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रविवार, 17 जनवरी 2016

* विचार *

                       "विचार" के आधार पर समाज का निर्माण होता है। कुछ अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे। विचार शून्य समाज की हम कल्पना नहीं कर सकते। विचार के आधार पर अनेको संघ एवं पार्टियाँ बनती हैं और बनी भी हैं, जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष एवं प्रयत्न करती हैं और कर रही हैं। विभिन्न विचारों से ही समाज को विभिद्धता (विभिन्नता) मिलती है। विभिद्धता समाज को रोचक एवं प्रयत्नशील बनाती है। विचार में बहुत सारे गुण हैं, पर आज समाज में विचार के नाम पर जो कटुता आ रही है वह अति अशोभनिए एवं चिंतनीए है। आज लोग विचार को ढाल बना कर अपनी तुक्ष्य स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए तुक्ष्य हरकत कर रहें हैं। लोग आज जब भी किसी से किसी भी आधार पर अलग होते हैं तो उसका दोश  सीधे विचार पर मढ़ देते हैं। वे कहते हैं -'मेरा उनका विचार नहीं मिलता'। वे यह क्यूँ नहीं कहते की मेरा उनका स्वार्थ नहीं मिलता या उनके साथ या उनसे मेरा स्वार्थ सिद्धि नहीं हो रहा। लोग अपना सम्पूर्ण दोष बेचारी विचार पर मढ़ देते हैं। 

                       वर्तमान में लोग घर-परिवार, रिश्ते-नाते , व्यक्तिगत सम्बन्ध को तोड़ने के लिए भी विचार का सहारा ले रहें हैं और विचार को बदनाम कर रहें हैं। माना विचार के आधार पर संघ-संघठन,पार्टी का निर्माण करते हैं पर परिवार का क्या ? जहाँ हम जन्म लेते हैं। माना परिवार भी एक सामाजिक संघठन है। इसका मुख्य आधार संस्कार, रीती-रिवाज, सहयोग, त्याग एवं रक्त सम्बन्ध है। कुछ लोग विचार को आधार बना कर परिवार से अलग हो रहें हैं। चलो यह भी ठीक है की उनका वहाँ विचार नहीं मिलता और वे अलग रहते हैं, पर वे उनके सुख-दुःख से भी मुख मोर लेते हैं। क्या उनका यही विचार है ? नहीं, उनका यह स्वार्थ है। यह उनका पशुता है। 

                           लोग पार्टी, संघ, संगठन को भी परिवार के नाम से पुकारते हैं यहाँ तक की राज्य देश के लिए भी परिवार शब्द का इस्तेमाल करते हैं, पर वे न  आज तक परिवार को सही से समझ सके न किसी के विचार को। अगर ऐसा नहीं होता तो लोग अवश्य एक दूसरे के सुख (खुशी) से ख़ुशी एवं दूसरे के दुःख दर्द से दुखी होते, पर ऐसा नहीं हैं। हमारी सभ्यता, संस्कृति में विश्व (जगत) को परिवार बताया गया है। यह कोई नई बात नहीं है। भारतीय शास्त्रों में "वसुधैव कुटुम्कबम्" की अवधारणा बहुत पहले ही विकशित हो चुकी थी, जो आज संकुचित हो गई है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है की जो लोग या व्यक्ति जब अपने छोटे परिवार से भी विचार को आधार बना कर उससे बिलकुल अलग हो जाता है। उस परिवार से उसे कोई सारोकार नहीं होता तो वह एक बड़े परिवार में विचार के आधार पर कैसे टिक सकता है। वह वहाँ विचार के आधार पर कैसे टिक सकता है। वह वहाँ विचार के आधार पर नहीं अपने स्वार्थ के आधार पर टिका रहता है।

                           आपको पहले विदित हो ही चूका है की विश्व एक परिवार (वसुधैव कुटुम्बकम्) की आवधारणा भारतीय जनमानस में बहुत पहले से संचार कर रही है। आज जो लोग विचार को ढाल बना कर परिवार को तोड़ रहें हैं, उनके समक्ष एक ऐसे परिवार का उदाहरण प्रस्तुत करने जा रहा हूँ, जिसके प्रत्येक सदस्यों के सान्निध्यों का विचार नहीं प्राकृतिक स्वभाव एक दूसरे का बिलकुल बिरोधी है, भिर भी वे एक परिवार से बंधे हुए हैं। उनके परिवार का मुख्य आधार एक दूसरे के प्रति सम्मान, समाज कल्याण है जो एक विचार का रूप है। इस परिवार का प्रत्येक सदस्य भारतीय सभ्यता संस्कृति में पुजनिए हैं। भारतीय सभ्यता संस्कृति से तालुक (सम्बन्ध) रखने वाला हर सदस्य इनसे परिचित है। लगभग सभी शास्त्रों एवं ग्रंथो में इनके परिवार के किसी न किसी सदस्य का किसी न किसी रूप में वर्णन मिल ही जाता है। आपके मन में विचार उठ रही होगी आखिर वह कौन सा परिवार है, जिसके सन्निध्यों का एक दूसरे के प्रति विपरीत प्राकृति स्वभाव है फिर भी वे एक पिरवार के रूप में हैं, तो आप को बता दूँ वह परिवार है शिव परिवार। इस परिवार का वर्णन हम संक्षिप्त में निचे प्रस्तुत करेंगे।
                          'शिव परिवार' शिव जी विभिन्न नमो से जाने जाते हैं, शंकर जी, भोले दानी, मृत्युंजय, भूतनाथ, महादेव, औघरदानी, महाकाल, नीलकंठ आदि-आदि। इनके गले में सांप की माला है तो सान्निध्य और वाहन नंदी जो एक बैल का रूप है। इनकी पत्नी पार्वती, गौरी, शक्ति शिवा हैं, जिनकी सान्निध्य सवारी बाघ है। इनके पुत्र गणेश और कार्तिक्य हैं। गणेश का सान्निध्य वाहन (सवारी) मूष  (चूहा) है। कार्तिक्य का सान्निध्य वाहन मोर है। अब यहाँ देखने वाली बात है की, मूष का शत्रु सांप है। सांप का शत्रु मोर है। बैल का शत्रु बाघ है। शत्रु क्या ए एक दूसरे का प्राकृति द्वारा प्रदत भोजन (आहार) हैं . .जब ए इतने विपरीत परिस्थिति एवं विपरीत स्वभाव के सन्निध्यों के साथ में भी परिवार के रूप में रह सकते हैं तो हम आप क्यूँ  नहीं ? इनका परिवार हमारी संस्कृति सभ्यता एवं सोच का उपज है। हमें इनके आदर्शों को ग्रहण करना चाहिए।

                          अब सोचने एवं मनन करने वाली बात यह है की लोग वर्तमान में छोटी-छोटी बातों को बड़ी समस्या बना कर विचार का हवाला दे कर एक दूसरे से या अपनो से दुरी बना रहें। इसका मुख्य कारण स्वार्थ, संकुचित मन और विकृत मनोदशा है।

                           विचार तोड़ने नहीं जोड़ने का कार्य करता है। आपने देखा की शिव परिवार विचार को आधार बना कर ही एक है। इनका विचार है लोक कल्याण, सदभावना, प्रस्पर आदर प्रेम। अब आप कहेंगे, कैसी लोक कल्याण, कैसी सदभावना, कैसी प्रेम तो आप को बता दे, महादेव ने लोक कल्याण वश ही हलाहल (विष) को अपने कंठ में धारण किया जिससे इनका कण्ठ नीला पर गया और इनका नाम नीलकंठ पर गया। लोक कल्याण वश ही कार्तिक्य ने देवो का सेनापति का पद ग्रहण किया। सदभावना का परिणाम है की इनके सन्निध्यों का विपरीत स्वभाव होने पर भी ए सभी एक परिवार से जुड़े हैं। आदर ही है जो गणेश सर्वप्रथम पूजे जाते हैं। इनके प्रेम का क्या वर्णन किया जाए, इनके प्रेम के समतुल्य कोई नहीं है। प्रेम वश ही शिवशंकर ने ताण्डव नृत्य किया।

                              मेरा आप से बस इतनी सी निवेदन है की आप न तो अपने विचार को मैली करें, न वेचारी विचार को बदनाम करें। विचार से जोड़ने का कार्य करें तोड़ने का नहीं।

