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शनिवार, 26 दिसंबर 2015

* भाई बना भतार *

                   शीर्षक देख आपके मन में पहला विचार आएगा, ऐसा कैसे हो सकता है। यह सच नहीं हो सकता वो भी हमारी भारतीय संस्कृति में। लिखने वाला जरूर मानसिक बीमारी से ग्रस्त होगा पर यह झूठ नहीं है। ऐसी वारदात आपके आस-पास भी घटित हुई होगी पर आप इसे महसूस नहीं किया होगा। हमने किया है। मैं इसे कलमबंद इस लिए कर रहा हूँ ताकि लोग इस समस्या को समझ सके और किसी और अन्य को इस मानसिक दबाव से न गुजरना पड़े। इसके निदान पर ध्यान दे। अगर अगर यह शीर्षक और यह घटना झूठा है तो सचमुच यह किसी मानसिक रोगी के मस्तिस्क का उपज है।

                 मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ बंधुत्व, भाईचारा का माहौल रहा है। एक समय ऐसा भी था जब हमारा थाना+प्रखण्ड+ अंचल सन्देश नरसंघार के लिए राष्टीय क्या अन्तराष्टिय स्तर पर बदनाम था। इसी क्षेत्र में मेरा पंचायत भी आता है। यहाँ भी कुछ असामाजिक तत्वों ने तनाव फैलाने की योजना बना चुके थे, पर यहाँ यानि हमारे पंचायत और पास के पंचायत के निवासियों ने उस में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। यहाँ उस समय भी और आज भी बंधुत्व की भावना बरकार है। कुछ लोगो के व्यक्तिगत स्तर को छोड़ दे तो यहाँ सामाजिक स्तर पर शान्ति हर समय कायम रहा है। यहाँ की समाज विभिन्न जाती वर्गो एवं विभिन्न समुदायों, सम्प्रदायो से मिल कर बना है। यहाँ सभी लोग एक दूसरे को दीदी, भाया, चाचा-चाची, दादा-दादी या अन्यरिश्तेदारी जोड़ कर आदर सूचक शब्दों के साथ सम्बोधन करते है। 

                 अब मैं आपके सम्मुख उस घटना की चर्चा कर रहा हूँ, जो हमें यह शीर्षक देने को मजबूर किया। ऐसे सभी क्षेत्रों में जाती, सम्प्रदायो का शादी-व्याह के साथ अंतिम संस्कार का अलग-अलग रीतिरिवाज परम्परा है। ऐ सारी परम्परा रीतिरिवाज मानव व्यवहार एवं सोच की उपज हैं। कुछ तो उस समय सुबिधा एवं सहूलियत के लिए बनाई गई जो आज अपना प्रसंगीता खो चुके हैं। लोग आज भी उसे हाथी का जंजीर की तरह ढो रहें हैं। जब हाथी न रहा तो जंजीर ढोने की क्या आवश्यकता। कहा जाता है की किसी के दादा जी के पास एक हाथी था जो बड़ा ही शुभ था पर आज न दादा जी रहें न हाथी तो फिर जंजीर को क्यों ढोते रहा जाए। ऐसे भी आज जंजीर से भी मजबूत बंधन का निर्माण (अविष्कार) हो चूका है साथ ही आज हाथी पालना भी गैरकानूनी और महंगा शौक है। वर्तमान समय बचत का है व्यय का नहीं। 

