बांध सकते।
Love is danger -Face it. - प्यार (प्रेम) खतरनाक नहीं हो सकता, यदि प्रेम करने का सलीका सही हो। जब पे्रम का साधन, सम्बन्ध और सलीका सही है, तो कोई वजह नहीं है कि इसे खतरा बताया जाये। फिर भी अगर यह खतरा है, तो उसका सामना करना चाहिये। अगर एक माँ का बच्चा भूख से या माँ के स्पर्श के लिए रो रहा/रही है और हालात कुछ ऐसा है कि माँ सकुचा रही है और अपने प्रेम को दबा रही है तो उसे उस समय इस खतरे का सामना करना चाहिये।
यहाँ आपको हम थोड़ा ध्यान दिलाना चाहेंगे कि आखिर हम कैसे कहेंगे कि अमुक कार्य या कथन सही है या गलत। इसका आसान सा तरीका है - हम किसी कार्य को अन्य लोगों से छिपाते हैं, तो उसके छिपाने का क्या कारण हो सकता है ? जिस कार्य को अपनी सुरक्षा और मर्यादा को छोड़कर इसके अलावे भी छिपाना पड़े, तो उसमें कहीं-न-कहीं कुछ गलत जरूर है। हमें ऐसा कार्य, व्यवहार नहीं करना चाहिये, जिसे हमें छिपाना पड़े।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि माँ बच्चे को पर्दे में दूध पिलाती है। युगल दम्पति पर्दे में रहते हैं। राज्य और देश की सरकार बहुत से कार्यों और योजनाओं को छुपाती है। तो, यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि उनका यानी माँ और युगल दम्पति के मस्तिष्क में तथा सरकार के कार्य-प्रणाली में क्या चल रहा है। माँ अपने बच्चे को बुरे लोगों की नजर से बचाने के लिए ऐसा करती है। युगल दम्पति जीवन की मर्यादा और संस्कृति के नाते ऐसा करते हैं और सरकार सुरक्षा के लिए ऐसा करती है, जो सही है। इन सबकी मनोभावना अपने कार्य को छुपाने में नहीं है। इनमें कोई भी ऐसा कार्य नहीं, जिसे हम सभी से छुपाना पड़े। हम प्रेेमियों और उनके प्रेम-प्रसंग को भिन्न-भिन्न श्रेणियों में रख सकते हैं:-
1. अलौकिक या सर्वोत्तम श्रेणी का प्रेम
2. लौकिक या उच्च श्रेणी का प्रेम
3. मध्यम या औसत श्रेणी का प्रेम
4. निम्न श्रेणी का प्रेम
5. अतिनिम्न श्रेणी का प्रेम
नीचे हम कुछ प्रेेमियों के जीवनी की झलक लेंगे, जो जगजाहिर है। फिर, हमारे आस-पास की जो प्रेम कहानियाँ हैं उन पर ध्यान देंगे। आप खुद ही निर्णय कर लेंगे कि कौन किस श्रेणी का प्यार है।
वर्तमान में प्यार क्या है ? अभी जो आज के नवयुवक हैं, उनके आचरण में ओछापन आ गया है। ज्यादातर लोग विपरीत लिंग वाले के बीच के आकर्षण को प्यार कहते हैं। पश्चिमी सभ्यता का Love जो हिन्दी के प्यार शब्द का स्थान ले रहा है, वह हमारे नजर में उचित नहीं है। यह तो सिर्फ आकर्षण है। धन, कपड़ा, शान-शौकत, चमक-दमक के प्रति जिसे ये सवअम का नाम देते हैं, जिसका भूत उतरते देर भी नहीं लगता और दोनों को एक-दूसरे का भ्रम टूटते भी देर नहीं लगता।
एक शब्द ‘इश्क’ है, जो प्यार को व्यक्त करने के लिए होता है। यह शब्द हिन्दी का शब्द नहीं है। यह दूसरे भाषा से लिया गया है। यह मूल रूप से पारसी शब्द है। इश्क को एक प्रकार का जुनून भी कह सकते हैं। जुनून एक हद तक मानव विकास के लिए सही है, पर व्यवहार के लिए नहीं। व्यवहार में जुनून नुकसान ही पहुँचाता है।
प्रेम अभिव्यक्ति के लिए ‘मोहब्बत’ शब्द भी प्रयोग में लाया जाता है। यह उर्दू भाषा का शब्द है। इसका संधि-विच्छेद तो नहीं होता है, फिर भी हम अगर उपसर्ग के रूप में ‘मोह’ को लें, तो मोह का अर्थ लोभ भी होता है। लोभ या मोह का गुण या अवगुण का अवलोकन हम क्या करे। कहा भी गया है - लोभः पापस्य कारणम् अर्थात् लोभ पाप का कारण है। जहाँ मोह, लोभ हो, वहाँ अन्ततः प्रेम नहीं हो सकता। लोगों का लोभ, मोह स्वार्थ के अनुसार तुरन्त-तुरन्त परिवर्तित होते रहता है। जहाँ तुरन्त-तुरन्त मोह भंग होता हो, वहाँ हम उत्तम जीवन की कामना कैसे कर सकते हैं ?