                               ये हैं शिव परिवार के  सदस्य 

शनिवार, 2 जनवरी 2016

* खेल *

                     प्रति दिन की भाति उस दिन भी मैं संध्या  बेला में घर जा रहा था। उसी समय एक औरत अपने ९-१० वर्ष के लड़के को मार रही थी और बोल रही थी, बोल उन लोगों के साथ और जाओगे खेलने और साथ में कुछ लड़को का नाम भी ले रही थी। उसी समय मैं वहाँ से गुजर रहा था। मैं उसके पास गया और उसे रोकते हुए कहा क्यू मार रही हैं। मैं बच्चे से पूछा क्यू बाबू क्या सरारत (बदमाशी) कर दिया। वह रोते हुए बोला, हमने कुछ नहीं किया। फलनवा और फलनिया ने कहा चलो खेल खेलते हैं तो मैं भी गया था। मैं उस औरत के तरफ मुखातिब हो कर बोला, बच्चा है बच्चों के साथ नहीं खेलेगा तो किसके साथ खेलेगा। बचपन में खेलना कोई गुनाह काम थोड़े ही है। चलिए इसे छोड़ दीजिए। वह मेरे तरफ मुखातिब हो कर बोली, बबुआजी आप नहीं जान रहें हैं, ई सब कौन खेला खेल रहा है। ए सब बच्चा है !जवान का कान काट रहा है। ई लोग का हरकत देखिएगा और सुनिएगा तो........ । मैं बोला क्या हो गया, ऐसे भी पुत्र (बेटा) पिता (बाप) से तेज होते ही हैं, तभी तो आज देश, समाज तरकी कर रहा है। विकाश और उन्नति के लिए अगली पीढ़ी को पिछली पीढ़ी का कान तो कटनी ही पड़ेगी। मेरे चुप होने पर उस औरत ने जो बात बताई तो थोड़ा देर के लिए मैं सोच में पर गया एवं पुनः मेरी मस्तिष्क में वह १२ वर्ष पुरानी सम्पूर्ण घटनाक्रम याद आ गई। उस समय मेरा गिनती भी बच्चों में ही था। उस समय मैं जिस औरत से बात कर रहा था। उस से हमारा भाभी का रिश्ता था। यह रिश्ता कोई रक्त या वर्ग जाती सम्बन्धी नहीं था। बस उम्र के लिहाज से उनके पति को भाई (भईया) बोलने से हो गया था। उसने कहा बाबू जी आप नहीं जानते हैं। आप हमें भाभी कहते हैं फिर भी आज तक कोई ऐसी-वैसी बात या मजाक नहीं की, ये बच्चे बहुत गन्दी बात एवं गन्दी हरकत करते हैं। मैं बोला ऐसा क्या करते हैं ? वह बोली आप को बताना ही पड़ेगा, "ये बच्चे शरीर के गुप्त अंगो के साथ हरकत करते हैं। इन्हे अप्राकृतिक क्रिया भी करते हुए मैं देखी हूँ।"मैं बोला नहीं ऐसी बात नहीं होगी। उन्हें कुछ परेशानी रही होगी तो आप ने गलत समझ लिया होगा। वह जोड़ दे कर कहने लगी ऐसी बात नहीं है, मैं पूर्ण यकीन के साथ कहती हूँ की वही कही हूँ और वह १००% (सौ प्रतिशत) सत्य है। मैं झेप गया, खैर जाने दीजिए कहता हुआ मैं अपने घर की ओर चल दिया। 

                      आप को मैं बताता चलु। उस रोज से ठीक बारह वर्ष पहले मैं भी उसी प्रकार का घटना देखा था, उस समय मैं भी बच्चों के श्रेणी में था, पर वे लड़के मुझ से भी और छोटे थे। उन में से कुछ तो मुझ से ५-७ वर्ष से कम छोटे नहीं रहे होंगे। अगर आज वही बात किसी के सामने रखा जाए तो रिश्ते को शर्मशार करने वाली होगी। मैं उसी बात को उनके अभिभावकों को बताया तो, वे अपने बच्चों पर ध्यान देने के बजाए, मेरे घर पर उलाहना ले कर आ गए की मैं उनके बच्चों को बदनाम कर रहा हूँ। मेरी माँ मुझे डाटते हुए बोली अब तुम बड़े हो रहे हो। यही सब देखते चल रहे हो। तुमको क्या लेना देना है। मैं भी देखा की दो परिवार के बदनामी के साथ, मेरे साथ भी कीच-कीच होगा। पुरवा-साख कराने से कोई फायदा तो है नहीं। मैं भी उस समय चुप रहने में ही भलाई समझा। बिना मतलब उनके और मेरे  घर से तू तू मैं मैं हो जाता। उनके अभिभावकों का कहना था की उनके बच्चे कह रहे हैं  की उन्होंने ऐसा नहीं किया या नहीं कर रहे थे। मैं सोचा तो इसका मतलब अब वे बच्चे, बच्चे नहीं रहे। इसका मतलब उन्हें इसका आधा-सुधा ज्ञान है पर अभिभावक को तो सोचना चाहिए।

                         अब आप को ऐसी ही और घटना के विषय में बताते चलता हूँ, जो इस घटना के कुछ वर्ष बाद घटी थी। मैं अपने पड़ोस में लड़को को खेलते हुए देख रहा था। कुछ लड़के अपने खेल में मग्न थे तो उन में से दो-तीन उसी प्रकार का हरकत कर रहे थे। जिस प्रकार का वह औरत बता रही थी। मैं उनके हरकत को उनके माँ से बता दिया। जब वह लड़का घर गया तो उसकी माँ उसे मारने लगी और पूछने लगी पर उसकी दादी मेरा उलाहना देने मेरे घर पहुँच गई। मेरा नाम लेते हुए वह बोली वह मेरी बहु को क्या-क्या झूठ-साच बता दिया है। वह अपने लड़के को मार रही है। मैं उस समय घर में ही था। मेरी माँ बोली ठीक है दीदी मैं उस से पूछती हूँ, मगर मेरी माँ, मुझ से कुछ नहीं पूछी, अपने आप से बड़बड़ाते हुए वह  बोल रही थी। बच्चों का ख्याल तो रखेंगे नहीं अगर कोई सही या गलत देखा और बता दिया तो उसी पर चढ़ बैठते हैं। कुछ तो सोचना चहिए। मुझे आभास हुआ की माँ को भी इन बातो का भनक (जानकारी) जरूर है।

                            आज मैं उस पुरानी और इस नई बात में कोई अंतर नहीं देखा। समान उम्र समान हरकत। अंतर सिर्फ इतना था की कोई उस हरकत को अपने आँखों से देख ली थी और अपने बच्चे को सम्भालने का प्रयत्न कर रही थी पर उसका तरीका सही नहीं था। कोई-कोई अभिभावक तो अपने बच्चों पर ध्यान देते हैं पर कुछ लोग तो अगर कोई उनके बच्चे के बारे में कुछ कह दे तो वे उस बात को परखने के बजाए बताने वाले पर दाना-पानी ले कर चढ़ जाते हैं। बच्चों का उस हरकत को देख कर और आज सुन कर मैं सोचने पर मजबूर हुआ। आखिर क्या कारण है की बच्चे उम्र से पहले इस और आकर्षित हो रहें हैं। उन्हें इस प्रकार की क्रियाओं की जानकारी कैसे, समय पूर्व हो रही है। ऐ अपने उम्र के लिहाज से कुछ ज्यादा नहीं बहुत ज्यादा सक्रियता दिखला रहे हैं तो हमने प्रताल में पाया की इसके कई पहलु हैं।

                           पहला तो हमने पाया की आज संयुक्त परिवार बिखर रहा है। इसका सीधा प्रभाव बच्चों के परवरिश पर पड़ रहा है। कुछ संयुक्त परिवार है तो भी उनमे वह संयुक्ता नहीं रही। संयुक्त परिवार में बच्चे अपने दादा-दादी के पास ज्यादा रहते हैं। जिस से उन्हें खिस्से कहानियों द्वारा चरित्र निर्माण के साथ सामाजिक स्थिति समझने में मदद मिलती है। इस प्रकार के परिवार में जिसे नाती-पोता हो जाता तो वे एक दम्पति की जीवन त्याग कर घर में सन्यासी की तरह रहते हैं जो बच्चों का चरित्र निर्माण करता है। दादा-दादी के पास रहने से बच्चे बाल्यावस्था (बाल्यअवस्था) में इस प्रकार की क्रियाओं से अनभिग रहते हैं।

                             हमें ज्ञात है की मानव एक ऐसा जीव है, जिसके शिशु में सबसे काम चेतना पाया जाता है। इसमे धीरे-धीरे चेतना का विकाश होता है। यह अनुकरण से अथार्त  देख सुन कर ही सीखता है। अर्थात हम अपने बच्चों को जैसा माहौल दृश्य देंगे वे वैसा ही सीखेंगे।

