Wikipedia

खोज नतीजे

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

* जड़ मत काटो *

                     मैं और मेरा दोस्त राजू संध्या भ्रमण करते हुए हम अपने पास के बगीचा में पहुँच गए और वही बैठ कर इधर-उधर की बातें करने लगे। इतने में राजू बोला इस समय कुछ लिख रहे हो या बस यूँ ही घर बैठे समय बिता रहे हो। मैंने कहा क्या लिखें दोस्त घर परिवार से ही परेशान रहता हूँ, सोच रहा हूँ यहाँ से अपनी बोरिया-विस्तर बांध कर कहीं दूसरे जगह बस (सेटल हो) जाऊ। राजू बोलने लगा ठीक है, हो जाओ कौन रोका है, पर जब वहाँ भी परेशानी होगी तो फिर कहाँ जाओगे। मैं तुम को एक सच्ची कहानी का प्लाट दे रहा हूँ, हो सके तो अपनी रचना में शामिल कर लेना। मैंने कहा हाँ, तो वह बोला तुम इन पेड़ो को कटवा कर बेच दोगे। मैं कुछ नहीं बोला। 

                    वह कहने लगा "पेड़ो को कटवा दोगे तो इनका समूल जड़ से नाश हो जाएगा। तुम्हे कुछ पैसे प्राप्त हो जाएंगे, पर जब तक यह रहेंगी तब तक तुम्हें या जो इनका देख भाल करेगा उन्हें इन से कुछ न कुह प्राप्त होता रहेगा। इनके फल शाखा का इस्तेमाल कर सकोगे, जो बड़े और मोटे तने वाले वृक्ष हैं उनके शाखा से फर्नीचर (काठउत्पाद) बना सकते हो। जब भी तुम आओगे इन पर अपना हक़ जाना सकते हो। इनका इस्तेमाल जो लोग करेंगे, वो भी तुम्हारा नाम लेते रहेंगे। उनसे तुम्हारा आत्मीय रिश्ता भी जुड़ा रहेगा। मैं तो यहीं कहूँगा की कभी भी कहीं किसी का जड़ मत काटो न कटवाओ हीं हो सके तो जड़ को मजबूत करो।" वह भाउकता में कहीं खो गया। मैं उसे बीच में टोका तुम्हे क्या हो गया पर्यावरणविद की तरह बात कर रहे हो और इतना भाउक क्यों हो रहे हो। मैं तुम्हे छोड़ कर कही नहीं जानें वाला हूँ। तुम्हे इन पेड़ो से क्या मिलने वाली है। वह बोल पड़ा कुछ नहीं मिलेगा तो स्वच्छ हवा तो मिलेगी उसे तो कोई नहीं रोक सकता और वह मुस्का दिया।

                     हमने पूछा तुम हमें कोई कहानी का प्लाट दे रहे थे, उसका क्या हुआँ सुनाओ, वह बोला सुनाता हूँ। फिर वह कुछ सोचने लगा मैंने पूछा क्या हो गया। वह बोल पड़ा, मैं तुम्हे संक्षेप में सुना दे रहा हूँ, तुम उसे कड़ी वार रोचकता पूर्ण जोड़ लेना। मैं कहा ठीक है। वह काने लगा :- यह उस समय की बात है जब मैं भारत के पूर्वोत्तर राज्य में पदस्थापित था उस समय वहाँ कई नक्शली एवं उग्रवादी समूह सक्रीय थे और उनमे से कई आज भी सक्रिय हैं। ऐसे ये राज्य उस समय बहुत ही पिछड़े हुएँ थे। आज उनकी स्थिति में सुधार है पर उतना नहीं जितना चाहिए। इनके पिछड़ेपन का मुख्य कारण वहाँ संसाधनों के कमी के साथ वहाँ के लोगों में कार्य करने की इच्छा की कमी है। वहाँ शिक्षा का भी अभाव है। वहाँ के लोग त्यौहार उत्सव ज्यादा मनाते हैं। इनमें नशे के साथ अवकाश मनाने का भी आदत पाई जाती है।

