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बुधवार, 15 जुलाई 2015

*हिन्दू धर्म और धर्म शास्त्रों से संक्षिप परिचय *



                            हिन्दू धर्म में बहुत सारे धर्म ग्रन्थ हैं। वर्तमान का जो हिन्दू धर्म है, भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा और न भूतकाल में यह ऐसा था। भूतकाल में हिन्दू धर्म को सनातन धर्म कहा जाता था, अभी भी बहुत सारे हिन्दू धर्मवालम्बी अपने कागजातों में धर्म वाले काॅलम में सनातन ही लिखते हैं। हिन्दू (सनातन) धर्म की बहुत सी शाखाएँ हैं। कुछ ने तो बिल्कुल अलग धर्म का ही रूप ले लिया है और उनके (धर्मावलम्बी) अनुयायी अब हिन्दू धर्म से बने हैं या इसकी शाखा हैं, कहने पर विरोध प्रदर्शन करते हैं।
हिन्दू धर्म सबसे पुराना (प्राचीन) धर्म हैं। इसके बाद ही अन्य धर्मों का प्रदुर्भाव हुआ है। सभी धर्मों (हिन्दू (सनातन) धर्म को छोड़कर) के उद्भव की तिथि निश्चित है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार हिन्दू धर्म सृष्टि निर्माण के समय से ही अस्तित्व में है। विभिन्न कालक्रम में इसकी रूप-रेखा में अनेकों परिवर्तन हुए और अनेक ग्रन्थ, उपग्रन्थ, कथाएँ और कहानियाँ अस्तित्व में आयीं।

                       हिन्दू धर्म का सर्वप्राचीन धर्मग्रन्थ वेद है, जिसके संकलनकर्ता  महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास को माना जाता है।
हिन्दू धर्म में चार वेद बताये गये हैं -
(क) ऋग्वेद

(ख) यजुर्वेद

(ग) सामवेद

(घ) अथर्ववेद

                  सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद एवं सबसे बाद का अथर्ववेद है। वेदों को भली-भाँति समझने के लिए छः वेदागों की रचना हुई। ये हैं -

(1) शिक्षा

(2) ज्योतिष

(3) कल्प

(4) व्याकरण

(5) निरूक्त

(6) रचना

                             पुनः उपनिषदों की रचना हुई। मुक्तिकोपनिषद में 108 उपनिषदों का वर्णन आता है। अडियर लाइब्रेरी, मद्रास से प्रकाशित संग्रह में 171 उपनिषदों का प्रकाशन हो चुका है। गुजराती प्रिटिंग प्रेस, मुम्बई से मुद्रित उपनिषद् वाक्य महाकोश में 223 उपनिषदों की नामावली दी गई है। इनमें उपनिषद् - (1) उपनिध् िात्सतुति, तथा (2) देव्युपनिषद नं० 2 की चर्चा शिवरहस्य नामक ग्रन्थ में है। लेकिन ये दोनों उपलब्ध नहीं हैं तथा माण्डूक्यकारिका के चार प्रकरण चार जगह गिने गये हैं, इस प्रकार अब तक ज्ञातउपनिषदों की संख्या लगभग 220 आती है। कृपया ध्यान दे मुख्य उपनिषद 108 हीं हैं।

                         हिन्दू धर्म में पुराणों का भी प्रमुख स्थान है। ये कुल 18 की संख्या में हैं। इसके रचयिता लोमहर्ष अथवा इनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं। ये निम्नलिखित हैं -
(1) मत्स्य पुराण
(2) वायु पुराण (शिव पुराण)
(3) विष्णु पुराण
(4) ब्राह्मण पुराण
(5) भागवत पुराण (देवी भागवत)
(6) अग्नि पुराण
(7) भविष्य पुराण
(8) ब्रह्माण्ड पुराण
(9) गरूड़ पुराण
(10) वामन पुराण
(11) लिंग पुराण
(12) मार्कण्डेय पुराण
(13) नारद पुराण
(14) स्कन्द पुराण
(15) वराह पुराण
(16) पद्म पुराण
(17) कर्म पुराण
(18) ब्रह्मा वैवर्त पुराण

                    इसके साथ ही उप पुराण आते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख उप पुराणों के नाम नीचे दिये गये हैं। मत्स्य पुराण, वायु (शिव) पुराण, विष्णु पुराण, ब्राह्मण पुराण एवं भागवत (देवी भागवत) पुराण, इन पाँचों में राजाओं की वंशावली पायी जाती है। इनमें सबसे प्राचीन एवं प्रमाणिक पुराण मत्स्य पुराण है। कुछ प्रमुख उप पुराण निम्नलिखित हैं -