                          संयुक्त परिवार के विघटन एवं व्यक्तिगत परिवार के निर्माण के फलस्वरूप बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं और उनके साथ ही सोते  हैं। इस दौरान अगर दम्पति प्रेम प्रलाप या प्रेम क्रीड़ा करते हैं। वे अपने बच्चों का ध्यान नहीं रखते की वह अभी कहाँ है या क्या कर रहा है, साथ में अगर वे यह सोचते हैं की यह तो अभी बच्चा है और वह बच्चे के उपस्थिति को नजर अंदाज करते हैं, जो गलत है। बच्चा उनके क्रियाओं को सीखता है और फिर उसे करने या दोहराने का प्रयत्न करता है। बच्चा अपने आस-पास होने वाली क्रियाओं का अनुकरण करता है।

                            दूसरा कारण हमने पाया की आज लोगों के पास निवाश के लिए प्रयाप्त स्थान नहीं है या यू कहे की उसका सही प्रबंधन भी नहीं है। एक ही कमरे में माता-पिता बच्चे सभी सोते हैं। उसी दौरान अगर वे बच्चे को नजर-अंदाज करते हुए किसी प्रकार का क्रिया कलाप करते हैं तो बच्चे उसे ग्रहण कर बाद में प्रदर्शित करते हैं। हम इतिहास में जाए तो देखेंगे सभी का निवाश अलग-अलग था। औरत कहाँ रहेंगी, मर्द कहाँ रहेंगे, कौन बच्चा कहाँ किसके साथ रहेगा। अब यह रीती (नियम) टूटता जा रहा है। जिसका परिणाम हमें देखने को मिल रहा है।

                         बच्चों का इस प्रकार का आचरण प्रदर्शन का अन्य मुख्य कारण है असामाजिक प्रकृति के लोग जो बच्चों के सम्मुख जान-बुझ कर उस प्रकार की बातें करते हैं या क्रिया कलाप और अवांछनीय हरकत करतें हैं। कुछ लोग तो अनजाने में उस समय इस बात को बच्चों के सम्मुख मजाक के तौर पर करते हैं। जिसे बच्चे बाद में प्रदर्शित करते हैं। कुछ लोग आधुनिकता दिखने-दिखाने के चकर में अपनी सभ्यता संस्कृति छोड़ अन्य सभ्यता का अनुकरण करते हैं। इसका प्रभाव भी बच्चों पर पड़ रहा है।

                             हमें इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए अपनी सभ्यता संस्कृति की गिरते स्तर को बचाना चहिए। अगर हमने मानव तन पाया है। मानव सामाजिक प्राणी है तो हमें अपने आचार-व्यवहार को समयानुकूल नियंत्रित रखना चाहिए। इस प्रकार का खेल बच्चों में कम से कम हमारे द्वारा प्रसारित न हो, इसका ख्याल रखना चाहिए। 


शनिवार, 26 दिसंबर 2015

* भाई बना भतार *

                   शीर्षक देख आपके मन में पहला विचार आएगा, ऐसा कैसे हो सकता है। यह सच नहीं हो सकता वो भी हमारी भारतीय संस्कृति में। लिखने वाला जरूर मानसिक बीमारी से ग्रस्त होगा पर यह झूठ नहीं है। ऐसी वारदात आपके आस-पास भी घटित हुई होगी पर आप इसे महसूस नहीं किया होगा। हमने किया है। मैं इसे कलमबंद इस लिए कर रहा हूँ ताकि लोग इस समस्या को समझ सके और किसी और अन्य को इस मानसिक दबाव से न गुजरना पड़े। इसके निदान पर ध्यान दे। अगर अगर यह शीर्षक और यह घटना झूठा है तो सचमुच यह किसी मानसिक रोगी के मस्तिस्क का उपज है।

                 मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ बंधुत्व, भाईचारा का माहौल रहा है। एक समय ऐसा भी था जब हमारा थाना+प्रखण्ड+ अंचल सन्देश नरसंघार के लिए राष्टीय क्या अन्तराष्टिय स्तर पर बदनाम था। इसी क्षेत्र में मेरा पंचायत भी आता है। यहाँ भी कुछ असामाजिक तत्वों ने तनाव फैलाने की योजना बना चुके थे, पर यहाँ यानि हमारे पंचायत और पास के पंचायत के निवासियों ने उस में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। यहाँ उस समय भी और आज भी बंधुत्व की भावना बरकार है। कुछ लोगो के व्यक्तिगत स्तर को छोड़ दे तो यहाँ सामाजिक स्तर पर शान्ति हर समय कायम रहा है। यहाँ की समाज विभिन्न जाती वर्गो एवं विभिन्न समुदायों, सम्प्रदायो से मिल कर बना है। यहाँ सभी लोग एक दूसरे को दीदी, भाया, चाचा-चाची, दादा-दादी या अन्यरिश्तेदारी जोड़ कर आदर सूचक शब्दों के साथ सम्बोधन करते है। 

                 अब मैं आपके सम्मुख उस घटना की चर्चा कर रहा हूँ, जो हमें यह शीर्षक देने को मजबूर किया। ऐसे सभी क्षेत्रों में जाती, सम्प्रदायो का शादी-व्याह के साथ अंतिम संस्कार का अलग-अलग रीतिरिवाज परम्परा है। ऐ सारी परम्परा रीतिरिवाज मानव व्यवहार एवं सोच की उपज हैं। कुछ तो उस समय सुबिधा एवं सहूलियत के लिए बनाई गई जो आज अपना प्रसंगीता खो चुके हैं। लोग आज भी उसे हाथी का जंजीर की तरह ढो रहें हैं। जब हाथी न रहा तो जंजीर ढोने की क्या आवश्यकता। कहा जाता है की किसी के दादा जी के पास एक हाथी था जो बड़ा ही शुभ था पर आज न दादा जी रहें न हाथी तो फिर जंजीर को क्यों ढोते रहा जाए। ऐसे भी आज जंजीर से भी मजबूत बंधन का निर्माण (अविष्कार) हो चूका है साथ ही आज हाथी पालना भी गैरकानूनी और महंगा शौक है। वर्तमान समय बचत का है व्यय का नहीं। 

