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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

* शंकर *

                   वर्ष २००३ का फ़रवरी माह प्रातः काल की बेला में मैं अपने घर के छत पर बैठा धुप का आनंद ले रहा था। बैठे-बैठे अधखुली आँखों से मैं अपने और इस जगत के विषय में सोच रहा था आखिर यह दुनियाँ है क्या ? इसे निर्माण करने का श्रेय तो किसी को तो है ! लोगो में सोच आखिर कैसे उत्पन्न होती है। एक ही परिवार एवं परवरिश में लोग भिन्न-भिन्न कैसे हो जाते हैं। इतने में मुझे अपने पड़ोस के शंकर के घर से आती हुई शोर सुनाई दीया। वहाँ हो रहे शोर की ओर मैं अपना ध्यान ले गया। वहाँ एक वाक्य स्पष्ट सुनाई दिया जो शंकर की माँ की थी। वह रोती हुई कह रही थी, "कोई बात नहीं बेटा ईश्वर सब देख रहा है, तुम्हे भी ऐसा कहने वाला अवश्य प्राप्त होगा।" हमें मालूम हुआ की उनमें लेन-देन और बटवारे का बात चल रहा है। कुछ दिनों के बाद हमें शंकर के द्वारा ही 'जब हम लोगों में बातचीत होगा तो आप भी रहिएगा' यानि उनके बीच होने वाली बातचीत में रहने के लिए निवेदित किया गया। हमने हामी भर दी। अब जब भी बटवारे या हिस्सेदारी  का बात चलता तो मैं उस में जाता। उन सारे बातचीत में जो बातें सामने आई तथा शंकर ने जो बोल-वचन किया उसका हमें कतई विश्वास नहीं था।

                         हमारे पड़ोसियों के साथ हमें भी विश्वास था की शंकर अपने घर को संवारने में कोई कोर कसार नहीं छोड़ रहा। हम सभी की यह धारणा मिथ्या साबित हुई। शंकर हमारे पड़ोस में अच्छों लड़को में गिना जाता था। वह उस समय डबल एम० ए०  (M.A.) कर चूका था। ऐसे वह आम लोगों से हँस कर जी तथा आदर सूचक शब्दों के साथ ही बात करता था। आजतक उसके चरित्र पर भी किसी ने ऊँगली नहीं उठाई थी। ऐसे वह प्रारम्भ में अपने घर को चलाने के लिए विभिन्न ऊधम (उद्यापन) भी किया, जिसमें उसे माँ, भाई-बहन का भरपूर सहयोग मिला सिर्फ उसे पिता जी से थोड़ा कम, ऐसा नहीं की उसके पिता जी ने उसका सहयोग नहीं किया ! यहाँ तक उसे लाने में उसका पिता जी का ही आशीर्वाद था। वह उनका नाम बेच कर ही आय किया (कमाया) था, उसके पिता जी अपने कुछ आदतों से मजबूर थे। वह (शंकर) जो उस समय किया  आज के पढ़े-लिखे लोग उसे दोहन कहते हैं। जो विकाश के लिए जरुरी भी है।