                    मेरा उम्र उस समय २० वर्ष था। मैं अपना प्रवेशिका की पढाई समाप्त कर केंद्र सरकार का कर्मचारी बन चूका था। जो घटनाक्रम मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ, उस समय मैं अवकाश पर गाँव आया हुआ था। मेरा ज्यादा समय गाँव के चौपाल पर जो आज चट्टी का रूप ले चूका है, वहीं ब्यतीत होता। वहाँ हमें बैठे-बिठाए पुरे जेवर का नई से पुरानी खबर प्राप्त हो जाती। किसका सगाई हुआ, किसकी सगाई टूटी, किसका लड़का क्या कर रहा है। कौन कहाँ गुल खिला रहा है। किसका सितारा चमक रहा है, किसका सितारा गर्दिश में है। कौन डूबता सूर्य बनने वाला है। इसके साथ ही वहाँ बैठे लोग कौन क्या योजना बना रहा है उसका भी पूर्वानुमान लगाने से नहीं चूकते। वहाँ से मेरे घर जाने के रास्ते में एक कुआँ पड़ता था, जो पक्का था, उसके चारों तरफ चौड़ी जगत बनी हुई थी। जो वहाँ के लोगों को बैठने का स्थान प्रदान करती थी। अब उस कुँए का इस्तेमाल पानी के लिए नहीं हो रहा था पर जब उस टोले के बड़े-बूढ़े, बच्चें औरतों किसी को भी खाली समय मिलता तो वह वहीं आ कर बैठता और जो भी भी वहाँ आता उस से गप्पे लगता। एक रोज मैं वहाँ से दिन के करीब ग्यारह बजे गुजर रहा था। वहीं की एक लड़की जिसका नाम मुमताज था। वह हमसे कम से कम ६ वर्ष छोटी होगी। कुँए के जगत पर दोनों पैर मोड़ कर घुटनों के बीच में शिर रख चुप-चाप बैठी कुछ सोच रही थी। मैं वहाँ से गुजर रहा था यानि की उसे पार करने ही वाला था और वह हमें नहीं टोकी तो मैं सोचने लगा क्या बात है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। मैं जब भी गाँव आता हूँ और यह प्रथम बार मिलती है तो प्रणाम(अभिनन्दन) तो अवश्य करती फिर हम दोनों एक दूसरे का कुशल-छेम पूछते थे। ऐसा कभी नहीं हुआ की मैं उसके सामने से गुजर गया और वह कुछ न बोली हो। इन बातों को सोचकर मैं वहाँ रुक गया और उसके तरफ मुर कर पूछा, "क्या बात है मुमताज।" वह हड़बड़ा कर अपने ध्यान से निकली और प्रणाम करते हुए बोली कुछ नहीं और झेंप मिटाने की कोसिस करने लगी। मैं बोला कुछ तो है तभी तो इतना गहरी सोच में डूबी हुई थी। वह बोली आप को क्या बताऊ। मैं बोला नहीं बताव पर जब तक किसी को नहीं बताओगी समस्या का समाधान कैसे निकलेगा। इसी तरह कब तक सोचती रहोगी और चिंता में डूबी रहोगी। मैं फिर एक बार जोड़ दे कर बोला, बता दो। वह बोली "लाज आ रही है।" मैं सोचा लड़की है कुछ आंतरिक बात रही होगी। मेरा दिल फिर नहीं माना, मैं फिर सोचा एक बार पुनः पूछ कर देखता हूँ। मैं कहा ऐसी क्या बात है, चोरी और गलत रिश्ता छोड़ किसी बात के लिए क्या लाज। तुम अगर मुझे अपना भाई मानती हो तो बता। वह शर्माती हुई बोली मेरी निकाह होने वाली है। मैं बोला तो इसमे लाज की क्या बात है सभी का निकाह होता है और कोई परेशानी है क्या ? वह बोली, ऐसी बात नहीं है।मैं बोला तो फिर कैसी बात है। वह बोलने लगी अभी-अभी आपने बोला अपना भाई समझती हो तो बता। आप तो दूसरे जाती, धर्म सम्प्रदाय के हैं फिर भी भाई तो भाई होता है न ! अभी से ही मेरी सहेलियाँ बात बनाना शुरू कर दी हैं। मैं बोला बात क्या है, वह साफ-साफ बता और सहेलियों को छोड़, वह सहेली, सहेली थोड़ी ही है जो अपने सहेली की बात बनाए। वह बोली 'मेरी जिस से निकाह तय हुआ है वह मेरी बुआ जी (खाला) का लड़का है'। मैं बोल पड़ा वही न नवशाद वह तो अच्छा लड़का है। तुम लोगों में तो ऐसी शादियाँ होती ही हैं। वह बोल परी आप भी वही कह दिए न जो सभी कह रहें हैं, पर हमें यह रिश्ता अच्छा नहीं लग रहा, मैं उनका इज्जत करती हूँ अब मैं क्या करू ? मैं पूछा यह बात तू अपने मम्मी-पापा को बताई ? वह बोल पड़ी, वे कहते हैं हमें इतना अच्छा ररिश्ता मिल रहा है, अगर तुम्हे पसन्द नहीं है तो कैसे होगा ? हमारे पास उतनी आय या पैसा नहीं है की हम तुम्हारी शादी दूसरी जगह तय कर सके। मैं बोला अच्छा देखता हूँ, इसमे मैं कुछ कर सकता हूँ या नहीं और मैं वहाँ से चल दिया। मैं रास्ते में सोचता हुआ जा रहा था। इसी बीच हमें हमारे गाँव का ही एक बुजुर्ग का कहावत याद आ गई जो कभी-कभी कहते थे, "भैया जैसा खोजोगे तो कहाँ मिलेगा।" उनके बात से मुझे गजब तरह का अनुभूति हुई पर मैं मुमताज के चिंता पर सोचने लगा। सोचते हुए मेरा घर आ गया और मैं उसके बारे में ही सोचता रहा।

