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बुधवार, 23 दिसंबर 2015

* एह में *

                        विरेन्द्र बाबू अपने समय का डॉक्टरेट हैं। आज उनका उम्र ६०-६५ वर्ष के आस-पास होगा। वह जब भी अपने पास वाले या किसी से बात करते हैं तो उनका आवाज दूसरा व्यक्ति बिना प्रयत्न के शायद ही सुन सके। इस प्रकार बात करने का उनका अपना एक अलग ही पहचान है, धीरे बोलने या काना-फूसी करने में उनका नाम उपमा के रूप में इस्तेमाल होने लगी है। अब जब कोई धीरे बात करता है या दूसरे का बात करता है और अगला उसका आवाज नहीं सुन पाता तो कहता है, विरेन्द्र हुए हो। ए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषा शुद्ध लिखने-बोलने के साथ एक अच्छे चित्रकार भी हैं। मैं इन्हें दोनों हाथों से लिखते हुए भी देखा हूँ। थोड़ा बहुत गा बजा भी लेते हैं। व्यक्तित्व भी अच्छी है। गेहुँआ गोरा रंग लम्बाई लगभग ६' (फुट) के आस-पास दोहरा बदन। कुल मिलाकर प्राकृति ने उन्हें लगभग एक परिपूर्ण इंसान बनाया, पर आज समाज में इनका कुछ अलग ही पहचान बन चूका है। 

                                बुजुर्ग लोग बताते हैं की वह जब पढाई कर रहा था तो इससे सिर्फ घर वालों को ही नहीं पुरे समाज को आशा थी की वह कुछ अच्छा करेगा। इन्हे उस समय अच्छा खिलाडी के तौर पर भी जाना जाता था। समय के साथ सारी आशा धूमिल होता गया, इनका नकारात्मक चेहरा सामने आता गया।

                         जब ए डॉक्टरेट की पढ़ाई कर रहे थे, उसी समय उस महाविधालय के एक कनिष्ठ अध्यणार्थी से इनका मेल-मिलाप बढ़ा, यह मिलाप आगे चल कर प्यार में बदल गया, फिर दोनों ने शादी की ईच्छा व्यक्त की। ऐसे इनके घर वालों ने ज्यादा विरोध नहीं किए। इनके पिता श्री ने कहा "पहले तुम अपना कैरीयर (भविष्य) बना लो फिर शादी जिस से मन करे कर लेना।"  वधु पक्ष यानि लड़की वाले इनके पिता श्री से कुछ ज्यादा ही विरोध किया। उन्होंने अपनी लड़की को समझाते हुए कहा तुम जिस से कहोगी जैसा घर-वर कहोगी, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर जो सरकारी ओहदा प्राप्त हो या जमींदार घराने का हो वैसा घर-वर ढूंढूगा पर इस वेरोजगार में क्या रखा है। लड़की बोली मैं शादी करूंगी तो इन्हीं से नहीं तो मरना पसन्द करुँगी। इसी बिच विरेंदर बाबू वही एक गौर सरकारी महाविधालय में प्रोफेसर के तौर पर कार्य करने लगे। इनका शादी लड़की के जिद के कारण सम्पन्न हो गई। ए जहाँ पढ़ाते थे और रहते थे वहाँ, या यू कहें उस क्षेत्र में उनके सालों और ससुर का बोल-बाला था। वे जमींदार घराने के थे, जिस से उस क्षेत्र में उन लोगों का मलिन व्यक्तियों में गिनती होती थी। शादी के बाद उनके सालों को उनका वहाँ पढ़ना अच्छा नहीं लगा। उनका मानना था 'मेरा जीजा (बहनोई) एक गैर सरकारी महाविधालय में अनुबंध पर पढ़ाए ए हमारे शान के लिए अच्छा नहीं है।' उन्होंने उसी अंदाज में इसकी शिकायत अपने बहनोई (जीजा जी) से की और विरेन्द्र बाबू उनके कहने पर प्रोफेसरी छोड़ गाँव आ गए। आज वहीं महाविधालय सरकार की मान्यता प्राप्त कर चुकी है। साथ में उनके साथ वाले साथी भी उसी में स्थाई हो चुके हैं। आज अपनी स्थिति के लिए विरेन्द्र बाबू अपने सालों को कोसते हैं साथ में उन्हें भला-बुरा कहने से भी नहीं चूकते।