प्रेम को हम बुरा नहीं कह रहे हैं। प्रेम को इस जगत से विलुप्त कर दें, तो सारा सांसारिक सम्बन्ध ही खतरे में पड़ जायेगा। ऐसे में संसार की क्या स्थिति होगी, उसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। पृथ्वी पर से गुरूत्व बल को हटा दिया जाय, तो जो स्थिति पृथ्वी की होगी, वही स्थिति जीवन में से प्रेम को हटाने पर उत्पन्न होगी। बगैर प्रेम हम सुन्दर, शांतचित्त, सम्यक् जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। प्रेम से वशीभूत होकर ही महात्मा बुद्ध ने मानव के दुःख से दुःखी हो जन-कल्याण के लिये पथ-प्रदर्शित किया। अगर इस सृष्टि से जल और वायु समाप्त हो जाय, तो धरातल पर क्या होगा ? इस जगत में क्या बचेगा ? इस धरातल पर न कुछ उपजेगा, न ही दुनिया देखने और सुनने लायक रहेगी। रहेंगे तो सिर्फ सुनसान वीरान पर्वत-पठार, जिसे देखने के लिए न हम रहेंगे और न आप। जिस प्रकार इस सृष्टि के लिए जल और वायु की आवश्यकता है, उसी प्रकार मानव सभ्यता के लिये प्रेम आवश्यक है। मानव के लिए ही क्यों, इस सृष्टि के लिये प्रेम का उतना ही महत्त्व है, जितना जल और वायु का। इस सृष्टि में प्रेम न हो, तो मानव ही नहीं, जीव-जन्तु भी अपने शिशु का पालन-पोषण छोड़ दें। यह अवस्था पेड़-पौधों में भी पायी जाती है। इससे स्पष्ट होता है की प्रेम के बिना यह सृष्टि शून्य हो जाएगी। जैसे ईश्वर कण-कण में बसते है, उसी प्रकार प्रेम भी है।
प्रेम इस लोक की ऐसी बहुमूल्य सम्पदा है, जिसके मूल्य का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। प्रेम उर्वरक के समान है, जो इस सृष्टि को उपजाऊ बनाने में मदद करता है। इस जगत को सुखी-सम्पन्न, सुन्दर-स्वच्छ, मनोरम, आनन्दमयी बनाये रखने के लिए प्रेम ही एकमात्र साधन है। यह औषधि के समान है, जिसका लेप बड़े-से-बड़ा जख्म भर देता है।
इस प्रसंग में जितना लिखा जाए, उतना ही कम है। इसका वर्णन एक मानव-मात्र के लिये असम्भव है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है - ‘महासागरों को स्याही और धरातल को कागज बना दिया जाए, तो वो भी प्रेम के लिए लिखने पर थोड़ा पड़ जाएगा'। हमारी बिसात ही क्या है ! हमारे द्वारा इसके पक्ष-विपक्ष में की गई चर्चा तो एक लोकोक्ति के समान है, ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ या उससे भी कम है।
हमने ऊपर के प्रसंग में प्रेम को पाँच भागों में बाँटने का जो प्रयास किया है, उसका सविस्तार यहाँ प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं:-
अलौकिक या सर्वाेत्तम श्रेणी का प्रेम -
जैसा कि नाम से विदित है, सभी में उत्तम प्रेम। फिर जरा सोचने वाली बात है, कोई सभी में उत्तम कैसे होता है, अर्थात् करने वाले को सुख, शान्ति, समृद्धि, कीर्ति और सादगी मिले, साथ-ही-साथ उसके इस प्रेम से समाज को भी किसी प्रकार की परेशानी उत्पन्न न हो, बल्कि समाज को उसके प्रेम पर गर्व हो। आप सोचेंगे ऐसा प्रेम कैसे हो सकता है। आप जरा सोचिये, ऐसे कई उदाहरण आपके सामने दिखाई देंगे। कुछ को तो सभी जानते हैं, कुछ को हम जानते होंगे तो आप नहीं, आप जानते होंगे तो हम नहीं।
कुछ चन्द नाम ही हैं, जिन्हें सभी जानते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जिन्हें श्री राम से ऐसा प्रेम हुआ कि इन्होंने उनकी याद में चित्रकूट के घाट पर अपना निवास बना लिया। इन्होंने रामचरित मानस की रचना की, जो आज हिन्दू धर्म की अमूल्य धरोहर है। महर्षि वाल्मीकि, जिन्होंने अपने राजा और राज्य से प्रेम किया, फिर घर-परिवार से। उसके बाद उन्होंने श्रीराम से प्रेम किया। श्रीराम को हिन्दू धर्म के अनुसार ईश्वर का रूप माना जाता है। महर्षि वाल्मीकि श्रीराम काल में ही रामायण की रचना कर अमर हो गये।
इन दोनों के जीवन की प्रेम-प्रसंग की चर्चा हम आगेकरेंगे।