(1)गणेशपुराण (2)  नरसिंह पुराण (3)कल्कि पुराण  (4)एकाम पुराण (5)कपिल पुराण (6) दत्त पुराण
(7)श्री विष्णु धर्मात्तर पुराण (8)मुद्रगल पुराण  (9)सन्तकुमार पुराण  (10)शिवधर्म पुराण
 (11)आचार्य पुराण (12)मानव पुराण (13)उश्रा पुराण(14) वरूण पुराण(15) कालिका पुराण (16) महेश्वर पुराण (17) साम्ब पुराण (18) सौर पुराण (19) पराशर पुराण (20) मरीच पुराण (21) भार्गव पुराण (22) हरिवंश पुराण(23) योगवशिष्ठ पुराण (24) प्रज्ञा पुराण

                             इसी कालक्रम में स्मृति-ग्रन्थों की रचना हुई। स्मृति-ग्रन्थों में सबसे प्राचीन एवं प्रमाणिक मनुस्मृति मानी जाती है। यह शुंग काल का मानक ग्रन्थ है। नारद स्मृति गुप्त युग के विषय में जानकारी प्रदान करता है। अन्य स्मृतियाँ याज्ञवल्क्यस्मृति, पराशरस्मृति, ओशनमस्मृति, वृहस्पतिस्मृति एवं कात्यायनस्मृति, विष्णुस्मृति, अत्रीस्मृति, हारीतस्मृति, अंगीरास्मृति, यमस्मृति, आपस्तम्बस्मृति, सर्वतस्मृति, व्यासस्मृति, शांख्यस्मृति, लिखितस्मृति, दक्षस्मृति, शातातपस्मृति, वशिष्ठस्मृति इत्यादि हैं।

                         हिन्दू धर्म की बहुत सी व्रत कथाएँ, चालीसा, कथा, संहिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं और लोग उसे श्रद्धा से पढ़ते भी हैं।

                          यहाँ हम उन दो ग्रन्थों की अवश्य चर्चा करेंगे, जिससे कोई भी हिन्दू धर्मावलम्बी अछूता नहीं है, सभी के मुख से इनकी । इसे विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य ग्रन्थ होने का गौरव
कहानियों की उपमा दी जाती है। चाहे वह व्यक्ति साक्षर हो या निरक्षर, सभी इनके पात्रों से परिचित हैं और अपने अनुसार उसमें सभी अपनी छवि देखते हैं। ये दोनों ग्रन्थ रामायण और महाभारत हैं। आज तक लगभग 27 विद्वानों ने रामायण की रचना की है, जिनमें से अधिकांश तो उपलब्ध ही नहीं है, मुख्य रूप से दो ही रामायण - वाल्मिकी रामायण, तुलसीदास द्वारा रचित राम चरित मानस का ही लोग अध्ययन करते हैं।

                         रामायण की रचना हिन्दू कालक्रम के अनुसार त्रेता युग में हुई। इसमें राम चरित्र अर्थात् श्रीराम का आचरण का वर्णन है। यह एक प्रकार का ऐतिहासिक ग्रन्थ है, जिसमें भारतवर्ष के विभिन्न राजाओं और क्षेत्रों का वर्णन मिलता है। रामायण महर्षि वाल्मीकि कृत है। इसकी रचना उन्होंने उसी समय की थी, जब इसके पात्र धरातल पर उपस्थित थे। एक गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस है, जो लोगों द्वारा वर्तमान में अधिकतर श्रवण की जाती है। इसकी रचना मुगलकाल के समय में मानी जाती है।

                          महाभारत का पुराना नाम ‘जयसंहिता’ भी है। महाभारत को भी हम एक ऐतिहासिक ग्रन्थ मान सकते हैं। इसमें भी उस काल के राज्य, राजाओं एवं वंशावली का वर्णन मिलता है। इसकी रचना द्वापर में ब्रह्मर्षि कृष्ण द्वपायन वेदव्यास द्वारा की गई थी
प्राप्त हैं। इसमें एक महायुद्ध का वर्णन है। इस युद्ध में मानवता की सारी कडि़याँ टूटती नजर आती हैं। इसी युद्ध से विश्व को एक अमूल्य सार की प्राप्ति हुई है, जिसका नाम ‘गीता’ है। इसमें मानव और मानवता के सही सम्पादन के लिए मार्गदर्शन किया गया है। यह मानवता के लिए अमृत्य कृति (धरोहर) है।

                       आपने हिन्दू धर्म के दोनों ग्रन्थों रामायण आौर महाभारत को पढ़ा होगा। इनसे जुड़ी अन्य रचना, जैसे - आलोचना, समीक्षा, पात्रों का चित्रवृती का अध्ययन किया होगा या श्रवण किया होगा।