                    मेरा उम्र उस समय २० वर्ष था। मैं अपना प्रवेशिका की पढाई समाप्त कर केंद्र सरकार का कर्मचारी बन चूका था। जो घटनाक्रम मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ, उस समय मैं अवकाश पर गाँव आया हुआ था। मेरा ज्यादा समय गाँव के चौपाल पर जो आज चट्टी का रूप ले चूका है, वहीं ब्यतीत होता। वहाँ हमें बैठे-बिठाए पुरे जेवर का नई से पुरानी खबर प्राप्त हो जाती। किसका सगाई हुआ, किसकी सगाई टूटी, किसका लड़का क्या कर रहा है। कौन कहाँ गुल खिला रहा है। किसका सितारा चमक रहा है, किसका सितारा गर्दिश में है। कौन डूबता सूर्य बनने वाला है। इसके साथ ही वहाँ बैठे लोग कौन क्या योजना बना रहा है उसका भी पूर्वानुमान लगाने से नहीं चूकते। वहाँ से मेरे घर जाने के रास्ते में एक कुआँ पड़ता था, जो पक्का था, उसके चारों तरफ चौड़ी जगत बनी हुई थी। जो वहाँ के लोगों को बैठने का स्थान प्रदान करती थी। अब उस कुँए का इस्तेमाल पानी के लिए नहीं हो रहा था पर जब उस टोले के बड़े-बूढ़े, बच्चें औरतों किसी को भी खाली समय मिलता तो वह वहीं आ कर बैठता और जो भी भी वहाँ आता उस से गप्पे लगता। एक रोज मैं वहाँ से दिन के करीब ग्यारह बजे गुजर रहा था। वहीं की एक लड़की जिसका नाम मुमताज था। वह हमसे कम से कम ६ वर्ष छोटी होगी। कुँए के जगत पर दोनों पैर मोड़ कर घुटनों के बीच में शिर रख चुप-चाप बैठी कुछ सोच रही थी। मैं वहाँ से गुजर रहा था यानि की उसे पार करने ही वाला था और वह हमें नहीं टोकी तो मैं सोचने लगा क्या बात है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। मैं जब भी गाँव आता हूँ और यह प्रथम बार मिलती है तो प्रणाम(अभिनन्दन) तो अवश्य करती फिर हम दोनों एक दूसरे का कुशल-छेम पूछते थे। ऐसा कभी नहीं हुआ की मैं उसके सामने से गुजर गया और वह कुछ न बोली हो। इन बातों को सोचकर मैं वहाँ रुक गया और उसके तरफ मुर कर पूछा, "क्या बात है मुमताज।" वह हड़बड़ा कर अपने ध्यान से निकली और प्रणाम करते हुए बोली कुछ नहीं और झेंप मिटाने की कोसिस करने लगी। मैं बोला कुछ तो है तभी तो इतना गहरी सोच में डूबी हुई थी। वह बोली आप को क्या बताऊ। मैं बोला नहीं बताव पर जब तक किसी को नहीं बताओगी समस्या का समाधान कैसे निकलेगा। इसी तरह कब तक सोचती रहोगी और चिंता में डूबी रहोगी। मैं फिर एक बार जोड़ दे कर बोला, बता दो। वह बोली "लाज आ रही है।" मैं सोचा लड़की है कुछ आंतरिक बात रही होगी। मेरा दिल फिर नहीं माना, मैं फिर सोचा एक बार पुनः पूछ कर देखता हूँ। मैं कहा ऐसी क्या बात है, चोरी और गलत रिश्ता छोड़ किसी बात के लिए क्या लाज। तुम अगर मुझे अपना भाई मानती हो तो बता। वह शर्माती हुई बोली मेरी निकाह होने वाली है। मैं बोला तो इसमे लाज की क्या बात है सभी का निकाह होता है और कोई परेशानी है क्या ? वह बोली, ऐसी बात नहीं है।मैं बोला तो फिर कैसी बात है। वह बोलने लगी अभी-अभी आपने बोला अपना भाई समझती हो तो बता। आप तो दूसरे जाती, धर्म सम्प्रदाय के हैं फिर भी भाई तो भाई होता है न ! अभी से ही मेरी सहेलियाँ बात बनाना शुरू कर दी हैं। मैं बोला बात क्या है, वह साफ-साफ बता और सहेलियों को छोड़, वह सहेली, सहेली थोड़ी ही है जो अपने सहेली की बात बनाए। वह बोली 'मेरी जिस से निकाह तय हुआ है वह मेरी बुआ जी (खाला) का लड़का है'। मैं बोल पड़ा वही न नवशाद वह तो अच्छा लड़का है। तुम लोगों में तो ऐसी शादियाँ होती ही हैं। वह बोल परी आप भी वही कह दिए न जो सभी कह रहें हैं, पर हमें यह रिश्ता अच्छा नहीं लग रहा, मैं उनका इज्जत करती हूँ अब मैं क्या करू ? मैं पूछा यह बात तू अपने मम्मी-पापा को बताई ? वह बोल पड़ी, वे कहते हैं हमें इतना अच्छा ररिश्ता मिल रहा है, अगर तुम्हे पसन्द नहीं है तो कैसे होगा ? हमारे पास उतनी आय या पैसा नहीं है की हम तुम्हारी शादी दूसरी जगह तय कर सके। मैं बोला अच्छा देखता हूँ, इसमे मैं कुछ कर सकता हूँ या नहीं और मैं वहाँ से चल दिया। मैं रास्ते में सोचता हुआ जा रहा था। इसी बीच हमें हमारे गाँव का ही एक बुजुर्ग का कहावत याद आ गई जो कभी-कभी कहते थे, "भैया जैसा खोजोगे तो कहाँ मिलेगा।" उनके बात से मुझे गजब तरह का अनुभूति हुई पर मैं मुमताज के चिंता पर सोचने लगा। सोचते हुए मेरा घर आ गया और मैं उसके बारे में ही सोचता रहा।

                          अगले दिन मैं घर से बाजार के लिए निकला। मैं उसी रास्ते से निकला जिस रास्ते में मुमताज का घर पड़ता था। संयोग से मुमताज के माता-पिता अपने दरवाजे पर ही बैठे हुए थे।  हम लोगों का आपस में अभिनन्दन हुआ कुशल-छेम पूछा और फिर घर का बात निकल गया। मैं भी मौका अच्छा देखा और बात पर बात बढ़ाता गया। उन्होंने खुद ही अपनी बेटी की निकाह तय होने की बात बताई। मैं अनजान बनते हुए पूछा, कहाँ तय किया तो उन्होंने सब बता दिया। मैं ने उन से पूछा आप ने मुमताज से पूछा, उसे यह रिश्ता पसन्द है या नहीं, आप लोगों में तो लड़की के राजी से ही न निकाह तय होता है। वह बोले बाबू उस से क्या पूछना, यह सब एक रीती रिवाज है। मैं इतना अच्छा रिश्ता  कहाँ से लाऊँगा। मैं उन्हें विभिन्न तरीको से समझाने का प्रयाश किया पर वे हमें ही समझा दिए। मैं अंत में कहा मुमताज अभी छोटी है, शादी से उसके शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ेगा और आपको यह पता ही होगा, अठ्ठारह वर्ष से कम की लड़की का शादी करना गैरकानूनी है। इसके लिए सरकार कितने कार्य-क्रम चला रही है, की इसके बुरे प्रभाव से बचा जा सके। वे बोल पड़े यह सब कहने की बात है। यह बड़े लोगों और शहर में होता है। लड़की पराई अमानत है जितना जल्दी वह अपनी घर जाए अच्छी है। वह कह पड़े काहे का कानून, क्या कानून हमें खाने के लिए और इसके निकाह के लिए पैसा देगी। कौन कितना मदद करेगा, अगर आप भी बड़ा दिल दिखाएंगे तो कुछ हजार का मदद या कर्ज दे देंगे, क्या उस से सब हो जाएगा। बाबू यह दुनियादारी है। गरीबों की जिंदगी तो और भी मुश्किल  है। मैं उनका दलील सुन हक्का-बक्का रह गया और मैं फिर बाजार के लिए प्रस्थान किया।

                       अगले दिन मैं उसी चौपाल पर बैठा था। जिसका हमने पहले चर्चा किया था। हमारे साथ और कई लोग भी थे जो हम से उम्र में बड़े थे। मैं बात-बात में यह बात निकाल दिया। मैं उन लोगों से पूछ बैठा यह शादी कैसे रुकवाई जा सकती है। उन लोगों ने हम सर मजाक कर दिया वे लोग बोले क्या बात है? कहीं कोई चककर-वककर तो नहीं। मैं उन लोगों को सही बात बता दिया और कहा मैं उस लड़की का मदद करना चाहता हूँ। अगर इसकी शिकायत थाना में कर दिया जाए की लड़की का उम्र (उमर) कम है। वह अभी नवालिक है। उसके अभिभावक जबरजस्ती बिना उसके इच्छा के शादी करा रहे है तो कैसा होगा। उसकी शादी तो रुक जाएगी। वहाँ के सभी लोग हमें डाटने लगे और कहने लगे तू पागल हो गया है। 
ऐसा भूल कर भी नहीं करना। यह शहर नहीं है। तुम सरकारी नौकरी करोगे या थाना कचहरी (न्यायालय) का चक्कर काटोगे। आज उस लड़की के बारे (विषय) में सोच रहे हो, कल वही तुम्हारे खिलाफ हो जाएगी।  उसे जब  थाना और कचहरी जाना पड़ेगा तथा उसके अभिभावक एवं रिश्तेदार जब उस पर दबाव बनाएंगे तो वह टूट जाएगी। तुम अगर ऐसा करते हो तो इसका असर बड़ा लम्बा-चौड़ा दूर तक होगी। कुछ लोग तो इससे साम्प्रदाइक सौहार्द बिगारने का भी प्रयाश करेंगे तुम्हे उसके नाम के साथ घसीटकर बदनाम करेंगे। उसके घर और रिश्तेदारवाले तुम्हारे कटर (जानी) दुश्मन हो जाएंगे। वे सिर्फ तुमसे ही नहीं तुम्हारे वशंज, आद-औलाद से भी दुश्मनी निभाएंगे। कहा गया है "सौ दोस्त बनाओ पर एक दुश्मन मत बनाओ।" संक्षेप में कहु तो यहाँ सम्पूर्ण समाज तुम्हारे खिलाप हो जाएगी। तुम्हारे साथ वही कहावत चरितार्थ होगी 'आ बैल मुझे मार।' मैं बोला ठीक है। हँस कर मैं अपना तनाव को कम करते हुए कहा, मैं तो बस यु ही पूछ रहा था की इस प्रकार के हालत या स्थिति पर आप लोगों की क्या राय हैं। अभी तक तो मैं मुमताज की चिंता पर चिंतित था अब मुझे अपने आप पर दया आने लगी। अपनी स्थिति एवं समाज की संरचना पर सोचने को मजबूर हो गया। 