                          अगले दिन मैं घर से बाजार के लिए निकला। मैं उसी रास्ते से निकला जिस रास्ते में मुमताज का घर पड़ता था। संयोग से मुमताज के माता-पिता अपने दरवाजे पर ही बैठे हुए थे।  हम लोगों का आपस में अभिनन्दन हुआ कुशल-छेम पूछा और फिर घर का बात निकल गया। मैं भी मौका अच्छा देखा और बात पर बात बढ़ाता गया। उन्होंने खुद ही अपनी बेटी की निकाह तय होने की बात बताई। मैं अनजान बनते हुए पूछा, कहाँ तय किया तो उन्होंने सब बता दिया। मैं ने उन से पूछा आप ने मुमताज से पूछा, उसे यह रिश्ता पसन्द है या नहीं, आप लोगों में तो लड़की के राजी से ही न निकाह तय होता है। वह बोले बाबू उस से क्या पूछना, यह सब एक रीती रिवाज है। मैं इतना अच्छा रिश्ता  कहाँ से लाऊँगा। मैं उन्हें विभिन्न तरीको से समझाने का प्रयाश किया पर वे हमें ही समझा दिए। मैं अंत में कहा मुमताज अभी छोटी है, शादी से उसके शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ेगा और आपको यह पता ही होगा, अठ्ठारह वर्ष से कम की लड़की का शादी करना गैरकानूनी है। इसके लिए सरकार कितने कार्य-क्रम चला रही है, की इसके बुरे प्रभाव से बचा जा सके। वे बोल पड़े यह सब कहने की बात है। यह बड़े लोगों और शहर में होता है। लड़की पराई अमानत है जितना जल्दी वह अपनी घर जाए अच्छी है। वह कह पड़े काहे का कानून, क्या कानून हमें खाने के लिए और इसके निकाह के लिए पैसा देगी। कौन कितना मदद करेगा, अगर आप भी बड़ा दिल दिखाएंगे तो कुछ हजार का मदद या कर्ज दे देंगे, क्या उस से सब हो जाएगा। बाबू यह दुनियादारी है। गरीबों की जिंदगी तो और भी मुश्किल  है। मैं उनका दलील सुन हक्का-बक्का रह गया और मैं फिर बाजार के लिए प्रस्थान किया।