                  इसी दौरान वहाँ बाहर से यानी दूसरे राज्यों से आ कर लोग बसने लगे। वे जीतोड़ मेहनत कर एवं अपने अनुभव ज्ञान का इस्तेमाल कर वहाँ अच्छा-खासा धन सम्पति अर्जित कर लिए और वहीं स्थाई तौर पर निवास  करने लगे। कुछ समय बाद जब वहाँ के लोग जागरूक हुएँ तो वे वहाँ अन्य निवासियों का विरोध करने लगे। विरोध सही या गलत था या है इसे यहीं छोड़ते हैं। वहाँ के लोग अन्य लोगो का काम से विरोध न कर संगठित हो  कर अस्त्र-शस्त्र से विरोध करते। वे सिर्फ धनवानों का ही नहीं निम्न वर्ग के मजदूरी करने वालो का भी बिरोध करते। यह बिरोध आर्थिक सामाजिक के साथ राजनितिक से ज्यादा प्रेरित था और आज भी है। फिर वह चुप हो कर कुछ सोचने लगा। मैंने टोका क्या हुआँ। वह बोला कुछ नहीं। वह बोला वहाँ की स्थिति प्रस्थिति को छोड़ो लोग क्यों बिरोध कर रहे थे या कर रहें हैं। उन्हें हथियार या अन्य सुबिधा कौन मुहैया करता है। इस बिरोध का क्या अभिप्राय था। मैं कहा हमें क्या मालूम, थोड़ा बहुत खबर जो समाचार पत्रों में छपता है, उसे ही पढ़ लेते हैं और उतना ही हमें जानकारी है। खैर आगे बताओ। वह मायुश होता हुआ कहने लगा :-

                   " मैं अवकाश ले कर घर आ रहा था। ट्रेन पकड़ने के लिए अभी रेलवे स्टेशन पहुँचा ही था। ट्रेन अभी-अभी आ कर लगी ही थी। उसे वहाँ से प्रस्थान करने में अभी कुछ समय शेष था। मैं अपने कोच की तरफ आराम से बढ़ रहा था। इतने में मैं देखा की एक अर्धवृद्ध व्यक्ति जिसका उम्र लगभग ५५ वर्ष के आस-पास होगी, उसे टी० टी० पकडे हुए है और पास में जी०आर०पी० के दो जवान खड़े हैं। वह व्यक्ति रो-रो कर अपनी बात कह रहा है। इतने में वहाँ अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठी हो गई। लोग तमाशाबीन बने हुए थे। कुछ बात जानना चाह रहे थे तो कुछ उस भीड़ को देख कर वहाँ इकट्ठा हो रहे थे इतने में वहाँ मिडिया (खबर) वाले भी पहुँच गए। मैं भी थोड़ा समीप गया तो ज्ञात हुआ की वह व्यक्ति बिहार में मुजफरपुर का रहने वाला है। मैं थोड़ा और समीप गया। उसके बाद जो घटना हमें ज्ञात हुआ, बड़ा ही दुःखद था।" मैं पूछा क्या दुःखद था, वो भी तो बताव। राजू एक लम्बी सांस लेता हुआ बोला बताता हूँ।

                         राजू अपने चेहरे पर हाथ फेरता हुआ बोला :- उस व्यक्ति का नाम घनश्याम गुप्ता था। वह रोजगार की तलास में असम गया था वह पढ़ा-लिखा था और दिमाग से ऊधम (व्यापार) करने वाला भी। वह वहाँ गया तो उसे वहाँ काम मिल गई और वह काम करने लगा। वह शिक्षित था ही वहाँ के बच्चों को जिसमें वहाँ के मूल निवासी एवं बहार से आ कर बसे, दोनों को पढ़ना शुरू किया या यूँ कहे वह उन्हें ट्यूशन देना लगा। उससे उसका आमद (आय) भी बढ़ गया। वह नौकरी छोड़ अपना व्यवसाय करने लगा और एक निजी विधालय भी चलाने लगा। उस क्षेत्र में उसका पहचान शतप्रतिशत लोगो से हो गई। उसे मान सम्मान भी मिलने लगा। फिर क्या वह वही स्थाई बस गया। वह अपनी पत्नी को वही ले गया। उसके दो लड़के हुए दोनों ने कभी अपने पुराने गाँव की तरफ मुर कर भी नहीं देखा। वह  वही पूर्ण रूपेण रस-बस गए। अब वह गाँव कम जाता था। कभी जाता भी था तो अपनी हिस्सेदारी के लिए। मैं बोल परा इसमे कौन सी बुरी बात है। राजू बोला अपनी हिस्सा लेना बुरी बात नहीं है पर उसका जड़ ही काट देना बुरी बात है। मैं पूछा तुम्हारा मतलब ? वह बोलने लगा उस, उस व्यक्ति को लगा उसका हिस्सा गाँव में यूँ ही पड़ा ही रहेगा। अब मेरे बाल-बच्चे गाँव तो जाएंगे नहीं दूसरा ही उसका उपभोग करेगा, मैं क्यों नहीं अपनी सम्पूर्ण हिस्सा बेच कर ले जाऊ। वह जहाँ रहता था वहाँ उसने एक अच्छा सा घर बना लिया था। जमीन-जयदाद भी खरीद लिए थे। उसने ऐसा ही किया अपनी पुश्तैनी सम्पति से अपना जड़ ही काट लिया। उसे ऐसा करने से उसके सगे-सम्बन्धी, भाई-बंधू रोकना चाहे पर वह नहीं माना, वह सोचने लगा इनके मन में बैमानि है। मैं इन्हे अपना हिस्सा क्यों खाने दूँ। वह अपना सारा हिस्सा बेच कर गाँव से सदा के लिए पलायन कर गया। फिर उसने न कभी गाँव का रुख किया न कोई संवाद किया। वह वहाँ एसो-आराम, सुख-चैन में या जो कहो रहने लगा पर नियति और किस्मत को कौन टाल सकता है। और वह चुप हो गया।