                      अब मेरे अंतः मन में कई प्रश्न उठने लगे। आखिर यह ताना-बाना किसकी बुनी हुई है। मुमताज भी तो  उसी सम्प्रदाय की है, फिर उसे इस प्रकार के रिश्ता से क्यू गुरेज है। वह मिश्रित समाज में पली-बढ़ी है शायद इसलिए ! वह अगर सिर्फ उसी सम्प्रदाय के लोगों के बीच पली-बढ़ी रहती तो शायद उसे इस प्रकार के रिश्ते से इतना झिझक नहीं होती। इस घटनाक्रम से हमारे मन की एक बात साफ हो गई, अगर हमें सम्प्रदायों के मिथक को तोडना है तो संयुक्त समाज के रचना के साथ नवयुवकों एवं नवयुवतियों की भावना को समझते हुए उनके अच्छे विचारों को आदरपूर्वक आगे बढ़ाना होगा। कुछ समय के लिए मैं उस रास्ते से जाना छोड़ दिया था। मैं उसे किसी प्रकार से मदद नहीं कर सका तो मैं उसका सामना कैसे करता, यह मेरे अंतः मन का आवाज था। वह हमारे बारे में क्या सोचती थी यह हमें नहीं मालूम। उस रोज जब मैं उसके पिता जी से बात कर रहा था तो शायद वह सभी बातों को सुन चुकी थी। उसके हाव-भाव से लगा की वह हम पर दया कर तरस खा रही है। उसने फिर कभी भी इस पर बात नहीं की।

                      समय ब्यतीत होता गया। वह आज बाल-बच्चेदार हो चुकी है। वह एक रोज मुझ से मिली तो हँस कर बात की और कुशल छेम पूछी तो मेरा मन थोड़ा हल्का महसूस किया। मैं मन ही मन कहा चलो, लगता है यह इस रीती-रिवाजो से सामंजस्य कर चुकी है, जो अच्छा ही है। वह जाने लगी तो उसे मैंने टोका, वह पुनः मेरे तरफ मुड़ी, मैंने कहा, देखो जो हमें अच्छा न लगता हो शायद दूसरे को भी वह अच्छा न लगे, पर यह जरुरी नहीं है। तुम उनका ख्याल रखना। वह शायद मेरा कहने का मतलब समझ गई होगी। वह सिर हिलाती हुई बोली जी...... नमस्कार। 

                    

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

* शंकर *

                   वर्ष २००३ का फ़रवरी माह प्रातः काल की बेला में मैं अपने घर के छत पर बैठा धुप का आनंद ले रहा था। बैठे-बैठे अधखुली आँखों से मैं अपने और इस जगत के विषय में सोच रहा था आखिर यह दुनियाँ है क्या ? इसे निर्माण करने का श्रेय तो किसी को तो है ! लोगो में सोच आखिर कैसे उत्पन्न होती है। एक ही परिवार एवं परवरिश में लोग भिन्न-भिन्न कैसे हो जाते हैं। इतने में मुझे अपने पड़ोस के शंकर के घर से आती हुई शोर सुनाई दीया। वहाँ हो रहे शोर की ओर मैं अपना ध्यान ले गया। वहाँ एक वाक्य स्पष्ट सुनाई दिया जो शंकर की माँ की थी। वह रोती हुई कह रही थी, "कोई बात नहीं बेटा ईश्वर सब देख रहा है, तुम्हे भी ऐसा कहने वाला अवश्य प्राप्त होगा।" हमें मालूम हुआ की उनमें लेन-देन और बटवारे का बात चल रहा है। कुछ दिनों के बाद हमें शंकर के द्वारा ही 'जब हम लोगों में बातचीत होगा तो आप भी रहिएगा' यानि उनके बीच होने वाली बातचीत में रहने के लिए निवेदित किया गया। हमने हामी भर दी। अब जब भी बटवारे या हिस्सेदारी  का बात चलता तो मैं उस में जाता। उन सारे बातचीत में जो बातें सामने आई तथा शंकर ने जो बोल-वचन किया उसका हमें कतई विश्वास नहीं था।

                         हमारे पड़ोसियों के साथ हमें भी विश्वास था की शंकर अपने घर को संवारने में कोई कोर कसार नहीं छोड़ रहा। हम सभी की यह धारणा मिथ्या साबित हुई। शंकर हमारे पड़ोस में अच्छों लड़को में गिना जाता था। वह उस समय डबल एम० ए०  (M.A.) कर चूका था। ऐसे वह आम लोगों से हँस कर जी तथा आदर सूचक शब्दों के साथ ही बात करता था। आजतक उसके चरित्र पर भी किसी ने ऊँगली नहीं उठाई थी। ऐसे वह प्रारम्भ में अपने घर को चलाने के लिए विभिन्न ऊधम (उद्यापन) भी किया, जिसमें उसे माँ, भाई-बहन का भरपूर सहयोग मिला सिर्फ उसे पिता जी से थोड़ा कम, ऐसा नहीं की उसके पिता जी ने उसका सहयोग नहीं किया ! यहाँ तक उसे लाने में उसका पिता जी का ही आशीर्वाद था। वह उनका नाम बेच कर ही आय किया (कमाया) था, उसके पिता जी अपने कुछ आदतों से मजबूर थे। वह (शंकर) जो उस समय किया  आज के पढ़े-लिखे लोग उसे दोहन कहते हैं। जो विकाश के लिए जरुरी भी है।

                            वह सुबह की वार्ता जिसका हमने पहले चर्चा किया था। उस रोज हुआ यू की शंकर के घर में शायद खाने-पिने की वस्तु नहीं थी, उस समय उस घर में शंकर को छोड़ दे तो घर का कोई और सदस्य खास आय नहीं करता था या यू कहें की शंकर ही उस समय उस घर-परिवार का एक मात्र आय करने वाला सदस्य था। उस सुबह शंकर की माँ ने उसे  बताया की घर में खाने को कुछ भी नहीं है, बेटा कुछ ले कर आओ, वह  बोला मैं सभी का ठिका ले रखा हूँ, मेरे पास पैसे नहीं हैं। उसकी माँ कुछ देर चुप रही फिर बोली किसी दुकान से उधर ले आ, हम कहीं से पैसा ला कर चूका देंगे। वह बोला बस करो तुम तो ऐसे ही कहती हो , तुम लोगो के कारण मेरा आमद (आय) का कुछ पता ही नहीं चल पा रहा है। माँ बोली "बेटा तुम बड़े हो, माँ-बाप बच्चों को इसी लिए तो पालते हैं, की वह उनका काम में हाथ बटाएगा, उनके बोझ को काम करेगा, तुम बड़े हो तो तुम्हारा अपने भाई-बहन के प्रति कर्तव्य तो बनता ही है।" शंकर बोला "बस-बस हम पर आप लोगों ने क्या खर्च किए हैं, मेरा कोई नहीं है, मुझे किसी से लेना देना नहीं है।" उसकी माँ बोली  "कोई नहीं का मतलब क्या तुम्हें इतना बड़ा करने में हमने कुछ नहीं किया, क्या तुम स्वयं इतना बड़ा हो गया।" शंकर बोला  "हाँ मुझे तो चाची और दादा-दादी ने पाला  है।" माँ बोली "बेटा कोई किसी को नहीं पालता , तुम अब होस सम्भाले हो तो देख रहे हो या जो लोग कह रहें हैं उसे सुन रहे हो, कोई किसी को एक बार करता है तो तीन बार सुनाता है, खैर छोड़ो (रुंधे हुए गले से ) मैं तुम्हारी जननी हूँ अपने कोख (उदर) में तुम्हे पाला है , अपने खून से तुम्हे नौ माह सींचा है तो इस नाते तो तुम पर मेरी हक़ तो बनती ही है , तुम्हे मातृ कर्ज तो चुकाना ही पड़ेगा।" शंकर बोला "कोई जननी-माननी नहीं, कोई कर्ज-वर्ज नहीं आपका हम पर कोई एहसान नहीं है , हमारा कोई नहीं है। " माँ बोली " तो तुम क्या आम के खोड़हर में से इतना बड़ा ही आ गए थे।" और माँ डबडबा गई उनके मुख से आवाज नहीं निकल रहा था, एक माँ के दुःख दर्द पीड़ा को एक आम आदमी कैसे समझ सकता है, उस माँ पर उस समय क्या बित रही होगी, जिस बच्चे को वह कितनी आशा से पाली पोशी होगी जो कमाने (आय करने) लायक हुआ तो  अपना कर्तव्य से पला झाड़ लिया , जिस माँ के बच्चें जो अभी नादान हो, जो भूख मिटाने के लिए अन्न के एक-एक दाने को मुहताज हो, उसके दर्द को कोई शब्दों में कैसे व्यक्त कर सकता है। इसके बाद शंकर ने जो बोला उसे सुन कर मेरा मस्तिष्क सुन हो गया, लगा मेरा दिल बैठ जायेगा धरकन रुक जाएगी सांसे थम जाएगी। हमें आज के समाज पर सोचने को मजबूर होना पड़ा। जिसने भी सुना, जाना दाँतो तले ऊँगली दबा लिया। हमें लगा किसी ने सही कहा है, "ज्यादा पढ़ा लिखा स्वार्थी हो जाता है। " यहाँ हमें उस व्यक्ति का सोच सही लगता है। जो भी शंकर के इस कथन को सुनता कहता क्या ? एक पढ़ा लिखा बेटा (लड़का) का यह जबाब। ऐसा सन्तान से निःसंतान होना ही अच्छा है। कई औरतें तो कहती अगर यह मेरा लड़का होता  तो इसे गर्भ में ही मार देती। इन सारी प्रतिक्रियाओं के बाद हमने देखा आज समाज में बहुत परिवर्तन आ गई है। किसी ने शंकर के मुख पर कुछ नहीं कहा या उसे न ही समझाने का प्रयत्न किया। बस बाहर-बाहर काना-फूसी होता रहा। हमें समझ में नहीं आ रहा था। समाज के इस बदलाव को हम क्या नाम दूँ। अब आप सोच रहें होंगे आखिर शंकर ने ऐसा क्या कह दिया तो सुनिए मुझे यहाँ लिखने में भी शर्म आ रही है, पर क्या करू लिखना तो पड़ेगा। शंकर जिस गर्भ से जन्म लिया उसी गर्भ को को गाली दिया। अब आप शंकर के मुख से ही सुन लीजिए।  शंकर - "हाँ मैं खोड़र में से आया हूँ , आज मैं जो भी हूँ अपने परिश्रम और किस्मत से हूँ , आपने तो माजा लिया और मैं आ गया, इसमे मेरा क्या इसमे तो आप कसूरवार हैं, अब भी हमें आप लोग छोड़िए की और कुछ सुनना है।" इस कथन के बाद भी उस माँ का विशाल हिर्दय को देखो वह बस रोती हुई बोली, "अच्छा बेटा खुश रहो आबाद रहो, ईश्वर तुम्हे भी संतान देंगे और और जब वह भी यही बात तुम से कहेगा तब तुम्हे इस माँ की दुःख दर्द का एहसास होगा।"