                        जहाँ तक मेरे समझ की बात है, रामायण एक स्वच्छ और अनुकरणीय ग्रन्थ है। इसके हर पात्र त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं और अपने द्वारा हुई गलती के लिये प्रायश्चित करते हैं। इसमें घर-परिवार या समाज में सभी लोगों का त्याग और एक दूसरे के लिये सम्मान की चर्चा है, लोगों में एक-दूसरे के प्रति प्यार है। जहाँ प्यार है, वहाँ सुख-शांति तो रहेगी ही। रामायण काल अर्थात् त्रेता युग सुख-शांति का प्रतीक माना जाता है, तभी तो आज भी रामराज का उदाहरण दिया जाता है। यहाँ हम त्याग और बलिदान की चर्चा नहीं करेंगे, नहीं तो आप कहेंगे कि मैं भी उपदेश देने लगा। मैं अनावश्यक चर्चा या आलोचना का हिस्सा नहीं बनना चाहता।

                        अब हम रामायण काल अर्थात् त्रेता युग से द्वापर युग अर्थात् महाभारत में चलते हैं। महाभारत काल अर्थात् द्वापर के बाद कलियुग का समय आता है, जो वर्तमान में चल रहा है। हर इंसान अपने पीछे हुए घटनाओं से कुछ-न-कुछ सीखता है। अगर वह नहीं सीखता है, तो उसे अपने अनुसार आप किस

                         श्रेणी में रखेंगे, ये मैं आप पर छोड़ता हूँ। जिस प्रकार अपने पिता और परपिता से पुत्र को विरासत में जो सम्पत्ति प्राप्त होती है और वह उसे अपने विवेक के अनुसार इस्तेमाल करता है, जो उसके भविष्य को सुनिश्चित करती है, उसी प्रकार हमें रामायण और महाभारत ग्रन्थ भी विरासत में मिला है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि इसका इस्तेमाल हम कैसे और किन अर्थों एवं रूपों में करते हैं।

            महाभारत काल से ही हमें गीता जैसा अमृत तुल्य ग्रन्थ प्राप्त हुआ। यहाँ हम गूढ़ विषय पर चर्चा नहीं करेंगे।

                  अगर हम आस्तिक होने के बाद अंतःकरण में जायें और शाश्वत सत्य को समझने की कोशिश करें, तो हमें एक अदृश्य शक्ति,  जो  प्रकाश  के  रूप  में  है,  दृष्टिगोचर  होगा। शाश्वत सत्य को प्राप्त करने के लिए धर्म ग्रन्थों में अनेक रास्ते और साधन बताये गये हैं। हम यहाँ विशेष गहराई में नहीं जायेंगे। नहीं तो आप फिर यही कहेंगे कि सब पूर्व निश्चित है। सभी कार्य पूर्व निश्चित है, पर वह हमारे कर्म द्वारा निश्चित होता है। कर्म इस जन्म का हो या पूर्व जन्म का, वह तो इस युग में या किसी युग में प्रधान होता ही है।

                       ’कर्म प्रधान विश्व करी रखा।
                      जो जस करनी तासु फल चखा।।’

                                                                (गोस्वामी तुलसीदास कृत)

इसलिए हम कर्म को झुठला नहीं सकते।

                     यहाँ हम कलयुग का या वर्तमान समय से सम्बन्धित कुछ जानने-समझने की कोशिश करेंगे। जैसा कि हमने सुना है, पढ़ा है, सतयुग में लोग बिल्कुल सभी कार्य सत्य पर आधारित करते थे। सत्य में शक्ति तो है, तभी तो आज कलयुग में भी महात्मा गाँधी हमारे बीच अमर है और प्रेरणा के स्त्रोत बने हुए हैं, जिन्होंने अपने जीवन का आदर्श सत्य एवं अहिंसा को बनाया। महात्मा गाँधी ने सत्य का अविष्कार नहीं किया है, बल्कि सत्य का उन्होंने अपने जीवन में इस्तेमाल किया है। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि हम सभी, जो शास्त्रों में लिखा है, संत-महात्माओ की वाणी, को अगर हम अपने जीवन में शामिल करें, तो शुरू में हमें थोड़ी परेशानी तो जरूर होगी, पर बाद में हमें अपार सुख-शांति मिलेगी और सफलता हमारे कदम चूमेगी।

                     कलयुग का संधि-विच्छेद - कल+युग = कलयुग है। कल को हम आम बोलचाल की भाषा में मशीनरी भी मान सकते हैं, युग यानी लम्बा समय। कलयुग में जो आप देख रहे हैं, इसमें कितना विकास हो रहा है। मशीनरी और टेक्नोलाॅजी इंसान के हर क्षेत्र में शामिल हो रहा है या हो गया है, यहाँ तक कि इंसानी क्रियाकलापों में भी मशीनों को शामिल किया जा रहा है। मशीनें मानव सभ्यता का हिस्सा बनते जा रही हैं। भविष्य में हो सकता है, यह मानवता पर पूर्ण हावी हो जाये, तब कलयुग का कालक्रम (समय) पूर्ण होगा, जैसा कि त्रेता और द्वापर युग का हुआ था। किसी भी कार्यकाल में वस्तु या सभ्यता का जब पूर्ण विकास हो जाता है, तो उसका ह्रास या विनाश निश्चित है। इसे छोटे स्तर पर आप अपने घर या पड़ोसी के घर को देखकर सहज अनुमान लगा सकते हैं।

