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शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

* धर्म *

                                             

                  धर्म (Dharm )क्या है ? धर्म शब्द के उच्चारण से लोग हिन्दू ,मुसलमान ,सिक्ख ,ईसाई ,पारसी, यहुदी ,जैन और बौद्धिष्ट होने का अर्थ लगाते हैं। 
                 
                    अंग्रेजी शब्द 'RELIGION ' (रिलिजन) को धर्म शब्द के लिए इस्तेमाल किया जाता है ,जो मेरे विचार से सही नहीं है। 'RELIGION ' का उचित हिंदी रूपान्तर सम्प्रदाय होता है। सम्प्रदाय का अभिप्राय विभिन्न धर्मावलम्बी से लिया जाता है। 
               
                    आजकल के नेतागण ज्यादातर ' धर्म-निरपेक्ष ' शब्द का उच्चारण करते हैं। कोई ' धर्म-निरपेक्ष ' कैसे हो सकता है ? हाँ ! 'सम्प्रदाय-निरपेक्ष' हो सकता है। 
               
                      भारतीय संस्कृति या हम सनातन धर्म-शास्त्रों को देखें , तो मूर्ति पूजा ,यज्ञ , हवन ,उपवास या कर्मकांड ही धर्म नहीं है , धर्म की सीमा अपार है , जिसका पालन करने से ब्यक्ति आकाश की तरह बड़ा , विशाल और जिज्ञासा का कारन बन जाता है , साथ ही , पृथ्वी की तरह सहनशील , गम्भीर और शीलवान बनता है। 
               
                      धर्म से हमारे अधिकार का नहीं , बल्कि कर्त्तव्य  का बोध होता है। जो अपने  कर्त्तव्य का सही और उचित पालन करता है , उसे स्वयं अधिकार प्राप्त हो जाता है। 
             
                       अपने कर्त्तव्य का सही पालन नहीं करने वाला धर्म-विमुख है। पिता का पुत्र के प्रति ,पुत्र का पिता के प्रति उचित  कर्त्तव्य ही उसका धर्म है।  इस धारणा को आगे बढ़ाते  हुए हम कहना चाहेंगे कि हर व्यक्ति का अपना कार्य है ,हर व्यक्ति का अपना-अपना कर्त्तव्य है फिर सभी का एक धर्म कैसे हो सकता है ?
             
                     धर्म को हम एक निश्चित सीमा में नहीं बांध सकते , जितने लोग , उतने कार्य , उतने धर्म। धर्म तो उमभत गांछी यानि ऐसा दरख्त (पेड़), जो आकाश की तरह विशाल है। जैसे आकाश धरातल को छूता हुआ  दिखता है ,पर छू नहीं पाता , फिर भी दोनों अपने आप में विशेष हैं। आकाश और धरातल , दोनों जीवन का आधार हैं ,जिसे हम झुठला नहीं सकते। बिना आकाश और धरातल का हम सृष्टी की कल्पना नहीं कर सकते , यानी सोच भी नहीं सकते। उसी प्रकार बिना धर्म के हम जीवन में एक कदम भी नहीं चल सकते। जहाँ धर्म नहीं ,वहाँ मानवता नहीं है। धर्म का विकाश होगा , तो मानवता का भी विकाश होगा। जहाँ कर्म है वहाँ धर्म है।  गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही लिखा है -

                                       कर्म प्रधान विश्व करी रखा 

                                    जो जस करनी तासु फल चखा। 

                  हम कर्म के बिना विश्व की कल्पना नहीं कर सकते ,उसी प्रकार हम धर्म के बिना भी नहीं रह सकते। 
               
               फिर हमारे नेता लोग किस भाव से धर्म -निरपेक्ष  होने का दावा करते हैं। क्या वे अपना कर्त्तव्य सही से निभा रहे हैं ? अगर ऐसा नहीं है , तो वे किस भाव से  धर्म-निरपेक्ष  होने का दवा करते हैं। जब मानव अपना धर्म सही से पालन करे , तो सभी का जीवन सरल एवं सुगम हो जायेगा। 
              कर्म है तो धर्म है ,  धर्म है तो शान्ति है , शान्ति है वहाँ प्रेम है , विकाश है ,यही जीवन का आधार है।

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