                         आप को बता दे की इन सारी घटनाओं के बाद शंकर कुछ दिन घर परिवार के साथ रहा उसका शादी हुआ। कुछ दिनों बाद वह अपनी पत्नी को मायके भेज दिया और फिर वही नटकृतन ड्रामा शुरू किया। उसके बाद वह अपनी पत्नी को ले कर अलग रहने लगा। घर पर जब अन्य लोगो को खाने के दाने के लिए लाले पर रहे थे तो वह रोझहा  (उठवना) दूध पिता था। अब वह आए दिन अपने बड़े हो रहे भाइयों एवं माँ-पिता जी से जमीन-जायदाद बाटने के लिए लड़ता एवं बिबाद खड़ा करता रहता। समय बिता और उसके भाई भी सरेख (युवा) हो गए वे भी रोजग़ार एवं ऊधम (उद्यापन) करने लगे जिससे आय होने लगा और घर के सदस्यों का सही से  परवरिश होने लगा। इसी दौरान इनके पिता जी अब बीमार रहने लगे। उनके दवा पर भी अच्छा पैसा खर्च आने लगा। इन सरे बातों को देख कर शंकर के भाइयों ने अपने मामा जी को बुलाया। सभी लोग बैठ कर कुछ बात किए, जिसमे कुछ पैसा और अन्न (अनाज) देने का शंकर स्वीकार किया। बाद में शंकर अपने किए वादे से मुकर गया। उसने जो परिवार के भरण-पोषण के लिए स्वेच्छा से सहयोग करने के लिए कहा था। उसे वह भूल गया। आप को बता दे की यह सारी बातें बटवारे के लिए, जब शंकर ने हमें बुलाया तो उसी दौरान क्रमवार सामने आई। इसी क्रम में शंकर के भाइयों ने बताया की ए कई बार आपसी सहमति से हुए निर्णय से पलट गए हैं। जिसका उन्होंने लिखित प्रमाण भी दिखाया।

                          शंकर के बुलाने पर ही पंचायती के लिए हमारे साथ कुछ और लोग पंच बन कर बैठे थे। हम ने शंकर से पूछा 'हाँ शंकर आप लोगों में पहले भी कुछ सहमति समझौता हुआ था।' वह बोला हाँ चाचा जी। मैं बोला आप उस से पीछे क्यों हट गए। शंकर बोला मैं माँ-पिता जी को कुछ सहयोग के लिए भरोसा दिया था पर कुछ कारणों से मैं वह सहयोग नहीं कर सका। हमने पूछा क्यों ? तो वह बोला जब मैं उन्हें सहयोग करने लगा तो मेरी आय कम गई और मैं बीमार रहने लगा तो मैं उनका सहयोग करना छोड़ दिया। हमने बोला अच्छी बात है पर आपकी स्वास्थ (सेहत) जब अच्छी हो गई और आय ठीक होने लगा तो फिर आपको अपना किया हुआ वादा, दिया हुआ भरोसा कायम रखना चाहिए था। वह बोला ऐसा नहीं की मैं उस समय बिलकुल बीमार ही हो गया और मेरी आय बिलकुल बंद हो गई थी। इनके सहयोग से मैं अनुभव किया की हमारे ऊपर विपति का छाया पड़ रही है जो हमें परेशानी में डाल रही है। इनसे नाता और सहयोग तोड़ने के बाद मैं पुनः ठीक महसूस करने लगा। मैंने मन में सोचा क्या बहाना है। इसे धुर्तई कहे या और कुछ ? मेरे मन में आया माता-पिता के सहयोग से इस पर विपति का छाया मड़राने लगती है, कही इनके धन-सम्पति लेने के बाद कही और बड़ी घटना न हो जाए, पर इस पर मैं कुछ नहीं बोला। उस दिन आम बात हुई सभी का पक्ष सुना गया, एक और बात सामने आई की उनमे एक लिखित समझौता भी हुआ है। शंकर के भाइयों ने बताया की बार-बार स्वयं निर्णय करते हैं फिर मुकर जाते हैं तो इस बार हमने लिखित करवाया था वो भी स्टाम्प पेपड़ पर। हम लोगो ने कहा तब तो ठीक है फिर हम लोगों की क्या जरुरत है। शंकर के भाइयों ने बोला अब ए उसे भी मानने को तैयार नहीं हैं। हमलोगों ने शंकर के तरफ देखा तो शंकर कहने लगा हमें उस समय नहीं पता चला इस लिए हमने वह शर्त मान लिया था। उस में गलत है इस लिए अब हमें उससे सरोकार नहीं है। हम लोगों ने कहा इसका क्या गारंटी है की तुम अब मान जाओगी। वह बोला जी ना अब आप लोग जैसा कहेंगे वैसा ही होगा। हम लोगों ने वह कागज (स्टाम्प पेपर) मंगवाया और आम सहमति से उसे रद्द कर नष्ट कर दिया गया। यह बैठक रात को हो रही थी रात अधिक हो जाने से हम लोग सारी  बातों को यहीं समाप्त कर फिर अगले दिन निश्चित समय पर आने के लिए कह कर अपने-अपने घर प्रस्थान किया।

                             पुनः अगले रात निश्चित समयानुसार बैठक शुरू हुई बात का शिलशिला शुरू हुआ। शंकर ने कहा हमारी तिलक का बर्तन इन लोगों के पास है, जिसे देने के लिए इन्हे कहिए। शंकर के भाइयों ने बर्तन होने का बात स्वीकार किया, साथ में कहा की इनके शादी का कर्ज था, महाजनों एवं साहूकारों का उन्होंने नाम भी बताया जिसे बिना चुकाए ए अलग हो गए थे। इन्हें बोलिए, ए उनका देनदारी चुकाए। हम ने शंकर के भाई से अकेले में पूछा क्या उसके बर्तन से तुम्हार देनदारी चूक जाएगा तो उसने कहा नहीं। मैं इनका बर्तन सही समय पर वापिस भी कर दूँगा पर उन्हें शर्म तो आनी चाहिए न, मैं उनका बर्तन यु ही मुफ्त में थोड़े ही रखा हूँ। मैं बोला खैर छोड़ो भी तुम उसका बर्तन वापिस कर दो, तुम कहो तो मैं उसे कल बुलाऊंगा उसे उसका बर्तन वापिस कर देना। शंकर का भाई बोला ठीक है। अगले दिन शंकर को उसका बर्तन मिल भी गया।