                            वह सुबह की वार्ता जिसका हमने पहले चर्चा किया था। उस रोज हुआ यू की शंकर के घर में शायद खाने-पिने की वस्तु नहीं थी, उस समय उस घर में शंकर को छोड़ दे तो घर का कोई और सदस्य खास आय नहीं करता था या यू कहें की शंकर ही उस समय उस घर-परिवार का एक मात्र आय करने वाला सदस्य था। उस सुबह शंकर की माँ ने उसे  बताया की घर में खाने को कुछ भी नहीं है, बेटा कुछ ले कर आओ, वह  बोला मैं सभी का ठिका ले रखा हूँ, मेरे पास पैसे नहीं हैं। उसकी माँ कुछ देर चुप रही फिर बोली किसी दुकान से उधर ले आ, हम कहीं से पैसा ला कर चूका देंगे। वह बोला बस करो तुम तो ऐसे ही कहती हो , तुम लोगो के कारण मेरा आमद (आय) का कुछ पता ही नहीं चल पा रहा है। माँ बोली "बेटा तुम बड़े हो, माँ-बाप बच्चों को इसी लिए तो पालते हैं, की वह उनका काम में हाथ बटाएगा, उनके बोझ को काम करेगा, तुम बड़े हो तो तुम्हारा अपने भाई-बहन के प्रति कर्तव्य तो बनता ही है।" शंकर बोला "बस-बस हम पर आप लोगों ने क्या खर्च किए हैं, मेरा कोई नहीं है, मुझे किसी से लेना देना नहीं है।" उसकी माँ बोली  "कोई नहीं का मतलब क्या तुम्हें इतना बड़ा करने में हमने कुछ नहीं किया, क्या तुम स्वयं इतना बड़ा हो गया।" शंकर बोला  "हाँ मुझे तो चाची और दादा-दादी ने पाला  है।" माँ बोली "बेटा कोई किसी को नहीं पालता , तुम अब होस सम्भाले हो तो देख रहे हो या जो लोग कह रहें हैं उसे सुन रहे हो, कोई किसी को एक बार करता है तो तीन बार सुनाता है, खैर छोड़ो (रुंधे हुए गले से ) मैं तुम्हारी जननी हूँ अपने कोख (उदर) में तुम्हे पाला है , अपने खून से तुम्हे नौ माह सींचा है तो इस नाते तो तुम पर मेरी हक़ तो बनती ही है , तुम्हे मातृ कर्ज तो चुकाना ही पड़ेगा।" शंकर बोला "कोई जननी-माननी नहीं, कोई कर्ज-वर्ज नहीं आपका हम पर कोई एहसान नहीं है , हमारा कोई नहीं है। " माँ बोली " तो तुम क्या आम के खोड़हर में से इतना बड़ा ही आ गए थे।" और माँ डबडबा गई उनके मुख से आवाज नहीं निकल रहा था, एक माँ के दुःख दर्द पीड़ा को एक आम आदमी कैसे समझ सकता है, उस माँ पर उस समय क्या बित रही होगी, जिस बच्चे को वह कितनी आशा से पाली पोशी होगी जो कमाने (आय करने) लायक हुआ तो  अपना कर्तव्य से पला झाड़ लिया , जिस माँ के बच्चें जो अभी नादान हो, जो भूख मिटाने के लिए अन्न के एक-एक दाने को मुहताज हो, उसके दर्द को कोई शब्दों में कैसे व्यक्त कर सकता है। इसके बाद शंकर ने जो बोला उसे सुन कर मेरा मस्तिष्क सुन हो गया, लगा मेरा दिल बैठ जायेगा धरकन रुक जाएगी सांसे थम जाएगी। हमें आज के समाज पर सोचने को मजबूर होना पड़ा। जिसने भी सुना, जाना दाँतो तले ऊँगली दबा लिया। हमें लगा किसी ने सही कहा है, "ज्यादा पढ़ा लिखा स्वार्थी हो जाता है। " यहाँ हमें उस व्यक्ति का सोच सही लगता है। जो भी शंकर के इस कथन को सुनता कहता क्या ? एक पढ़ा लिखा बेटा (लड़का) का यह जबाब। ऐसा सन्तान से निःसंतान होना ही अच्छा है। कई औरतें तो कहती अगर यह मेरा लड़का होता  तो इसे गर्भ में ही मार देती। इन सारी प्रतिक्रियाओं के बाद हमने देखा आज समाज में बहुत परिवर्तन आ गई है। किसी ने शंकर के मुख पर कुछ नहीं कहा या उसे न ही समझाने का प्रयत्न किया। बस बाहर-बाहर काना-फूसी होता रहा। हमें समझ में नहीं आ रहा था। समाज के इस बदलाव को हम क्या नाम दूँ। अब आप सोच रहें होंगे आखिर शंकर ने ऐसा क्या कह दिया तो सुनिए मुझे यहाँ लिखने में भी शर्म आ रही है, पर क्या करू लिखना तो पड़ेगा। शंकर जिस गर्भ से जन्म लिया उसी गर्भ को को गाली दिया। अब आप शंकर के मुख से ही सुन लीजिए।  शंकर - "हाँ मैं खोड़र में से आया हूँ , आज मैं जो भी हूँ अपने परिश्रम और किस्मत से हूँ , आपने तो माजा लिया और मैं आ गया, इसमे मेरा क्या इसमे तो आप कसूरवार हैं, अब भी हमें आप लोग छोड़िए की और कुछ सुनना है।" इस कथन के बाद भी उस माँ का विशाल हिर्दय को देखो वह बस रोती हुई बोली, "अच्छा बेटा खुश रहो आबाद रहो, ईश्वर तुम्हे भी संतान देंगे और और जब वह भी यही बात तुम से कहेगा तब तुम्हे इस माँ की दुःख दर्द का एहसास होगा।"