सूरदास का नाम आपने सुना होगा, जिन्होंने श्रीकृष्ण से प्रेम किया और सूरसागर की रचना कर दी। उनकी कृति आज अमर है। प्रेम-प्रसंग में उनकी तुलना शायद ही किसी से की जा सकती है। इनके अलावे भी बहुत से ईश्वर प्रेमी हैं, जिनका नाम आदर से लिया जाता है।
अलौकिक प्रेम तो सभी के अंतःमन में है, पर सभी लोग अपनी तुच्छ इच्छा अलौकिक शक्ति के सम्मुख रखते हैं। हमें सोचना चाहिए कि वह शक्ति, जिसे हम मानते हैं, वह हमारे अन्दर है, कण-कण में है। वह जानता है, हमें क्या चाहिए। फिर उसके सम्मुख अपनी तुच्छ इच्छा/विचार रख अपनी माँग को छोटा क्यों करें ? हम सिर्फ अपने नित्य कर्म को उसके (अलौकिक शक्ति के ) सम्मुख समर्पित कर दें, तो वह हमें खुद-ब-खुद मार्गदर्शित करते हैं। यहाँ हमें ध्यान देना होगा कि यह इहलोक नश्वर है। हम इसे कर्मभूमि कहते हैं। आप जैसा कर्म करेंगे, उसी के हिसाब से आपको फल प्राप्त होगा। इसमें अलौकिक शक्ति बहुत कम ही परिवर्तन करता है, पर एक बार वह अवश्य संकेत करता है। इस चर्चा को हम यहीं छोड़ते हैं। अलौकिक शक्ति और ईश्वर पर हम अलग से चर्चा करेंगे।
* लौकिक या उच्च श्रेणी का प्रेम -
इस स्तर का प्रेम सांसारिक जीवन के लिए आदर्श प्रस्तुत करता है, जिससे हमारे क्रियाकलाप नियंत्रित होते हैं। यह कोई असम्भव कार्य भी नहीं है। असम्भव होता, तो इसे कोई प्रस्तुत नहीं कर पाता। आप सभी ने श्रवन कुमार का नाम सुना होगा, जो अपने माता-पिता की सेवा कर अपने नाम को अमर कर गया, जिसके नाम की लोग उपमा देते हैं। रामायण के पात्र श्रीरामचन्द्र को देखें, जो पिता के प्रेम और आदर के कारण ही वनवास गये।
जो लोग लिंग, जाति, सम्प्रदाय, देश, राज्य की सीमा से परे होकर मानव या जीव-सेवा में तत्पर हैं, वे भी उच्च श्रेणी के प्रेमी हैं। उनका जीवन दूसरे के लिये आदर्श है, जैसे - मदर टेरेसा।
* मध्यम या औसत श्रेणी का प्रेम -
यह प्रेम ऐसा प्रेम है, जो इहलोग मे आये लोगों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है, जो संसार और मानव सभ्यता के सही संचालन के लिये आवश्यक है। जिस प्रकार मानव सभ्यता के संचालन में मध्यमवर्गीय परिवार का महत्त्व है, उसी प्रकार जैविक क्रिया और मानव सभ्यता के लिये मध्यम श्रेणी का प्रेम आवश्यक है। जो लोग अपने प्रति, परिवार, समाज, राज्य, देश, संसार एवं इस सृष्टी के प्रति अपना कत्र्तव्य समझते हैं और निभाते हैं, यह उनका उसके प्रति प्रेम ही है, जो उन्हें उनके कत्र्तव्य-निर्वाह में अपना सहयोग देता है। हम मोहनदास करमचंद गाँधी को भी ले सकते हैं, उनका प्रेम ही तो था, जिसके रास्ते पर चलते हुए आज वे अमर हैं।
सिक्ख सम्प्रदाय के धर्म गुरू - गुरू तेग बहादुर, गुरू गोबिन्द सिंह - उनका अपने धर्म के प्रति प्रेम ही तो था, जिसने उन्हें अपने कत्र्तव्य और बलिदान के लिये प्रेरित किया।
सरदार भगत सिंह और उनके साथियों के दिल में देश और देशवासियों के प्रति प्रेम ने ही तो उन्हें अपने बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। जितने भी हमारे स्वतंत्रता सेनानियों या किसी देश की स्वतंत्रता के लिये बलिदान देने वाले लोगों ने बलिदान दिया या कष्ट सहा, वह किसके कारण ? जवाब स्पष्ट है - अपने वतन-जन्मभूमि से प्रेम के कारण।
बहुत से धर्म-सुधारकों और समाज-सुधारकों, जैसे - राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, विनोबा भावे इत्यादि ने अपना योगदान इस समाज को संवारने के लिए दिया है। इनका उत्प्रेरक तत्त्व प्रेम था।
* निम्न श्रेणी का प्रेम -