                            पुनः अगले दौर की बात शुरू हुई, सभी बात राय सुमारी से ही तय हो रहा था। कौन कितना किसको देगा। उनके पिता जी के उपचार में होने वाले खर्च में कौन कितना देगा। इसी दौरान शंकर के भाई ने बताया की पिता जी के बीमार होने पर ये एक बार उनसे मिलने आए थे तो हमने इन्हें दवा की पर्ची दिया था एक बार में ग्यारह दिन का दवा आता था, इन्होने सिर्फ एक सप्ताह का ला कर दिया। हम लोग वही दवा एक वर्ष से ला रहें हैं। उसके बाद इन्होंने कभी न माता जी से न पिता जी मिलना आवश्यक समझा। उस समय पिता जी का जो स्थिति थी इन्हे लगा था इनका इह लीला समाप्त है पर ऊपर वाले के आगे किसका चला है। आप आज देख रहे हैं न की ए स्वस्थ हैं। बटवारे की बात चल ही रही थी तो शंकर अपने छोटे भाई के ओर मुखातिब हो कर बोला मेरे औरत (मेहरारू) में भी बाट लो , बरा अंधेरे में उसके हाथ से खाना अच्छा लगता था। हमने कहा चुप रहो, शर्म करो क्या बोल रहे हो, सोचे हो, समाज में दश लोगो के सामने यही सब बोलते हैं, तो शंकर ही... ही .. ही.. करने लगा जिसे हम देशी भाषा में दाँत निपोरना भी कहते हैं।

                             आगे सभी बातें सहमति से तय हो रही थी। शंकर के भाई शंकर के कहे अनुसार सभी बात मान रहे थे पर शंकर उनका कोई बात मानने को तैयार नहीं था। इसी दौरान शंकर का एक भाई जो उससे  बहुत छोटा था पर अन्य भाइयों से बड़ा था, उसने एक सही बात कही, उसने कहा आप हिस्सा लगा दीजिए हम ले लेंगे या हम लोग लगा देते हैं तो आप ले लीजिए, उस पर भी शंकर का सही प्रतिक्रिया नहीं था। शंकर जैसा चाह रहा था वैसा ही सब कुछ चल रहा था। हम लोगों ने एक लिखित नोट (टिप्पणी) भी बनाया था, जिसमें सभी का हिस्सा, विचार दर्ज करते जा रहे थे। एक गलती हम लोगों से हुई जिसे हमने अंत में सुधारने का कोशिश किया जो नहीं हो सका। हुआ यू की एक स्थान पर सड़क के किनारे बाजार में पक्का मकान था और उसी में कुछ हिस्सा खपरैल था। वहाँ शंकर के हिसाब या मन से ही विभाजन हुआ और कहा गया की उसका आय उनके पिता जी अपनी परवरिश के लिए रखेंगे। वहाँ हिस्सा बाटने के बाद, जो हिस्सा उसके भाइयों को मिला उस में वर्तमान में (उस समय) वह निवास कर रहा था। उसने (शंकर ने) कहा मैं इन लोगो का हिस्सा तब छोड़ूंगा जब मुझे पुराने घर में हिस्सा मिलेगा। यहाँ हम लोगों से बड़ी भूल हुई जो इस बटवारे को विफल कर दिया, जिसका मुझे आज भी अफ़सोस है। शंकर का पुराना घर मिट्टी का था जो गिर गया था। उसके  अलग होने के कुछ वर्ष बाद उसके भाइयों ने एक ईट का माकन बनाया था जो अभी भी अर्ध निर्मित ही था। शंकर उसे ही पुराना घर दिखा रहा था। उस में भी शंकर के भाइयो ने उसे देने के लिए कह दिया पर कुछ कारण वस उसके भाई को कही जाना पड़ा। इसी दौरान उनके रिस्तेदारो को मालूम चला की शंकर के भाइयों द्वारा निर्मित माकन में शंकर को हिस्सा मिल रहा है तो उन्होंने उसके भाई से बात किया और कहा तुम लोग पागल हो गए हो घर उस को दे दोगे तो कहाँ रहोगे। घर को तुमने खुद बनाया, उस समय तो उस से घर बनाने में मदद माँगा ही था, तो उसने साफ माना कर दिया था। उसने कहा हमें यहाँ नहीं रहना है। अब मुफ्त में शंकर को घर या पैसा दोगे, जब छोटे भाई बड़े होंगे तो फिर उन्हें हिस्सा दोगे, तब तुम कहाँ जाओगे ? क्या तुम्हारी आय इतनी है की सभी को जीवन भर देते रहोगे। हम लोग कहूँगा घर के आगे जो खली (परती) जमीन है उसे शंकर को उसके हिस्सा अनुसार दे दो, अगर वहाँ जमीन नहीं रहती तो कोई बात होती। सड़क पर पक्का और खपरैल  में हिस्सा लगा वहाँ भी तो शंकर का तुम लोगो ने बात माना ही, अब उसे भी तो तुम्हारी बात माननी चाहिए। उन लोगों के सलाह में शंकर का भाई ने हामी भर दी और हम लोगों का भी दिमाग ठनका और सोचने पर मजबूर हुआ। यह बात तो सही है। यह तो नाइंसाफी होगी और हम लोगो का सभी प्रयत्न पर पानी फिर गया। शंकर उनके सुझाव और बात को मानने से साफ इनकार कर दिया। उससे जैसे बन सका अपने भाइयों को आर्थिक और मानसिक रूप से परेशान करने प्रयत्न किया। जिसमें वह आंशिक रूप से सफल भी हुआ। आज भी यह परिवार एक दूसरे से तनाव महसूस कर रहा है।

                            अब मैं शंकर के नाम पर सोचने को मजबूर हुआ। उसके माता-पिता शायद यह सोचकर उसका नाम रखे होंगे की यह भगवन शंकर की तरह भोलानाथ, सभी का उद्धारक होगा स्वयं कष्ट सह कर भी दूसरे का उपकार करेगा पर यहाँ तो उलटा हो गया शंकर तो तंगकर और भोलेनाथ धूर्तनाथ साबित हो रहें हैं , जो स्वयं आनन्द में रह कर दूसरे को कष्ट पहुँचाने का बीरा उठाया है। जिसने अपनी जननी को भी नहीं छोड़ा। उद्धधारक का कोई उल्टा (विपरीतार्थक) शब्द होगा तो ए उसको सार्थक कर रहा है। मैं सोचता हूँ अगर सभी पढ़े-लिखे लोग ऐसे होते हैं तो अनपढ़ होना ही अच्छा है। इनके बोल-बचन, इनकी सोच हमारे समाज को कहाँ ले जाएगी। इसे तो हम आधुनिकता के दौड़ में नैतिकता का पतन एवं मानसिकता दिवालियापन ही कहेंगे और क्या !इस पर थोड़ा आप भी विचार कीजिए एवं समाज को सही दशा-दिशा सोच प्रदान करने का प्रयाश कीजिए यह हमारा निवेदन है।
                         

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

* एह में *

                        विरेन्द्र बाबू अपने समय का डॉक्टरेट हैं। आज उनका उम्र ६०-६५ वर्ष के आस-पास होगा। वह जब भी अपने पास वाले या किसी से बात करते हैं तो उनका आवाज दूसरा व्यक्ति बिना प्रयत्न के शायद ही सुन सके। इस प्रकार बात करने का उनका अपना एक अलग ही पहचान है, धीरे बोलने या काना-फूसी करने में उनका नाम उपमा के रूप में इस्तेमाल होने लगी है। अब जब कोई धीरे बात करता है या दूसरे का बात करता है और अगला उसका आवाज नहीं सुन पाता तो कहता है, विरेन्द्र हुए हो। ए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषा शुद्ध लिखने-बोलने के साथ एक अच्छे चित्रकार भी हैं। मैं इन्हें दोनों हाथों से लिखते हुए भी देखा हूँ। थोड़ा बहुत गा बजा भी लेते हैं। व्यक्तित्व भी अच्छी है। गेहुँआ गोरा रंग लम्बाई लगभग ६' (फुट) के आस-पास दोहरा बदन। कुल मिलाकर प्राकृति ने उन्हें लगभग एक परिपूर्ण इंसान बनाया, पर आज समाज में इनका कुछ अलग ही पहचान बन चूका है। 

                                बुजुर्ग लोग बताते हैं की वह जब पढाई कर रहा था तो इससे सिर्फ घर वालों को ही नहीं पुरे समाज को आशा थी की वह कुछ अच्छा करेगा। इन्हे उस समय अच्छा खिलाडी के तौर पर भी जाना जाता था। समय के साथ सारी आशा धूमिल होता गया, इनका नकारात्मक चेहरा सामने आता गया।