                       यहाँ मैं आपको बता दूँ कि मैं विकास का विरोधी नहीं हूँ या विकास को बुरा नहीं मानता। समय के अनुसार तो हमें चलना ही पड़ेगा, तभी हम अपना अस्तित्व बचा सकेंगे, अन्यथा हम बहुत पीछे रह जायेंगे। क्या कभी किसी बीज ने यह सोचा होगा या उसका यह सोचना सही होगा कि उसे अंकुरित नहीं होना चाहिए और फिर पौधा तथा पौधा से वृक्ष नहीं बनना चाहिए, नहीं तो उसका ह्रास या विनाश हो जायेगा। यही बात हमारे साथ और समय के साथ भी लागू होती है।

                           कलयुग को हम समय के रूप में भी ले सकते है। कल यानी आने वाला समय, युग यानी लम्बा समय। कल को अभी तक किसी ने नहीं देखा है, पर सभी उसके अच्छा और सुखद होने की कामना करते हैं। इसके नाम के अनुरूप ही हमें कार्य भी करना चाहिए, जैसा की रहीम जी ने कहा है -

                         ’कल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
                         पल में परलय होएगी, बहुरी करेगा कब।।’

                      कलयुग = कल + युग, इसमें कल आने वाला और बीता हुआ समय, दोनों का बोध कराता है। हमें अपने अच्छे कल के लिए बीते हुए कल से सीख लेनी चाहिए और सामंजस्य बैठाकर आगे बढ़ना चाहिए। सीखने के लिये हमारे पास अपना इतिहास है, धर्म-शास्त्र है। इनके घटना-क्रम पर हमें ध्यान देना चाहिए। घटना-क्रम के जो परिणाम सामने आते हैं, उसी के अनुसार हमें अपना व्यवहार करना चाहिए।

                         हमारे पास वर्तमान में इतना समय नहीं है कि एक आम आदमी अपनी जीविका चलाते हुए धर्म-शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन कर सके, फिर उसके अनुसार कर्म या व्यवहार करे। लेकिन सभी का, विशेषकर समाज में जो विशेष लोग हैं, उनका यह धर्म और कत्र्तव्य बनता है कि वे शास्त्र अनुकूल आचरण करे और लोगों को उसके लिए प्रेरित करें।

                           यहाँ मैं धर्म पर थोड़ा ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। धर्म का अंग्रेजी शब्द रिलीजन (त्मसपहपवदद्ध है, पर यह हमारे समझ से सही नहीं है। रिलीजन का हिन्दी रूपान्तर सम्प्रदाय है। सम्प्रदायऔर धर्म में वही अंतर है, जो जमीन और आकाश में है, दोनों एक नदी दो पाट की तरह हैं। सनातन (हिन्दू) धर्म ग्रंथों में चर्चा के अनुसार हम धर्म को किसी सम्प्रदाय से नहीं जोड़ सकते। मानवता एवं रिश्ते के अनुसार एक का दूसरे के प्रति जो कर्त्तव्य  बनता है, उसे उसका धर्म कहते हैं। लेकिन जिस आसानी से हमने कह दिया, धर्म इतना ही नहीं है। इसकी महिमा अपरम्पार है यानी यह एक ऊमभत गाछी की तरह है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति को नीला आकाश दूर से धरातल को छूता हुआ प्रतीत होता है और वह उसे छूने के लिए आगे बढ़ता है, वहाँ पहुँचते-पहुँचते उसकी मंजिल और आगे होती जाती है। इससे आप यह नहीं समझें कि धर्म के अनुरूप आचरण हम नहीं कर सकते। इसका अभिप्राय यह है कि जब हम धर्मानुसार आचरण और अपना कर्Ÿाव्य निभाते हैं, तो धरातल की तरह गम्भीर, शीलवान और मजबूत बन जाते हैं और आकाश की तरह विशाल, जो अपने-आप में लोगों के लिए जिज्ञासा की विषय-वस्तु संजोता है, जिसे लोग पाना चाहते हैं। धर्म तो धर्म है, धर्म कभी बुरा नहीं हो सकता।

                      यहाँ हम पुनः द्वापर युग में यानी महाभारत काल में लौटते हैं। हम महाभारत की कुछ छोटी कहानियों की संक्षिप्त में चर्चा करेंगे।