ऐसा प्रेम, जिसमें प्रेम करने वाले को सिर्फ अपनी चिन्ता होती है। उन्हें न तो समाज की चिन्ता होती है और न सामने वाले की। ये अपने मुँह मियाँ मिट्ठू होते हैं। ऐसे लोग प्रेम तो करते हैं, पर स्वार्थवश। उसका परिणाम भी उन्हें उसी प्रकार मिलता है। जैसे कोई पिता अपने पुत्र को कर्त्तव्यवश नहीं, बल्कि यह सोचकर प्यार करता है कि यह बड़ा होकर मेरी देखभाल करेगा, तो उसका प्रभाव उस बच्चे पर पड़ता है। वह भी बड़ा होकर सिर्फ अपने लिए सोचता है। इस प्रकार उसका परिणाम भी उन्हें मिल जाता है और वे दूसरे को कोसते रहते हैं। इस श्रेणी के प्रेमी का प्रेम शाश्वत भी नहीं होता। ये अपने कर्म से ही दुःखी होते रहते हैं। एक उक्ति है -
‘जस करनी तस भोगही दाता, नरक जात अब क्यूं पछताता।’
* अतिनिम्न श्रेणी का प्रेम -
इस श्रेणी के प्रेमी समाज और व्यवस्था में अराजकता फैलाते है। इनका न प्रेम का तरीका सही होता और न प्रेम। ये मानवता के लिए अभिशाप हैं। इनके प्रेम को किसी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता। न सामाजिक तौर पर और न कानूनी तौर पर, यहाँ तक कि व्यक्तिगत रूप से और मानवता के नाते भी इन्हें सही नहीं ठहराया जा सकता। इस प्रकार के प्रेमी का बहुत ही विकृत रूप समाज को दूषित कर रहे हैं, जिसे मैं यहाँ लिखना नहीं चाहूँगा। यह सामाजिक व्यवस्था के लिये कई चुनौतीपूर्ण मुश्किलें खड़ा कर रहा है।
कभी-कभी कोई लड़का किसी लड़की के आकर्षण में पड़ता है और लड़की से प्रेम का ढोंग करता है। लड़की जब मान जाती है, तो वह उसे बीच रास्ते में छोड़कर चलते बनता है। कभी-कभी इसके भयावह दृश्य भी देखने को मिलते हैं। जब लड़की नहीं मानती है, तो वह उसे परेशान करता है, यहाँ तक कि चेहरे पर तेजाब फेंकने और जान लेने की घटनायें भी सामने आती हैं। इसे वह प्रेम कहता है। आज के युवा वर्ग इस प्रकार के अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिस पर विशेष चिन्तन की आवश्यकता है। इसमें हम किसी एक को दोषी कैसे ठहरायें। जिसने किया, वह तो मूल रूप से दोषी है, पर जिसके साथ यह अंजाम होता है, वह और यह समाज एवं उसका घर-परिवार भी कम दोषी नहीं है। हम सबका दायित्व बन जाता है कि इस प्रकार की मनोवृत्ति को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाय और लोगों में जागृति उत्पन्न की जाय।
अब कोई ये पूछेगा कि सही प्रेम क्या है, तो सही-गलत की पहचान पहले बता दी गयी है। प्रेम को कई श्रेणियों में विभक्त कर आज के युवा वर्ग और हमारे प्रेम का स्तर भी निश्चित करने की कोशिश की गई है।
यहाँ हम कुछ चरित्रों, जिन्होंने प्रेम किया, उन्होंने क्या खोया क्या पाया, के प्रेम का इस समाज पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका संक्षिप्त वर्णन करेंगे -
पहले व्यक्ति, हम रत्नाकर को लेंगे। रत्नाकर, जो आगे चलकर महर्षि बाल्मीकि बने और रामायण की रचना की। इनकी जीवनी का संक्षिप्त वर्णन करेंगे। ऐसा माना जाता है कि ये सर्वप्रथम अपने राज्य के राजा की सेना मे थे। वे राज्य और राजा, दोनों के प्रति एक सैनिक का दायित्व भली-भाँति निभा रहे थे। युद्ध में भी वे ऐसा आचरण नहीं करते थे, जिससे बाद में उन्हें और दूसरे को प्रायश्चित्त करना पड़े। इसी कालक्रम में उनके राज्य के राजा ने दूसरे राज्य के राजा पर चढ़ाई कर दिया। ये लोग युद्ध जीत गये। इनकी सेना के कुछ सैनिक वहाँ की धन-सम्पदा को लूटने लगे और वहाँ की औरतों से गलत व्यवहार करते हुए व्याभिचार करने की कोशिश करने लगे, जिस पर रत्नाकार ने मना किया तो वो उन्हीं से लड़ पड़े। इस पर रत्नाकर ने उनका वध कर दिया, जिसके कारण उनके राजा ने रत्नाकर को ही राजद्रोही करार दिया। वह अपने राज्य को छोड़कर बिरह जंगल में चले गये। दस्यु का जीवन व्यतीत करते हुए अपने घर-परिवार का पोषण करने लगे। उसी समयांतराल मे एक घटना घटित हुई, जिसने उनके जीवन का रूख ही मोड़ दिया। डाकू रत्नाकर महर्षि बाल्मीकि बन गये। इनके नाम के पीछे बहुत लोगों का बहुत सारा तर्क है। इनका नाम बाल्मीकि क्यों पड़ा ? उनके नाम के तर्क-वितर्क हम यहीं छोड़ते हैं और उनके जीवन के घटनाक्रम को आगे बढ़ाते हैं।