                      मैं पूछा फि क्या हुआ। राजू बताने लगा वही व्यक्ति जो वर्षो पहले गाँव एवं अपने सगे-सम्बधियों को छोड़ चूका था, आज जब घर-गाँव का रुख किया तो उसके पास एक फूटी कौड़ी न थी, जिससे वह रेल में सफर के लिए एक वैध टिकट ले सके। उसके पास था तो सिर्फ आँखों में आंशु और दिल में मलाल कष्ट। वह कभी सोचा भी न था की उसका ऐसा दिन भी आ सकता है। मैं  पूछा कैसा दिन ? राजू बताने लगा।

                              पूर्वोत्तर राज्यों में प्रवासी लोगो के खिलाफ सुनियोजित तरीके से बिरोध चल रहा था। घनश्याम गुप्ता ने सोचा यहाँ तो मेरा तो सब से जान पहचान है। हमारी किसी से दुश्मनी भी नहीं है। सभी लोग हमें सम्मान भी देते हैं तो मुझे और मेरे परिवार को किस बात का डर है। ए लोग भला हमारा क्यूँ नुकसान पहुचाएंगे। पर उसका सोचना गलत साबित हुआँ। एक ही झटके में उसका समूल नाश हो गया। सिर्फ वह ही विलाप करने के लिए बचा। मैं पूछा कैसे ? राजू बोला, वह बता रहा था। एक रोज वह किसी काम से दूसरे गाँव गया था। उसी रोज जहाँ वह रहता था, वहाँ विद्रोहियों ने हमला कर दिया। पुरे प्रवासियों के घर में आग लगा दी, धन-सम्पति लूट लिया सभी लोगों का क़त्ल कर दिया यहाँ तक की बूढ़े,बच्चे और बीमार व्यक्ति को भी नहीं छोड़ा। वह बता रहा था की उसके परिवार में उसके साथ उसकी पत्नी दो लड़के दोनों का पत्नी और उन दोनों का भी दो-दो बच्चे थे, जिसमे एक का उम्र दो माह था। उन्होंने उसे भी नहीं छोड़ा।

                      राजू आगे बताता है की घनश्याम गुप्ता बता रहा था। वह जब दूसरे गाँव से वापिस आ रहा था तो उसे रास्ते में ही एक वृद्ध व्यक्ति ने उधर जाने से रोका और कहा, विद्रोहियों ने उधर गाँव पर हमला कर दिया है। गाँव के लगभग सभी घरों को आग के हवाले कर दिया है। उधर मत जाओ, वे अभी उधर ही हैं। घनश्याम गुप्ता माना करने के बाद भी गया उसके बाद उसने जो दृश्य देखा तो उसके मुख से आवाज भी न निकली, विद्रोही सभी का क़त्ल कर रहे थे। उसका घर भी आग के लपटों से लाल हो रहा था। वह वहाँ से बिना आवाज किए जंगल के रास्ते लुकता-छिपता भागा और किसी तरह रेलवे स्टेशन पहुँचा। वह बिहार जाने वाली रेल (ट्रेन)  की तरफ बढ़ा। उसी दौरान उसे टिकट निरीक्षक ने पकड़ लिया। उसी समय हमने उसे विलाप करता हुआँ देखा। राजू फिर चुप हो गया। मैं उसे पुनः टोका फिर क्या हुआँ ? वह कहने लगा होना क्या था ? अब वह जिस पेड़ की छाया और फल की चाह में गाँव का रुख किया था, जिसका जड़ वह वर्षो पहले काट चूका था।