                         गाँव आ कर ए अपने क्षेत्र में सरकारी कोटा प्रणाली की दुकान चलाने लगे। कुछ समय बाद उनका यह धंधा भी बंद हो गया इसके बाद उन्होंने गाँव में एक अपना स्वयं का विधालय स्थापित किया। उस समय उस क्षेत्र में वह विधालय पहला गैरसरकारी विधालय था। विधालय में सरकारी विधालयों के अपेक्षा अच्छा पठन-पाठन था। अभिभावकों के विश्वास एवं सहयोग से उनकी विधालय अच्छी चल परी। उस से उन्हें अच्छी आय भी होने लगी तभी तो वे उस समय अपने नाम से भूमि खरीद कर वहाँ विधालय को स्थाननत्रित किया। उस विधालय ने उन्हें अपने क्षेत्र में सर जी का नाम प्रदान किया, साथ ही अब हर कोई उन्हें सर जी या मास्टर साहब के उप नाम से ही सम्बोधित करता है। सभी लोग उनके नाम को आदर से व्यक्त करते हैं। एक बार उनके विधालय के लिए अनुदान आया तथा उसे अर्द्धसरकारी शिक्षण संस्थान का मान्यता मिलने का चर्चा चल रहा था, जिसे उन्होंने माना कर दिया या यू कहें यह किसी कारण नहीं हो सका।

                             कुछ समय के बाद बाहर से एक व्यक्ति वहाँ विडियो हॉल चलाने आया। उसे वहाँ एक छोटा हॉल या यू कहे की एक बड़ा सा कमरा प्राप्त हुआँ, जिस में वह अपना भि०सी०आर० चलता। उसकी खूब कमाई होती, दर्शक इतना अधिक आते की उन्हें बैठाने के लिए उसके पास स्थान नहीं होता। जिसके कारण लोग हल्ला-गुल्ला भी करते  भि०सी०आर० वाले ने अब बड़ा हॉल ढूँढना शुरू किया। वह विरेन्द्र बाबू से सम्पर्क किया।  वह विरेन्द्र बाबू को, उनके विधालय में रात्रि के समय वीडियो हॉल चलाने के लिए राजी कर लिया। इस से लोगों में एक गलत सन्देश गया। लोगो में काना-फूसी होने लगी। लोगो का मानना था की विधालय एवं वीडियो हॉल एक ही भवन या एक ही प्रांगण में चलना उचित नहीं है। यह प्रतिक्रिया उन्हें मालूम भी हो गया पर वे इस ओर ध्यान नहीं दिए। भि०सी०आर० वाले ने उन्हें किराया न दे कर लाभ में उनका हिस्सा तय कर दिया, जो उन्हें उस समय विधालय के आय से ज्यादा दिखा। उन्हें उनका भविस्य नहीं दिखाई दिया। परिणाम स्वरुप विधालय धीरे-धीरे बंद हो गया। कुछ समय बाद वीडियो हॉल विभिन्न कारणों से बंद हो गया। वीडियो हॉल का बंद होने का मुख्य कारण लोगो का उसके प्रति आकर्षण कम होना और प्रशासन (थाना) द्वरा  बार-बार छापा मारी, क्योंकी वीडियो हॉल चलाने के लिए उनके पास कोई परमिट नहीं था। तदनुपरान्त भि०सी०आर० वाले ने उनका परिसर खाली कर दिया। वीडियो हॉल अब उतनी मुनाफे का सौदा नहीं रह गया। विरेन्द्र बाबू ने पुनः विधालय को शुरू किया पर अब पहले वाली बात नहीं रही। यह भी अब घाटे का सौदा साबित होने लगा। अब उनका बच्चे बड़े होने लगे खर्च बढ़ने लगा। धीरे-धीरे वे आर्थिक बदहाली के गिरफ़्त में आते गए। अब घर से शांति जाती रही। नित्य प्रतिदिन घर में कीच-कीच होने लगी। कलह की देवी ने घर में अपना निवाश बना ली। विरेन्द्र बाबू अब पत्नी और बच्चों के साथ मार-पिट भी करते। घर में आर्थिक तंगी दिनों दिन बढ़ती गई। बच्चियाँ व्याहने (शादी) योग्य हो गई। जमीन बेच कर वे उनका शादी कर दिए। जमीन से जो उपज (पैदावार) घर में आती थी, वह भी बंद हो गई। उनकी पत्नी अपने दो बच्चों के साथ पास के शहर में चली गई। उनका उद्देश्य था, बच्चों को किसी प्रकार पालना। विरेन्द्र बाबू को यह सब बहुत बुरा लगा। वे अपनी पत्नी और बच्चों को गाँव लाने का कई प्रयाश किए पर सफल न हो सके। वे शहर में भी जाकर उनलोगो के निवाश स्थान पर हो-हुज्जत करते, जिस वजह से वे लोग अब इनसे छुप कर रहने लगे। विरेन्द्र बाबू गाँव में अपनी प्रतिष्ठा चाहते थे पर व्यय के लिए आय का कोई उपाय नहीं कर पा रहे थे और उनकी पत्नी और बच्चें अब बदहाली में जीना नहीं चाहते थे। दिनों दिन वे चिड़चिड़ा होते गए अब वे अपनी कमी छुपाने के लिए दूसरों का अनावश्वक शिकायत करते रहते।