एक समय ऐसा हुआ कि जहाँ रत्नाकर रहते थे, उस रास्ते को कोई राही कई दिनों से इस्तेमाल नहीं कर रहा था। उनके साथियों के साथ उनके घर-परिवार का पोषण भी मुश्किल हो गया। इस बीच एक दिन एक मुनि ने उस रास्ते का इस्तेमाल किया। ऐसा माना जाता है कि वह मुनि नारद मुनि थे। उनकी मुलाकात डाकू रत्नाकर से हुई। रत्नाकर ने उन्हें रोका, मुनि ने कहा यह तुम किसलिए कर रहे हो और किसके लिए कर रहे हो, तो रत्नाकर का जबाब था - अपनों के लिए, माता-पिता और बच्चों के लिये। मुनि ने कहा - इसके पहले तो तुम राजा के लिये काम करते थे। खैर, तुम जो ये पाप की कमाई करते हो, इसमें कौन-कौन भागी हैं, जरा बताओ। रत्नाकर बोले - सभी। मुनि ने कहा - जरा पूछकर आओ। रत्नाकर बोले - तुम्हारा क्या भरोसा, इस बीच तुम भाग न जाओ। मुनि ने कहा - हमें वृक्ष के तने से बांध दो। रत्नाकर ने मुनि को वृक्ष के तने से बाँधकर अपने घर की ओर चल दिया। वहाँ जाकर उसने माँ-पिताजी से पूछा - मैं जो गलत तरीके से उपार्जन करता हूँ, उसके पाप में आप दोनों भागी हैं न। माता-पिता ने जबाब दिया - पुत्र ! हम तुम्हें बहुत प्यार करते हैं, पर हम उसमें कैसे भागी हो सकते हैं। हमने तुम्हें जन्म दिया, तुम्हारा पालन-पोषण किया, अब हम वृद्ध हो गये हैं, हमारा पोषण करना तुम्हारा कत्र्तव्य है। उसके बाद वे अपनी पत्नी और बच्चे के पास गये। उसी प्रश्न को दोहराया - इस उपार्जन के तरीके से उत्पन्न पाप में आप सभी भागी हैं न। बच्चों ने जबाब दिया - ये कैसे हो सकता है ? आपने हमें जन्म दिया है, हमारा पालण-पोषण करना आपका फर्ज है। पुनः वह अपने पत्नी की ओर मुखातिब हुए, तो पत्नी ने कहा - आप हमारे स्वामी हैं, मैं आपकी अद्र्धांगिनी हूँ, आपके सुख-दुःख में मैं बराबर की भागी हूँ। पर जो ये पाप-पुण्य की कमाई है, इसे मैं कैसे बाँट सकती हूँ ? इसे जो कमायेगा वही खायेगा। इतना कहना था कि दस्यु रत्नाकर अंदर से टूट गया। जिसके नाम से लोग कांपते थे, वह किसी तरह चलकर जंगल में मुनि के पास पहुँचा। वह मुनि के चरणों में गिर पड़ा, प्रायश्चित के लिये कहा। मुनि ने उसे राम-नाम जाप करने के लिये बोला। पर रत्नाकर के मुख से अपने कर्मवश राम नाम भी नहीं निकला, तो मुनि ने ‘राम’ को ‘मरा’ शब्द बनाकर उसका उच्चारण करने को कहा। रत्नाकर के अपने कर्मानुसार मुख से राम के स्थान पर मरा निकला। वह उसी का जाप करने लगे। इस प्रकार ‘मरा’ का जाप करने से ‘राम’ से आपरूपी उन्हें सच्चा प्यार हो गया। आत्मशुद्धि और तप से उन्हें आगे चलकर महर्षि पद प्राप्त हुआ।
यहाँ देखने वाली बात है कि रत्नाकर को अपने राज्य और राजा से सच्चा प्यार था, तभी जो राजा के उस व्यवहार पर भी उसने राजा एवं राज्य के प्रति कोई षड़यंत्र नहीं किया। उसके राज्य और राजा की कोई निन्दा न करे, यह सोचकर उसने सैनिकों का वध किया। दस्यु जीवन के दौरान भी उसने अपने घर-परिवार से प्रेम किया। उसी का नतीजा हुआ कि उनके उत्तर से उसके दिल को आघात हुआ और वह राम नाम को प्राप्त हुआ, जिसके फलस्वरूप उसे महर्षि पद प्राप्त हुआ। लोगों के लिये दस्यु रत्नाकर अब महर्षि बाल्मीकी के रूप में पूजनीय हो गये।
दूसरा चरित्र हम रामबोला को लेते है, जो आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास हुए। रामबोला का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में ही उनके माता और पिता स्वर्ग सिधार गये। उनका लालन-पालन उनकी बुआ (फुआ) ने बड़े कष्ट सहते हुए बड़े प्यार से किया। वे तरूण हुए, तो उनका ब्याह एक अति सुन्दर और सुशील कन्या से करा दी गई, जिसे पाकर वे बहुत खुश हुए। उसकी सुन्दरता से उन्हें इतना प्यार हुआ कि उसके बिना उन्हें रहा नहीं जाता था। वे अपनी पत्नी से एक पल के लिए भी अलग नहीं रहना चाहते थे। उनकी गृहस्थी