                         आप को बता दे की इन सारी घटनाओं के बाद शंकर कुछ दिन घर परिवार के साथ रहा उसका शादी हुआ। कुछ दिनों बाद वह अपनी पत्नी को मायके भेज दिया और फिर वही नटकृतन ड्रामा शुरू किया। उसके बाद वह अपनी पत्नी को ले कर अलग रहने लगा। घर पर जब अन्य लोगो को खाने के दाने के लिए लाले पर रहे थे तो वह रोझहा  (उठवना) दूध पिता था। अब वह आए दिन अपने बड़े हो रहे भाइयों एवं माँ-पिता जी से जमीन-जायदाद बाटने के लिए लड़ता एवं बिबाद खड़ा करता रहता। समय बिता और उसके भाई भी सरेख (युवा) हो गए वे भी रोजग़ार एवं ऊधम (उद्यापन) करने लगे जिससे आय होने लगा और घर के सदस्यों का सही से  परवरिश होने लगा। इसी दौरान इनके पिता जी अब बीमार रहने लगे। उनके दवा पर भी अच्छा पैसा खर्च आने लगा। इन सरे बातों को देख कर शंकर के भाइयों ने अपने मामा जी को बुलाया। सभी लोग बैठ कर कुछ बात किए, जिसमे कुछ पैसा और अन्न (अनाज) देने का शंकर स्वीकार किया। बाद में शंकर अपने किए वादे से मुकर गया। उसने जो परिवार के भरण-पोषण के लिए स्वेच्छा से सहयोग करने के लिए कहा था। उसे वह भूल गया। आप को बता दे की यह सारी बातें बटवारे के लिए, जब शंकर ने हमें बुलाया तो उसी दौरान क्रमवार सामने आई। इसी क्रम में शंकर के भाइयों ने बताया की ए कई बार आपसी सहमति से हुए निर्णय से पलट गए हैं। जिसका उन्होंने लिखित प्रमाण भी दिखाया।

                          शंकर के बुलाने पर ही पंचायती के लिए हमारे साथ कुछ और लोग पंच बन कर बैठे थे। हम ने शंकर से पूछा 'हाँ शंकर आप लोगों में पहले भी कुछ सहमति समझौता हुआ था।' वह बोला हाँ चाचा जी। मैं बोला आप उस से पीछे क्यों हट गए। शंकर बोला मैं माँ-पिता जी को कुछ सहयोग के लिए भरोसा दिया था पर कुछ कारणों से मैं वह सहयोग नहीं कर सका। हमने पूछा क्यों ? तो वह बोला जब मैं उन्हें सहयोग करने लगा तो मेरी आय कम गई और मैं बीमार रहने लगा तो मैं उनका सहयोग करना छोड़ दिया। हमने बोला अच्छी बात है पर आपकी स्वास्थ (सेहत) जब अच्छी हो गई और आय ठीक होने लगा तो फिर आपको अपना किया हुआ वादा, दिया हुआ भरोसा कायम रखना चाहिए था। वह बोला ऐसा नहीं की मैं उस समय बिलकुल बीमार ही हो गया और मेरी आय बिलकुल बंद हो गई थी। इनके सहयोग से मैं अनुभव किया की हमारे ऊपर विपति का छाया पड़ रही है जो हमें परेशानी में डाल रही है। इनसे नाता और सहयोग तोड़ने के बाद मैं पुनः ठीक महसूस करने लगा। मैंने मन में सोचा क्या बहाना है। इसे धुर्तई कहे या और कुछ ? मेरे मन में आया माता-पिता के सहयोग से इस पर विपति का छाया मड़राने लगती है, कही इनके धन-सम्पति लेने के बाद कही और बड़ी घटना न हो जाए, पर इस पर मैं कुछ नहीं बोला। उस दिन आम बात हुई सभी का पक्ष सुना गया, एक और बात सामने आई की उनमे एक लिखित समझौता भी हुआ है। शंकर के भाइयों ने बताया की बार-बार स्वयं निर्णय करते हैं फिर मुकर जाते हैं तो इस बार हमने लिखित करवाया था वो भी स्टाम्प पेपड़ पर। हम लोगो ने कहा तब तो ठीक है फिर हम लोगों की क्या जरुरत है। शंकर के भाइयों ने बोला अब ए उसे भी मानने को तैयार नहीं हैं। हमलोगों ने शंकर के तरफ देखा तो शंकर कहने लगा हमें उस समय नहीं पता चला इस लिए हमने वह शर्त मान लिया था। उस में गलत है इस लिए अब हमें उससे सरोकार नहीं है। हम लोगों ने कहा इसका क्या गारंटी है की तुम अब मान जाओगी। वह बोला जी ना अब आप लोग जैसा कहेंगे वैसा ही होगा। हम लोगों ने वह कागज (स्टाम्प पेपर) मंगवाया और आम सहमति से उसे रद्द कर नष्ट कर दिया गया। यह बैठक रात को हो रही थी रात अधिक हो जाने से हम लोग सारी  बातों को यहीं समाप्त कर फिर अगले दिन निश्चित समय पर आने के लिए कह कर अपने-अपने घर प्रस्थान किया।