                       अगले दिन मैं उसी चौपाल पर बैठा था। जिसका हमने पहले चर्चा किया था। हमारे साथ और कई लोग भी थे जो हम से उम्र में बड़े थे। मैं बात-बात में यह बात निकाल दिया। मैं उन लोगों से पूछ बैठा यह शादी कैसे रुकवाई जा सकती है। उन लोगों ने हम सर मजाक कर दिया वे लोग बोले क्या बात है? कहीं कोई चककर-वककर तो नहीं। मैं उन लोगों को सही बात बता दिया और कहा मैं उस लड़की का मदद करना चाहता हूँ। अगर इसकी शिकायत थाना में कर दिया जाए की लड़की का उम्र (उमर) कम है। वह अभी नवालिक है। उसके अभिभावक जबरजस्ती बिना उसके इच्छा के शादी करा रहे है तो कैसा होगा। उसकी शादी तो रुक जाएगी। वहाँ के सभी लोग हमें डाटने लगे और कहने लगे तू पागल हो गया है। 
ऐसा भूल कर भी नहीं करना। यह शहर नहीं है। तुम सरकारी नौकरी करोगे या थाना कचहरी (न्यायालय) का चक्कर काटोगे। आज उस लड़की के बारे (विषय) में सोच रहे हो, कल वही तुम्हारे खिलाफ हो जाएगी।  उसे जब  थाना और कचहरी जाना पड़ेगा तथा उसके अभिभावक एवं रिश्तेदार जब उस पर दबाव बनाएंगे तो वह टूट जाएगी। तुम अगर ऐसा करते हो तो इसका असर बड़ा लम्बा-चौड़ा दूर तक होगी। कुछ लोग तो इससे साम्प्रदाइक सौहार्द बिगारने का भी प्रयाश करेंगे तुम्हे उसके नाम के साथ घसीटकर बदनाम करेंगे। उसके घर और रिश्तेदारवाले तुम्हारे कटर (जानी) दुश्मन हो जाएंगे। वे सिर्फ तुमसे ही नहीं तुम्हारे वशंज, आद-औलाद से भी दुश्मनी निभाएंगे। कहा गया है "सौ दोस्त बनाओ पर एक दुश्मन मत बनाओ।" संक्षेप में कहु तो यहाँ सम्पूर्ण समाज तुम्हारे खिलाप हो जाएगी। तुम्हारे साथ वही कहावत चरितार्थ होगी 'आ बैल मुझे मार।' मैं बोला ठीक है। हँस कर मैं अपना तनाव को कम करते हुए कहा, मैं तो बस यु ही पूछ रहा था की इस प्रकार के हालत या स्थिति पर आप लोगों की क्या राय हैं। अभी तक तो मैं मुमताज की चिंता पर चिंतित था अब मुझे अपने आप पर दया आने लगी। अपनी स्थिति एवं समाज की संरचना पर सोचने को मजबूर हो गया। 

                      अब मेरे अंतः मन में कई प्रश्न उठने लगे। आखिर यह ताना-बाना किसकी बुनी हुई है। मुमताज भी तो  उसी सम्प्रदाय की है, फिर उसे इस प्रकार के रिश्ता से क्यू गुरेज है। वह मिश्रित समाज में पली-बढ़ी है शायद इसलिए ! वह अगर सिर्फ उसी सम्प्रदाय के लोगों के बीच पली-बढ़ी रहती तो शायद उसे इस प्रकार के रिश्ते से इतना झिझक नहीं होती। इस घटनाक्रम से हमारे मन की एक बात साफ हो गई, अगर हमें सम्प्रदायों के मिथक को तोडना है तो संयुक्त समाज के रचना के साथ नवयुवकों एवं नवयुवतियों की भावना को समझते हुए उनके अच्छे विचारों को आदरपूर्वक आगे बढ़ाना होगा। कुछ समय के लिए मैं उस रास्ते से जाना छोड़ दिया था। मैं उसे किसी प्रकार से मदद नहीं कर सका तो मैं उसका सामना कैसे करता, यह मेरे अंतः मन का आवाज था। वह हमारे बारे में क्या सोचती थी यह हमें नहीं मालूम। उस रोज जब मैं उसके पिता जी से बात कर रहा था तो शायद वह सभी बातों को सुन चुकी थी। उसके हाव-भाव से लगा की वह हम पर दया कर तरस खा रही है। उसने फिर कभी भी इस पर बात नहीं की।

                      समय ब्यतीत होता गया। वह आज बाल-बच्चेदार हो चुकी है। वह एक रोज मुझ से मिली तो हँस कर बात की और कुशल छेम पूछी तो मेरा मन थोड़ा हल्का महसूस किया। मैं मन ही मन कहा चलो, लगता है यह इस रीती-रिवाजो से सामंजस्य कर चुकी है, जो अच्छा ही है। वह जाने लगी तो उसे मैंने टोका, वह पुनः मेरे तरफ मुड़ी, मैंने कहा, देखो जो हमें अच्छा न लगता हो शायद दूसरे को भी वह अच्छा न लगे, पर यह जरुरी नहीं है। तुम उनका ख्याल रखना। वह शायद मेरा कहने का मतलब समझ गई होगी। वह सिर हिलाती हुई बोली जी...... नमस्कार। 

                    

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