हँसी-खुशी से चल रही थी। एक बार की बात है रामबोला अपने घर पर नहीं थे, किसी कार्यवश कहीं बाहर गये हुए थे। इसी बीच उनकी पत्नी के मायके से बुलावा आ गया और उन्हें रामबोला से मिले बगैर जाना पड़ा। रामबोला जब घर पर आये, तो उन्हें उनकी प्यारी पत्नी नही मिली, उन्हें स्थिति-परिस्थिति की जानकारी मिली। रात हुई, वे चारपाई पर ऊपर मुख कर के लेटे हुए यादो में खोये हुए थे। भादो की काली रात थी। झमाझम बारिश हो रही थी। बाढ़ आई हुई थी। नदी का पानी उफान पर था। रामबोला अनायास ही उठते हैं और पत्नी से मिलने चल देते हैं। उन्हें स्थिति-परिस्थिति का कोई विचार नहीं आता। उस भयावह काली रात का उनके मन में ख्याल भी नहीं आता है। वह घर से निकल पड़ते हैं। रास्ते मे उन्हें एक नदी मिलती है, तट पर एक शव पड़ा हुआ था, जिसे वह नाव समझते हैं और यह सोचते हैं कि उसे उनकी पत्नी ने उनके लिये ही छोड़ रखी है। ऐसा सोचते हुए उसके सहारे ही वह नदी को पार कर जाते हैं और आगे रास्ता तय कर घर के दरवाजे पर पहुँचते हैं। घर अंधकार से डूबा हुआ था, बारिश हो रही थी, बिजली चमक रही थी, बादल गरज रहा था। वह आवाज देते हैं, पर उनकी आवाज को कोई नहीं सुन पाता है। फिर वह चारों तरफ से घर का मुआयना करते हैं। उन्हें एक रस्सी दिखती है। वह समझते हैं कि उनकी पत्नी इसी में सो रही है और उसने उन्हीं के लिए यह रस्सी लटका रखी हैै। जिसे वह रस्सी समझ रहे थे, वास्तव में वह एक काला सर्प था, जिसके सहारे वह उस घर के कमरे में प्रवेश कर गये। संयोग ऐसा कि उनकी पत्नी उसी कमरे मे सो रही होती है। वह आवाज देते हैं। वह चैंक कर नींद से जागती है और जानना चाहती है कि वह कमरे में कैसे आये ? वह उस सर्प को रस्सी बताकर दिखाते है। उनकी पत्नी देखती है, पर उसे तो सर्प दिखाई देता है। वह उनका स्वागत करने के बजाय उन्हें कोसती है। कहती है - आप हमसे इतना प्रेम करते हैं, हमारी सुन्दरता पर इतने आकर्षित हैं ! उसके मुख से आगे निकलता है - अगर आपको इतना प्रेम और आकर्षण प्रभु, ईश्वर, राम के नाम से होता तो आप अमर हो जाते। उसकी बात को सुनकर रामबोला अन्दर से बहुत दुःखी होते हैं। वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे, उसी को सबकुछ मानते था। वहाँ से वह उल्टे पांव वापस हो जाते हैं। पत्नी को कुछ नहीं बोलते। इधर-उधर भटकते-फिरते हैं। फिर उनके जीवन में ऐसा मोड़ आता है कि रामबोला ने अपना सारा ध्यान राम-नाम के ऊपर लगा दिया। इस प्रकार रामबोला आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए और गोस्वामी तुलसीदास के रूप में रामचरित मानस की रचना कर अमर हो गये।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि रामबोला ने अपनी पत्नी से और गोस्वामी तुलसीदास जी के रूप में श्रीराम से निश्छल और सच्चे मन से प्यार किया, तभी तो आज उनका नाम अमर हो गया। तीसरा और चैथा चरित्र हम लैला-मजनूं और हीर-रांझा का लेते हैं। दोनों प्रेमी का प्रेम सच्चा था, पर दोनों न मिल सके।
दोनों का अन्त बड़े ही दुःखद तरीके से हुआ। हीर-रांझा का प्रेम भी अमर है। इन्हें मनुुष्य द्वारा बनाये गये सरहद ने नहीं मिलने दिया। इसमें किसे दोष दें। हमारे धर्म-ग्रन्थो में कई प्रेम विवाह का वर्णन है, पर उस पर कोई ध्यान नहीं देता। न हम न ही आप। हमें सही मायने में अपने शास्त्रों की सही जानकारी भी नहीं है। जो जानते भी हैं, वह उसे सामने लाना नहीं चाहते, उल्टे शास्त्रों और धर्म की दुहाई देते हैं।
इन दोनों प्रेमी जोड़ी को क्या प्राप्त हुआ ? न उन्हें कुछ मिला और न समाज को। दोनों जिस मंजिल को प्राप्त करना चाहते थे, उन्हें वह मंजिल नहीं मिला।
वे प्रेमी, जो प्यार भरे शादी-शुदा सुखी जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, वे इनके प्यार की तुलना अपने प्यार से क्यों करते हैं ?