                             पुनः अगले रात निश्चित समयानुसार बैठक शुरू हुई बात का शिलशिला शुरू हुआ। शंकर ने कहा हमारी तिलक का बर्तन इन लोगों के पास है, जिसे देने के लिए इन्हे कहिए। शंकर के भाइयों ने बर्तन होने का बात स्वीकार किया, साथ में कहा की इनके शादी का कर्ज था, महाजनों एवं साहूकारों का उन्होंने नाम भी बताया जिसे बिना चुकाए ए अलग हो गए थे। इन्हें बोलिए, ए उनका देनदारी चुकाए। हम ने शंकर के भाई से अकेले में पूछा क्या उसके बर्तन से तुम्हार देनदारी चूक जाएगा तो उसने कहा नहीं। मैं इनका बर्तन सही समय पर वापिस भी कर दूँगा पर उन्हें शर्म तो आनी चाहिए न, मैं उनका बर्तन यु ही मुफ्त में थोड़े ही रखा हूँ। मैं बोला खैर छोड़ो भी तुम उसका बर्तन वापिस कर दो, तुम कहो तो मैं उसे कल बुलाऊंगा उसे उसका बर्तन वापिस कर देना। शंकर का भाई बोला ठीक है। अगले दिन शंकर को उसका बर्तन मिल भी गया।

                            पुनः अगले दौर की बात शुरू हुई, सभी बात राय सुमारी से ही तय हो रहा था। कौन कितना किसको देगा। उनके पिता जी के उपचार में होने वाले खर्च में कौन कितना देगा। इसी दौरान शंकर के भाई ने बताया की पिता जी के बीमार होने पर ये एक बार उनसे मिलने आए थे तो हमने इन्हें दवा की पर्ची दिया था एक बार में ग्यारह दिन का दवा आता था, इन्होने सिर्फ एक सप्ताह का ला कर दिया। हम लोग वही दवा एक वर्ष से ला रहें हैं। उसके बाद इन्होंने कभी न माता जी से न पिता जी मिलना आवश्यक समझा। उस समय पिता जी का जो स्थिति थी इन्हे लगा था इनका इह लीला समाप्त है पर ऊपर वाले के आगे किसका चला है। आप आज देख रहे हैं न की ए स्वस्थ हैं। बटवारे की बात चल ही रही थी तो शंकर अपने छोटे भाई के ओर मुखातिब हो कर बोला मेरे औरत (मेहरारू) में भी बाट लो , बरा अंधेरे में उसके हाथ से खाना अच्छा लगता था। हमने कहा चुप रहो, शर्म करो क्या बोल रहे हो, सोचे हो, समाज में दश लोगो के सामने यही सब बोलते हैं, तो शंकर ही... ही .. ही.. करने लगा जिसे हम देशी भाषा में दाँत निपोरना भी कहते हैं।