                           राजू आगे बताता है की मिडियाँ वालो ने उससे पूछा आप गाँव जा रहें हैं, वहाँ आपका कोई संगी-सम्बन्धी है ? क्या वहाँ आपकी कोई अपनी धन-संम्पति है ? तो वह (घनश्याम गुप्ता) फफकता हुआँ बोला, मैं किस मुख से बोलू की वहाँ मेरा अपना सहोदर भाई एवं अन्य संगे-सम्बन्धी हैं। मैं तो बहुत पहले ही वहाँ से नाता तोड़ लिया। मैं यह कह सकता हूँ की वहाँ मेरा धन-सम्पति के नाम पर कुछ नहीं है। मिडियाँ वालो ने पुनः पूछा फिर भी, कोई तो होगा जिसके पास आप जा रहे हो। तो बड़ा मिश्किल से आवाज निकलता हुआँ बोला, हाँ वहाँ मेरा एक सहोदर भाई है। मैं उसी के पास जा रहा हूँ। मैं बोला फिर क्या हुआँ ? राजू बोला बताता हूँ। पुनः बताने लगा, मिडियाँ वालो ने उसके लिए उचित टिकट का प्रबंध  किया और उसके साथ उसके गाँव गए।

                   घनश्याम गुप्ता और मिडियाँ वाले जब गाँव पहुँचे तो वहाँ उन्हें देखने के लिए पूरा गाँव इक्ठा हो गया। वहाँ के बड़े-बुजुर्गो को छोड़ दे तो बच्चे एवं युवा घनश्याम गुप्ता को पहचानते भी न थे। उसे वहाँ आया हुआँ देख लोगों लो आश्चर्य हो रहा था। जितने लोग उतनी बातें। उसके भाई और घर वालों ने जब उसकी दशा देखि और सम्पूर्ण घटना क्रम उन्हें जब ज्ञात हुआँ तो वहाँ  माहौल गमनिगिन हो गई। घर की स्त्रियाँ विलाप एवं रुदन करने लगी। उनके रुदन से पूरा माहौल शोकाकुल हो गया। लोगों ने उन्हें सांत्वना देना शुरू किया, सभी विभिन्न तरीकों एवं तर्क से उन्हें ढाढ़स बंधाया। मिडियाँ वालो को तो जाना  भी था। वे मानवता के नाते अपना कर्तव्य बखूबी निभाई। वे उनके भाई राधेश्याम गुप्ता से मिले और उनसे पूछा आप इस घटना या अपने भाई पर कुछ कहना चाहेंगे ? आप इनका मदद कैसे करेंगे ? वह अपनी नम आँखों को पोछता हुआँ भराई हुई आवाज में बोला, मैं इस पर क्या कह सकता हूँ ? हमने तो इन्हें पहले ही अपनी सम्पति बेचने से माना किया था। मैंने कहा था आप वहाँ जितना चाहें अर्जन करें पर यह आपका जड़ है, कृप्या इसे न काटे, हो सके तो इसे मजबूत करें। इन्होंने मेरा एक भी न सुना, खैर जो होना था सो हो गया। मैं अब इतना ही कह सकता हूँ। मैं जब तक जिन्दा रहूँगा इन्हें अपनी रोटी में से आधा देता रहूँगा।

                    भाई का यह शब्द सुन वहाँ उपस्थित सभी लोगों के आँखें नम हो गई। लोगों ने कहा आखिर अपने तो अपने ही होते हैं। अपनी जन्मभूमि अपनी जन्मभूमि है। जन्मभूमि माँ के समान है। इसे पूर्णरूपेण परित्याग कभी भी किसी हालत में नहीं करना चाहिए। आप ऊपर जितना उठ सके उठे पर जड़ का परित्याग न करें। इसे न काटे न कमजोड़ करें। जड़ तो आखिर जड़ है। इसे काट कर कभी कोई सुख चैन से नहीं रह सकता। आप जितना ऊपर उठे उतना ही जड़ को मजबूत करें। अपनी जड़ के लिए दिल में एक जगह अवश्य होनी चाहिए। इन शब्दों के साथ राजू बिलकुल चुप एवं शांत हो गया। मैं भी चुप रहा। थोड़ी देर तक वहाँ बिलकुल शांति रहा, जैसे वहाँ कोई है ही नहीं।

                   थोड़ी देर बाद राजू मेरे कंधे पर हाथ रखता हुआँ बोला। कैसा है यह सच्ची घटना, अगर अच्छी और मर्मस्पर्श ज्ञानवर्धक है तो इसे अपनी रचना में अवश्य स्थान देना। जिससे लोग अपने जड़ को काटने से बचें। अगर हो सके तो उसका शीर्षक रखना "जड़ मत काटो।"