ये है सच्चे प्यार का कड़वा सच। लोग बोलते हैं, प्यार दिमाग से नहीं, दिल से होता है। हम कहते हैं - यह अनुभव की बात है। दिल एक बार अवश्य हमें सही मार्गदर्शन देता है। जब दिल बोलता है, तो उसे हमें दिमाग से तथा सामाजिक व्यवस्था और शास्त्रों के समकक्ष रखकर सोचना चाहिए और सही-सही निर्णय लेना चाहिए।
अब हम यहाँ कुछ और सच्ची कहानियों का बयान करेंगे, जो हमने देखा है। कहानी का नाम और स्थान का नाम लिखने से बचना चाहूँगा, क्योंकि उन्हें, जिनका ये प्रेम-प्रलाप है, आपत्ति हो सकती है।
हमारे ही गाँव का एक लड़का है, जो सुन्दर और देखने में आकर्षक है। वह ज्यादातर अपने मामा के गाँव आते-जाते रहता था। उसी गाँव में, जहाँ उसका ममहर था, उसे एक लड़की से मुलाकात होती है। लडकी को भी हमने देखा है वह भी सुन्दर और आकर्षक थी। लड़की का ममहर भी उसी गाँव मे था। वह वहीं रहकर पढ़ती थी। दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा। दोनों ने शादी करने के वायदे किये। दोनों के मामाओं को ये बात मालूम हुई। दोनों को समझाया गया और धमकाया भी गया। दोनों ने मरने की धमकी दी और अपने साथी-सहयोगियों की मदद से अपने मामाओं को मना लिया। दोनों का प्यार शादी में बदल गया। घर वालों ने भी उन्हें सहर्ष स्वीकार कर लिया। जब ये सारी घटनायें, प्यार से शादी तक हुई, उस समय मैं दशवीं वर्ग में पढ़ रहा था। अब उनके दो बच्चे हैं।
कुछ वर्ष, लगभग छः या सात वर्ष के पश्चात् हमने सुना कि दोनों अलग-अलग रह रहे हैं। न्यायालय से तलाक लेकर नहीं, बल्कि झगड़ा करके। गनीमत यही है कि उनकी शादी का कोई विरोधी नहीं है, सभी सगे-सम्बन्धी उन्हें मिलाना चाहते हैं। मेरे अन्तर्मन में उनकी सही कहानी जानने की उत्सुकता हुई। आखिर ये दोनों अलग क्यू रह रहे हैं ? ऐसी क्या बात हो गई, जो दोनों अलग रहने पर मजबूर हैं। जहाँ इनका ममहर है, वहाँ हमारी भी रिश्तेदारी है।
इन दोनों के जीवन कहानी की खोज-खबर पर मालूम हुआ कि पहले ये दोनों एक-दूसरे के यौवन की खुशबू से आकर्षित हुए। दोनों बड़े ही आकर्षक पोषाक पहनते थे, अपने आप को संवारने में कोई कसर नहीं रखते थे। आधुनिकता इन पर हावी थी, वो भी पश्चिमी सभ्यता की। इनका प्रेम आन्तरिक न होकर बाह्य आकर्षण से बंध गया था।
इसके बाद इन दोनों ने अपनी गलत आर्थिक स्थिति का ब्यौरा दिया, जो इनके अलगाव का मुख्य कारण बना। इन दोनों ने अपने रिश्तेदारों को इस प्रकार एक-दूसरे के सम्मुख रखा कि अगला उनकी सही स्थिति न जान सके। दोनों एक-दूसरे को उनके रिश्तेदारों के बराबर ही तौलने लगे।
लड़का, जो एक गैर सरकारी सिक्यूरिटी कम्पनी में सेवा देता था, यह कम्पनी विश्व स्तर की बतायी गयी थी। दोनों की शादी हो गयी, तो लड़का बहुत दिन तक अपनी सेवा से गैर-हाजिर रहा, जिसके कारण कम्पनी ने उसकी सेवा समाप्त कर दी। दोनों को अब आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा।