                       जब हम कोई नियम बनाते हैं और उसका पालन करते रहते है, तो वह हमारे अंग-अंग में रच-बस जाता है। जब उसे तोड़ते हैं, तो उसके बहुत बुरे परिणाम सामने आते हैं। उदाहरण स्वरूप, जब किसी नदी पर बिजली उत्पादन या सिंचाई के लिए हम उस पर बाँध बनाते हैं एवं उसके प्रवाह को रोक या कम कर देते हैं, लेकिन जब किसी कारणवश बाँध टूटती है, तो हमारे सामने वह भयावह दृश्य उत्पन्न करती है। यही सिद्धांत महाभारत को आवश्यक बनाती है। ठीक ही कहा गया है, सभ्यता के विकास में ही उसके विनााश का बीज छुपा होता है।

                        आप सभी जानते होंगे की महर्षि कृष्ण द्वापायन का जन्म कैसे हुआ, शान्तनु ने क्या किया, द्रोण का जन्म कैसे हुआ, उन्होंने एकलव्य के साथ शिष्य के नाम पर क्या किया ? धृतराष्ट, पाण्डु और विदुर का जन्म कैसे हुआ ? भीष्म पितामह (देवव्रत) कौन थे, उसके बाद कर्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव का जन्म कैसे हुआ ? भले ही ये अपने आनुवंशिक गुण और अपने कर्म द्वारा सभ्यता के विकास को चरम पर ले गये, लेकिन सभी ने अपने बनाये हुए नियम को तोड़ा। यहाँ अपना यानी खुद से नहीं है, बल्कि उससे है, जिसके आधार पर वे चलते थे। परिणाम तो निकलना था, जो निकला, जगजाहिर है। नवयुग कलयुग का आगमन हुआ। कलयुग के साथ भी यही होगा और आगे होता रहेगा। समय चक्र, चक्र की तरह अपने धुरी पर चलता रहेगा। इसलिए हमें ऐसा आचार-व्यवहार रखना चाहिए, जो हमें सुख-शांति के साथ समाज एवं इतिहास में आदर्श प्रस्तुत करे।
                       
                      एक बार की बात है, दुर्योधन युधिष्ठिर के पास इनके बुलावे पर इन्द्रप्रस्थ गया था। जब वह महल में प्रवेश कर रहा था, तो उसके निर्माणकला के आगे वह मंत्र-मुग्ध सा हो गया था और आगे बढ़ रहा था। उसे एक दासी ने टोका, युवराज आगे पानी है। उसने सोचा हमसे रानी निवास की दासी भी मजाक कर रही है। उसे अर्थात् दुर्योधन को आगे फूलों का रंगोली दिखाई दे रही थी, जो दृष्टि-भ्रम था। महल के सतह की कुछ ऐसी बनावट थी, जिसमें सतह के स्थान जल और जल के स्थान पर स्थल दिखता था। इसी भ्रम में दुर्योधन पड़ गया और आगे बढ़ गया तथा पानी में जा गिरा। वहीं ऊपर में द्रौपदी अपने बाल सुखा रही थी, ठठाकर हंस पड़ी। उसके मुख से परिहास निकला - अंधे का पुत्र अंधा। यह बात दुर्योधन के कानों द्वारा उसके दिल में उतर गया और उसे बहुत दुःख हुआ। वह वहाँ से जब हस्तिनापुर वापस गया, उदास रहने लगा। ज्यादा समय वह अपने निवास में ही व्यतीत करता, अपनी तरफ से भी वह लापरवाह रहने लगा। हर समय चिन्तित रहता। यह खबर ध् ाृतराष्ट्र के पास भी पहुँच गई। धृतराष्ट्र ने कारण जानना चाहा, पर उसने नहीं बताया। फिर धृतराष्ट्र ने उसे अपने कक्ष में बुलाया और उसे वचन दिया कि उसके दिल पर पड़े बोझ को कम करने में वह जरूर मदद करेंगे। फिर दुर्योधन का मुख खुला और उसने महाराज से वचन लिया कि वह उससे यानी द्रौपदी से इसी राज्यसभा में अपने अपमान का उसी अंदाज में बदला लेगा। इसके प्रतिशोध स्वरूप षड़यंत्र रचा गया एवं जुए का आयोजन हुआ, जिसके परिणाम से आप सभी भलि-भाँति परिचित हैं। भीम ने दुर्योधन के रक्त से द्रौपदी के बाल धोने की कसम ली। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमें कभी भी किसीका, चाहे उसके साथ हमारा  कोई रिश्ता हो अथवा नहीं, ऐसा परिहास नहीं करना चाहिए, जो उसके दिल को ठेस पहुँचाये। परिहास करने में हमेशा संयमित वचन का इस्तेमाल करना चाहिए। द्रौपदी का वह एक वचन कितना बड़ा परिणाम लेकर आया, ये आप सभी जानते ही हैं। महाभारत में एक बात और ध्यान देने वाली है, सभी ने कुछ-न-कुछ प्रतिज्ञा ली है तथा खुश होकर एक-दूसरे को आर्शीवाद स्वरूप वचन दिया है। मनुष्य को अनावश्यक वचनबद्ध भी नहीं होना चाहिए। क्रोधित होने पर अनावश्यक कोई प्रतिज्ञा या निर्णय नहीं लेना चाहिए, उसी प्रकार हर्ष या खुशी में अनावश्यक वचनबद्ध नहीं होना चाहिए। दोनों हीस्थिति भयावह और खतरनाक है।