                             आगे सभी बातें सहमति से तय हो रही थी। शंकर के भाई शंकर के कहे अनुसार सभी बात मान रहे थे पर शंकर उनका कोई बात मानने को तैयार नहीं था। इसी दौरान शंकर का एक भाई जो उससे  बहुत छोटा था पर अन्य भाइयों से बड़ा था, उसने एक सही बात कही, उसने कहा आप हिस्सा लगा दीजिए हम ले लेंगे या हम लोग लगा देते हैं तो आप ले लीजिए, उस पर भी शंकर का सही प्रतिक्रिया नहीं था। शंकर जैसा चाह रहा था वैसा ही सब कुछ चल रहा था। हम लोगों ने एक लिखित नोट (टिप्पणी) भी बनाया था, जिसमें सभी का हिस्सा, विचार दर्ज करते जा रहे थे। एक गलती हम लोगों से हुई जिसे हमने अंत में सुधारने का कोशिश किया जो नहीं हो सका। हुआ यू की एक स्थान पर सड़क के किनारे बाजार में पक्का मकान था और उसी में कुछ हिस्सा खपरैल था। वहाँ शंकर के हिसाब या मन से ही विभाजन हुआ और कहा गया की उसका आय उनके पिता जी अपनी परवरिश के लिए रखेंगे। वहाँ हिस्सा बाटने के बाद, जो हिस्सा उसके भाइयों को मिला उस में वर्तमान में (उस समय) वह निवास कर रहा था। उसने (शंकर ने) कहा मैं इन लोगो का हिस्सा तब छोड़ूंगा जब मुझे पुराने घर में हिस्सा मिलेगा। यहाँ हम लोगों से बड़ी भूल हुई जो इस बटवारे को विफल कर दिया, जिसका मुझे आज भी अफ़सोस है। शंकर का पुराना घर मिट्टी का था जो गिर गया था। उसके  अलग होने के कुछ वर्ष बाद उसके भाइयों ने एक ईट का माकन बनाया था जो अभी भी अर्ध निर्मित ही था। शंकर उसे ही पुराना घर दिखा रहा था। उस में भी शंकर के भाइयो ने उसे देने के लिए कह दिया पर कुछ कारण वस उसके भाई को कही जाना पड़ा। इसी दौरान उनके रिस्तेदारो को मालूम चला की शंकर के भाइयों द्वारा निर्मित माकन में शंकर को हिस्सा मिल रहा है तो उन्होंने उसके भाई से बात किया और कहा तुम लोग पागल हो गए हो घर उस को दे दोगे तो कहाँ रहोगे। घर को तुमने खुद बनाया, उस समय तो उस से घर बनाने में मदद माँगा ही था, तो उसने साफ माना कर दिया था। उसने कहा हमें यहाँ नहीं रहना है। अब मुफ्त में शंकर को घर या पैसा दोगे, जब छोटे भाई बड़े होंगे तो फिर उन्हें हिस्सा दोगे, तब तुम कहाँ जाओगे ? क्या तुम्हारी आय इतनी है की सभी को जीवन भर देते रहोगे। हम लोग कहूँगा घर के आगे जो खली (परती) जमीन है उसे शंकर को उसके हिस्सा अनुसार दे दो, अगर वहाँ जमीन नहीं रहती तो कोई बात होती। सड़क पर पक्का और खपरैल  में हिस्सा लगा वहाँ भी तो शंकर का तुम लोगो ने बात माना ही, अब उसे भी तो तुम्हारी बात माननी चाहिए। उन लोगों के सलाह में शंकर का भाई ने हामी भर दी और हम लोगों का भी दिमाग ठनका और सोचने पर मजबूर हुआ। यह बात तो सही है। यह तो नाइंसाफी होगी और हम लोगो का सभी प्रयत्न पर पानी फिर गया। शंकर उनके सुझाव और बात को मानने से साफ इनकार कर दिया। उससे जैसे बन सका अपने भाइयों को आर्थिक और मानसिक रूप से परेशान करने प्रयत्न किया। जिसमें वह आंशिक रूप से सफल भी हुआ। आज भी यह परिवार एक दूसरे से तनाव महसूस कर रहा है।

                            अब मैं शंकर के नाम पर सोचने को मजबूर हुआ। उसके माता-पिता शायद यह सोचकर उसका नाम रखे होंगे की यह भगवन शंकर की तरह भोलानाथ, सभी का उद्धारक होगा स्वयं कष्ट सह कर भी दूसरे का उपकार करेगा पर यहाँ तो उलटा हो गया शंकर तो तंगकर और भोलेनाथ धूर्तनाथ साबित हो रहें हैं , जो स्वयं आनन्द में रह कर दूसरे को कष्ट पहुँचाने का बीरा उठाया है। जिसने अपनी जननी को भी नहीं छोड़ा। उद्धधारक का कोई उल्टा (विपरीतार्थक) शब्द होगा तो ए उसको सार्थक कर रहा है। मैं सोचता हूँ अगर सभी पढ़े-लिखे लोग ऐसे होते हैं तो अनपढ़ होना ही अच्छा है। इनके बोल-बचन, इनकी सोच हमारे समाज को कहाँ ले जाएगी। इसे तो हम आधुनिकता के दौड़ में नैतिकता का पतन एवं मानसिकता दिवालियापन ही कहेंगे और क्या !इस पर थोड़ा आप भी विचार कीजिए एवं समाज को सही दशा-दिशा सोच प्रदान करने का प्रयाश कीजिए यह हमारा निवेदन है।