शादी के सात वर्ष तो इनके आनन्द में गुजर गये। लड़की कभी ससुराल में रहती तो कभी मायके या मामा के पास। यहाँ तक कि इन दोनों ने जिन-जिन रिश्तेदारों से एक-दूसरे का परिचय कराया था, वहाँ भी ये कुछ दिन रहे। इसी बीच इनके दो बच्चे हो गये। अब इन्हें दूसरे के पास रहने में परेशानी होने लगी। ये एक-दूसरे को कितने दिनों तक झूठ के साये में रख सकते थे। सच्चाई धीरे-धीरे उनके सामने आ गई। यहीं से इनके दाम्पत्य जीवन में खटास आने लगी और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया। यहाँ तक कि ये एक-दूसरे के चरित्र पर भी ऊँगली उठाने लगे। आज परिणाम यह है कि दोनों एक-दूसरे को दोष देते हुए अलग रह रहे हैं।
इनके प्रेम-प्रलाप की कहानी मैं वर्ष 2012 में प्रस्तुत कर रहा हुँ। जो लोग इन्हें मिलाने का प्रयास कर रहे हैं, उनका प्रयास सार्थक हो, ये दोनों मिल जायें। इनके दो बच्चे हैं, उन्हें कोई परेशानी न हो और बच्चों का भविष्य संवर जाय। दोनों सुखी दाम्पत्य जीवन का भोग करे, ईश्वर से मैं यही प्रार्थना करता हूँ।
इनके प्रेम-प्रलाप में एक बात ध्यान देने योग्य है। इन्होंने प्रेम किया, दिशा भी सही दी, पर झूठ और यौन आकर्षण, जो बाद में इनके गले की हड्डी बन गई। इनका प्रेम, प्रेम न होकर एक-दूसरे के आकर्षण से बंध कर रह गया।
हम सभी जानते हैं कि किसी का भी ऊपरी आकर्षण ज्यादा समय तक बरकरार नहीं रहता है। हर आकर्षक दिखने वाली वस्तु स्थायी नहीं हो सकती। जब तक एक-दूसरे से प्रेम-भावना से न बंधे और एक-दूसरे के लिये त्याग और मन से इज्जत न हो, एक-दूसरे के दुःख-दर्द को अपना न समझ,े तब तक प्रेम स्थायी नहीं हो सकता।
इस प्रकार की अन्य घटनायें भी हमारे समक्ष हैं। कितनों का वर्णन करे।
तत्काल की घटनाओं की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा, जो आये दिन समाचार-पत्रों में पढ़ने एवं टेलीविजन में देखने को मिलता है। ये घटनायें कोई बाहर की नहीं है। ऐसा भी नहीं कि हम इससे अन्जान हैं। ये सभी हमारे आस-पास की हैं। ये हमारी समाज की ही उपज हैं, जैसे - दो युगल प्रेमी साथ जा रहे थे और एक ने दूसरे को चलती ट्रेन से धक्का दे दिया। किसी ने किसी को पैसे के लिए देह-व्यापार में लगा दिया। प्रेम किया और फिर अपने साथियों के साथ मिलकर नीचता की हद पार कर गया। किसी ने प्रेम का नाटक कर प्रेमी को भौतिक साध् ान जुटाने का माध्यम बना लिया। किसी ने किसी की बात न मानी, तो उसके चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। प्रेमी ने अपने प्रेमिका का अंग-भंग कर दिया। यहाँ तक कि प्रेमी कभी-कभी षड़यंत्र कर अपने सगे-सम्बन्धियों की हत्या तक कर देते हैं या करवा देते हैं। हम आप से पूछते हैं - क्या यही प्यार-प्रेम- इश्क-मोहव्बत है ? हम तो इसे प्रेम नहीं मानते, अगर आप मानते हैं तो अच्छी बात है, हम आपको सुझाव देने वाले कौन होते हैं ?
अगर ऐसा प्यार है और इसे प्यार कहते हैं, तो मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँगा कि वो मिटा दे अपने द्वारा बनाये हुए इस जीवन-चक्र को। मिटा दे इस प्रेम को, जो जीवन जीने का आधार है। ये सारे उदाहरण हमारे समाज के मानसिक विकृत लोगों की पहचान है, जो मानव-सभ्यता को दूषित कर रहे हैं। यह हमारी सभ्यता और संस्कृति के ह्रास का परिचायक है, जो प्रेम को नहीं समझ पा रहा है। हमें आज अपने पीढ़ी के चरित्र-निर्माण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उनके नैतिक-स्तर को ऊँचा करने में अपना योगदान देना चाहिए।
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