                       वेद शब्द का अर्थ ’ज्ञान’ है। वेद पुरूष के शिरोभाग को उपनिषद् कहते हैं। उप का अर्थ ‘व्यवधान रहित’, नि का मतलब‘सम्पूर्ण’ एवं षद् का अर्थ ‘ज्ञान’ अर्थात् उपनिषद् का अर्थ हुआ -व्यवधान रहित सम्पूर्ण ज्ञान। 
अब तक ज्ञात कुछ महत्त्वपूर्णउपनिषदों की सूची -
(1) ईशावास्योपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदिय)
(2) अक्षिमाालिकौपनिषद् (ऋग्वेदिय)
(3) अथर्वशिखोपनिषद् (सामवेद)
(4) अथार्वशिर (सामवेद)
(5) अ्रयतारकोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदिय)
(6) अद्वैतोपनिषद्
(7) अद्वैतभावनोपनिषद्
(8) अध्यात्मोमनिषद् (शुक्लयजुर्वेदिय)
(9) अनुभवसारोपपनिषद्
(10) अन्नपूर्णोपनिषद् (सामवेद)
(11) अमनस्कोपनिषद्
(12) अमृत्तनादोपनिषद् (कृष्णयजर्वेदीय)
(13) अमृतबिन्दूपनिषद् (ब्रह्मविन्दूपनिषद) (कृष्णयजुर्वेदीय)
(14) अरूणोपनिषद्
(15) अल्लापनिषद्
(16) अवधाूतोपनिषद् (वाक्यात्मक) एवं पद्यात्मक
(17) अवधूतोपनिषद् (पद्यात्मक)
(18) अल्यक्तोपनिषद् (सामवेद)
(19) आचमनोपनिषद्
(20) आत्मपूजोपनिषद्
(21) आत्मप्रबोधनोपनिषद् (आत्मबोधोपनिषद्) (ऋग्वेदीय)
(22) आत्मोपनिषद् (वाक्यात्मक) (सामवेद)
(23) आत्मोपनिषद् (पद्यात्मक)
(24) आथर्वणद्वितीयोपनिषद्
(25) आयुर्वेदोपनिषद्
(26) आरूणिकोपनिषद् (आरूणेभ्युपनिषद्) (सामवेद)
(27) आर्षेयोपनिषद्
(28) आश्रमोपनिषद्
(29) इतिहासोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
(30) इसावास्योपनिषद् उपनषत्स्तुति
(शिव रहस्यान्तर्गत, अभी तक अनुपलब्ध है)
(31) ऊध्वर्पण्ड्रोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
(32) एकक्षरोपनिषद् (कृष्णयर्जुर्वदीय)
(33) ऐतेरेयोपनिषद् (अध्यायात्मक) (ऋग्वेदीय)
(34) ऐतेरेयोपनिषद् (खन्डात्मक)
(35) ऐतेरेयोपनिषद् (अध्यात्मक)
(36) कठरूद्रोपनिषद् (कण्ठोपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)
(37) कठोपनिषद्
(38) कठश्रृव्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(39) कलिसन्तरणोपनिषद् (हरिनानोपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)
(40) कात्यामनोपनिषद्
(41) कामराजकीलितोद्रारोपनिषद्
(42) कालाग्निरूद्रोपनिषद् (कृष्णाजुर्वेदीय)
(43) कालिकोपनिषद
(44) कालिमेधादीशितोपनिषद्
(45) कुण्डिकोपनिषद् (सामवेद)
(46) कृष्णोपनिषद् (सामवेद)
(47) केनोपनिषद् (सामवेद)
(48) कैवल्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(49) कौलोपनिषद्
(50) कौपीतकिब्राह्मणोपनिषद! (ऋग्वेदीय)
(51) क्षुरिकोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(52) गणपत्यथर्वशीषोपनिषद् (सामवेद)
(53) गणेशपूर्वतपिन्युपनिषद् (वरदपूर्वतापिन्युपनिषद्)
(54) गणेशोक्तारतमेन्युपनिषद् (वरदोत्तरतापिन्य युपनिषद्)
(55) गर्भोपपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)।
(56) गन्धर्वोपनिषद्
(57) गायग्युपनिषद्
(58) गायत्रीर ह्नस्योपपनिषद्
(59) गारूडोपनिषद्  (वाक्याात्मक एवं मन्त्रात्मक) (सामवेद)
(60) गुह्मकाल्युपनिषद्
(61) गह्मषोदान्यासोपनिषद्
(62) गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद्
(63) गोपालोत्त रतापिन्युपनिषद्
(64) गोपीचन्दनोपनिषद्
(65) चतुर्वेदोपनिषद्
(66) चाक्षुषोपनिषद्
(चक्षरूपनिषद् चक्षुरोगोपन उपनिषद्, नेत्रोपनिषद्)