                            आज समाज में उनका एक असफल व्यक्ति के रूप में पहचान किया जाता है। वे किसी भी क्षेत्र में घर-परिवार समाज के कसौटी पर खड़ा नहीं उतर सके।

                              एक रोज किसी के पारिवारिक घटना पर गाँव में कुछ बुजुर्ग एवं अन्य लोग जुटे हुए थे। समस्या पर विचार विमर्श हो रहा था, सभी लोग अपना-अपना सुझाव दे रहे थे। उसी भीड़ में विरेन्द्र बाबू भी थे। उन्होंने भी एक सुझाव दिया और उसके समर्थन में बड़े-बड़े तर्क पेश किया। कुछ व्यक्तियों का नाम भी मिशाल के तौर पर दिया, जो सभी को गले के निचे नहीं उतर सका। वही एक ऐसे व्यक्ति भी थे, जिन्हें खड़ी बोली और कटाक्ष के लिए जाना जाता है। उन्होंने तपाक से कहा "ए विरेन्द्र तू भले ही एम०ए० होइबअ पर एह में नईखअ।" सभी लोग उनका चेहरा देखने लगे। पर विरेन्द्र बाबू फिर बोल पड़े, कैसे ? तो उसी वृद्ध व्यक्ति ने कहा अब हम को खोलना ही पड़ेगा। तू कहाँ सफल भईलअ, इतना सुन्दर शरीर, धंधा, प्रतिष्ठा सब गवा दिया, अपनी पत्नी और बच्चों को देख भाल नहीं कर सका, उनका भरण-पोषण नहीं कर सका अब कैसे कहु की तू 'एम०ए० होगे पर एह में(इसमे) नहीं हो' इस बात को सुन सभी लोग बिलकुल शांत हो गए। कुछ समय ऐसा लगा की वहाँ कोई है ही नहीं। सभी बस एक दूसरे को देखते भर रह गए।

                               आज सफल होना बहुत जरुरी है। सभी जगह सिर्फ किताबी ज्ञान या रचनात्मक कला एवं ललित कला ही काम नहीं आता। सफल होने के लिए व्यवहारिकता का होना बहुत ही आवश्यक शर्त है। अतः एम०ए० के साथ एह में भी होना जरुरी है। जिस से एक उद्देश्य पूर्ण, अर्थ पूर्ण सामाजिक दृष्टि से सही सफल जीवन पाया जा सके।