67) चेन्त्युपनिषद्
(68) छागलेयोपनिषद्
(69) छान्दोग्योपननिषद् (सामवेद)
(70) जाबालोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
(71) जाबालदर्शनोपनिषद् (सामवेद)
(72) जाबाल्युपनिषद् (सामवेद)
(73) तारसारोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
(74) तारोपनिषद्
(75) तराायातीतोपनिषद् (तीतावधतो) (शुक्ल्यजुर्वेदीय)
(76) तुरीयोपनिषद्
(77) तलस्युपनिषद्
(78) तेजोबिन्दुपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(79) तैत्तरीयोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(80) त्रिपादविभूतिमह्मानारायणोपनिषद् (सामवेद)
(81) त्रिपुरातापिन्युपनिषद् (सामवेद)
(82) त्रिपुरोपनिषद् (ऋग्वेदीय)
(83) त्रिपुरामह्नोपनिषद्
(84) त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
(85) त्रिसुपर्णोपनिषद्
(86) दक्षेणामूरर्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(87) दत्तात्रेयोपनिषद् (सामवेद)
(88) दत्तोपनिषद्
(89) दुर्वासोपनिषद्
(90) (क) देव्युपनिषद् (पद्यात्मक एवं मंत्रात्मक) सामवेद
(ख) दव्युपनिषद (शिवरहस्यान्तर्गत अनुपलब्ध)
(91) दूयोपनिषद्
(92) ध्यानविन्दुपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(93) नादविन्दुपनिषद् (ऋग्वेदीय)
(94) नारदोपनिषद्
(95) नारदपरिब्राजकोपनिषद् (सामवेद)
(96) नारायणपूर्वतापिन्युपनिषद्
(97) नारायणोतरतापिन्युपनिषद्
(98) नाारायणोपनिषद् (नरायणा  वर्शीर्ष)
(कृष्णयजुर्वेदीय)
(99) निरालम्बोपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय)
(100) निरूक्तोपनिषद्
(101) निर्वाणोपनिषद् (़ऋग्वेदीय)
(102) नीलरूद्रोपनिषद्
(103) नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद्
(104) नृसिंहषटचक्रोपनिषद्
(105) नृसिंहोचरतापिन्युपनिषद् (सामवेद)
(106) पंचब्रह्मोचरतापिन्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(107) परब्रह्मपनिषद् (सामवेद)
(108) परमहंसपरिब्राजकोपनिषद् (सामवेद)
(109) परमहंसोपनिषद् (शुक्लयजुवेदीय)
(110) पारमात्मिकोपनिषदृ
(111) पारायणोनिषद्
(112) पाशुपतब्राह्मोपनिषद् (सामवेद)
(113) पिण्डोपनिषद्
(114) पीताम्बरोपनिषद्
(115) पुरूषसूक्तपनिषद्
(116) पैड़गलोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
(117) प्रणवोपनिषद् (पद्यात्मक)
(118) प्रणवोपनिषद् (वाक्यात्मक)
(119) प्रश्रोपनिषद् (सामवेद)
(120) प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(121) बटुकोपनिषद् (बटुकोपनिषध)
(122) बह्नचोपोपनिषद् (ऋग्वेदीय)
(123) बाष्क्लमन्त्रोपनिषद्
(124) बिल्वोपनिषद् (पद्यात्मक)
(125) विल्वोपनिषद् (वाक्यात्म)
(126) बृह्नज्जावालोपनिषद (सामवेद)
(127) बृह्नदारण्याकोपनिषद् (शुक्लययजर्वेदीय)
(128) ब्रह्मविद्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(129) ब्रह्योपनिषद् (कृष्णयजुवेदीय)
(130) भगवद्वीतोपनिषद्
(131) भवसंतरणाोपनिषद्
(132) भस्मजाबालोपनिषद् (सामवेद)
(133) भावनोपनिषद् (कापिलोपनिषद्) (सामवेद)
(134) भिक्षुकोपनिष (शुक्लयुजुर्वेदीय)
(135) मठाम्नयोपनिषद्
(136) मण्डलब्राह्मणोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
(137) मन्त्रिकोपनिषद् (चूलिकोपनिषद्) (शुक्लयजुर्वेदीय)
(138) मल्लायुपनिषद्
(139) महानारायणोपनिषद्
(बृहन्नारायणोपनिषद्, उŸार नारायणोपनिषद्)
(140) महावायोप्पनिषद्
(141) महोपनिषद् (सामवेद)
(142) माण्डक्योपनिषद् (सामवेद)
(143) माण्डक्योपनिषत्कारिका(क) आगम
(ख) अलातशान्ति
(ग) वैतथ्या
(घ) अद्वीत
(144) मुक्ततिकोपनिषद् (शुक्लयजुवेद)
(145) मुण्डकोपनिषद् (सामवेद)
(146) मद्रलोपनिषद् (ऋग्वेदीय)
(147) मृत्युलाङगूलोपनिषद्
(148) मत्रायव्युपनिषद् (सामवेद)
(149) मत्रेण्युपनिषद् (सामवेद)
(150) यज्ञोपवीताोपनिषद्
(151) याज्ञवल्क्योपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
(152) योगकुण्डल्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(153) योगचूडामण्युपनिषद् (सामवेद)
(154) योगतत्त्वोपनिषद्-1
(155) योगतत्त्वोपनिषद्-2
(156) योगराजोपनिषद्
(157) योगशिखोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(158) योगोपनिषद्
(159) राजश्यामलार हस्योपनिषद्
(160) राधाकोपनिषद् (वाक्यात्मक)
(161) राधोकोपनिषद् (प्रश्न पाठक)
(162) रामपूर्वत (सामवेद)
(163) रामस्योपनिषद् (सामवेद)
(164)       रामोत्तर  रताप्पेन्यापनिष
(165) रूद्रहदयोपनिषिद्् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(166) रूद्राक्षजाबालेपननिषद् (सामवेद)
(167) रूद्रोप्पनिषद्
(168) लक्ष्म्युपनिषद्
(169) लाङगूलोपनिषाद्
(170) लिङगोपनिषद्
(171) बज्रपज्जजरोपनिषद्
(172) बज्रसूचिकोपनिषद् (सामवेद)
(173) वनदुर्गोपनिषद्
(174) बराहोपनिषद् (कृष्णय्यजवेदीय)
(175) वासुदेवोनपिषद् (सामवेद)
(176) विश्रामोनिषद
(177) वोषणुहदयोपनिषद्
(178) शरभोपनिषद् (सामवेद)
(179) शाटयायन्योपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदी)
(180) शाण्डेल्यपनिषद (सामवेद)
(181) शरीरकोपनिषद् (कृष्णयजुर्वदीय)
(182) शिवसड्क्ल्पोनिषद्-1
(183) शिवसड्क्ल्पोनिषद्-2
(184) शिवोपनिषद्
(185) शुकरहस्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(186) शौनकोपनिषद्
(187) श्याम्योपनिषद्
(188) श्री कृष्णपुरुषोत्तम     सिद्धान्तोपनिषद्
(189) श्रीच्चक्रकरोपनिषद्
(190) श्री विद्यततारकपनिषद्
(191) श्री सूक्तमूक्त श्रीस
(192) श्रवेताश्रृतरोपनिषद् (कृष्णयुजर्वेदीय)
(193) षोदोपनिषद
(194) सड्क्रणोपनिषद्
(195) सदानन्दोपनिषद्
(196) सन्यासोपनिषद् (अध्यायात्मक) (सामवेद)
(197) सन्यासोपनिषद् (वाक्यात्मक)
(198) सरस्वतीरहस्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(199) सर्वसारोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(200) सह वै उपनिषद्
(201) संहितोपपनिषद्
(202) सामरहस्योपनिषद्
(203) सावित्र्युपनिषद (सामवेद)
(204) स्सेद्रान्तविठ्ठलोपनिषद्
(205) स्सेद्धान्तशिखाोपनिषद्
(206) स्सेद्धान्तसाारोपनिषद्
(207) सीतोपनिषद् (सामवेद)
(208) सुदर्शनोपनिषद्
(209) सुबालोपनिषद (शुक्ल्यजुर्वेदीय)
(210) समुख्यपनिषद्
(211) सूर्यतापिन्युपनिषद्
(212) सूयोपनिषद् (सामवेद)
(213) सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद् (ऋग्वेदीय)
(214) स्कन्दोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
(215) स्वसंवेधोपनिषद्
(216) हयग्रीवोपनिषद् (सामवेद)
(217) हंसषोढोपनिषद्
(218) संसोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)
(219) हेरम्बोपनिषद्
(220)श्री विद्यततारकपनिषद्


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