                         जब ए डॉक्टरेट की पढ़ाई कर रहे थे, उसी समय उस महाविधालय के एक कनिष्ठ अध्यणार्थी से इनका मेल-मिलाप बढ़ा, यह मिलाप आगे चल कर प्यार में बदल गया, फिर दोनों ने शादी की ईच्छा व्यक्त की। ऐसे इनके घर वालों ने ज्यादा विरोध नहीं किए। इनके पिता श्री ने कहा "पहले तुम अपना कैरीयर (भविष्य) बना लो फिर शादी जिस से मन करे कर लेना।"  वधु पक्ष यानि लड़की वाले इनके पिता श्री से कुछ ज्यादा ही विरोध किया। उन्होंने अपनी लड़की को समझाते हुए कहा तुम जिस से कहोगी जैसा घर-वर कहोगी, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर जो सरकारी ओहदा प्राप्त हो या जमींदार घराने का हो वैसा घर-वर ढूंढूगा पर इस वेरोजगार में क्या रखा है। लड़की बोली मैं शादी करूंगी तो इन्हीं से नहीं तो मरना पसन्द करुँगी। इसी बिच विरेंदर बाबू वही एक गौर सरकारी महाविधालय में प्रोफेसर के तौर पर कार्य करने लगे। इनका शादी लड़की के जिद के कारण सम्पन्न हो गई। ए जहाँ पढ़ाते थे और रहते थे वहाँ, या यू कहें उस क्षेत्र में उनके सालों और ससुर का बोल-बाला था। वे जमींदार घराने के थे, जिस से उस क्षेत्र में उन लोगों का मलिन व्यक्तियों में गिनती होती थी। शादी के बाद उनके सालों को उनका वहाँ पढ़ना अच्छा नहीं लगा। उनका मानना था 'मेरा जीजा (बहनोई) एक गैर सरकारी महाविधालय में अनुबंध पर पढ़ाए ए हमारे शान के लिए अच्छा नहीं है।' उन्होंने उसी अंदाज में इसकी शिकायत अपने बहनोई (जीजा जी) से की और विरेन्द्र बाबू उनके कहने पर प्रोफेसरी छोड़ गाँव आ गए। आज वहीं महाविधालय सरकार की मान्यता प्राप्त कर चुकी है। साथ में उनके साथ वाले साथी भी उसी में स्थाई हो चुके हैं। आज अपनी स्थिति के लिए विरेन्द्र बाबू अपने सालों को कोसते हैं साथ में उन्हें भला-बुरा कहने से भी नहीं चूकते।

                         गाँव आ कर ए अपने क्षेत्र में सरकारी कोटा प्रणाली की दुकान चलाने लगे। कुछ समय बाद उनका यह धंधा भी बंद हो गया इसके बाद उन्होंने गाँव में एक अपना स्वयं का विधालय स्थापित किया। उस समय उस क्षेत्र में वह विधालय पहला गैरसरकारी विधालय था। विधालय में सरकारी विधालयों के अपेक्षा अच्छा पठन-पाठन था। अभिभावकों के विश्वास एवं सहयोग से उनकी विधालय अच्छी चल परी। उस से उन्हें अच्छी आय भी होने लगी तभी तो वे उस समय अपने नाम से भूमि खरीद कर वहाँ विधालय को स्थाननत्रित किया। उस विधालय ने उन्हें अपने क्षेत्र में सर जी का नाम प्रदान किया, साथ ही अब हर कोई उन्हें सर जी या मास्टर साहब के उप नाम से ही सम्बोधित करता है। सभी लोग उनके नाम को आदर से व्यक्त करते हैं। एक बार उनके विधालय के लिए अनुदान आया तथा उसे अर्द्धसरकारी शिक्षण संस्थान का मान्यता मिलने का चर्चा चल रहा था, जिसे उन्होंने माना कर दिया या यू कहें यह किसी कारण नहीं हो सका।

                             कुछ समय के बाद बाहर से एक व्यक्ति वहाँ विडियो हॉल चलाने आया। उसे वहाँ एक छोटा हॉल या यू कहे की एक बड़ा सा कमरा प्राप्त हुआँ, जिस में वह अपना भि०सी०आर० चलता। उसकी खूब कमाई होती, दर्शक इतना अधिक आते की उन्हें बैठाने के लिए उसके पास स्थान नहीं होता। जिसके कारण लोग हल्ला-गुल्ला भी करते  भि०सी०आर० वाले ने अब बड़ा हॉल ढूँढना शुरू किया। वह विरेन्द्र बाबू से सम्पर्क किया।  वह विरेन्द्र बाबू को, उनके विधालय में रात्रि के समय वीडियो हॉल चलाने के लिए राजी कर लिया। इस से लोगों में एक गलत सन्देश गया। लोगो में काना-फूसी होने लगी। लोगो का मानना था की विधालय एवं वीडियो हॉल एक ही भवन या एक ही प्रांगण में चलना उचित नहीं है। यह प्रतिक्रिया उन्हें मालूम भी हो गया पर वे इस ओर ध्यान नहीं दिए। भि०सी०आर० वाले ने उन्हें किराया न दे कर लाभ में उनका हिस्सा तय कर दिया, जो उन्हें उस समय विधालय के आय से ज्यादा दिखा। उन्हें उनका भविस्य नहीं दिखाई दिया। परिणाम स्वरुप विधालय धीरे-धीरे बंद हो गया। कुछ समय बाद वीडियो हॉल विभिन्न कारणों से बंद हो गया। वीडियो हॉल का बंद होने का मुख्य कारण लोगो का उसके प्रति आकर्षण कम होना और प्रशासन (थाना) द्वरा  बार-बार छापा मारी, क्योंकी वीडियो हॉल चलाने के लिए उनके पास कोई परमिट नहीं था। तदनुपरान्त भि०सी०आर० वाले ने उनका परिसर खाली कर दिया। वीडियो हॉल अब उतनी मुनाफे का सौदा नहीं रह गया। विरेन्द्र बाबू ने पुनः विधालय को शुरू किया पर अब पहले वाली बात नहीं रही। यह भी अब घाटे का सौदा साबित होने लगा। अब उनका बच्चे बड़े होने लगे खर्च बढ़ने लगा। धीरे-धीरे वे आर्थिक बदहाली के गिरफ़्त में आते गए। अब घर से शांति जाती रही। नित्य प्रतिदिन घर में कीच-कीच होने लगी। कलह की देवी ने घर में अपना निवाश बना ली। विरेन्द्र बाबू अब पत्नी और बच्चों के साथ मार-पिट भी करते। घर में आर्थिक तंगी दिनों दिन बढ़ती गई। बच्चियाँ व्याहने (शादी) योग्य हो गई। जमीन बेच कर वे उनका शादी कर दिए। जमीन से जो उपज (पैदावार) घर में आती थी, वह भी बंद हो गई। उनकी पत्नी अपने दो बच्चों के साथ पास के शहर में चली गई। उनका उद्देश्य था, बच्चों को किसी प्रकार पालना। विरेन्द्र बाबू को यह सब बहुत बुरा लगा। वे अपनी पत्नी और बच्चों को गाँव लाने का कई प्रयाश किए पर सफल न हो सके। वे शहर में भी जाकर उनलोगो के निवाश स्थान पर हो-हुज्जत करते, जिस वजह से वे लोग अब इनसे छुप कर रहने लगे। विरेन्द्र बाबू गाँव में अपनी प्रतिष्ठा चाहते थे पर व्यय के लिए आय का कोई उपाय नहीं कर पा रहे थे और उनकी पत्नी और बच्चें अब बदहाली में जीना नहीं चाहते थे। दिनों दिन वे चिड़चिड़ा होते गए अब वे अपनी कमी छुपाने के लिए दूसरों का अनावश्वक शिकायत करते रहते।

                            आज समाज में उनका एक असफल व्यक्ति के रूप में पहचान किया जाता है। वे किसी भी क्षेत्र में घर-परिवार समाज के कसौटी पर खड़ा नहीं उतर सके।

                              एक रोज किसी के पारिवारिक घटना पर गाँव में कुछ बुजुर्ग एवं अन्य लोग जुटे हुए थे। समस्या पर विचार विमर्श हो रहा था, सभी लोग अपना-अपना सुझाव दे रहे थे। उसी भीड़ में विरेन्द्र बाबू भी थे। उन्होंने भी एक सुझाव दिया और उसके समर्थन में बड़े-बड़े तर्क पेश किया। कुछ व्यक्तियों का नाम भी मिशाल के तौर पर दिया, जो सभी को गले के निचे नहीं उतर सका। वही एक ऐसे व्यक्ति भी थे, जिन्हें खड़ी बोली और कटाक्ष के लिए जाना जाता है। उन्होंने तपाक से कहा "ए विरेन्द्र तू भले ही एम०ए० होइबअ पर एह में नईखअ।" सभी लोग उनका चेहरा देखने लगे। पर विरेन्द्र बाबू फिर बोल पड़े, कैसे ? तो उसी वृद्ध व्यक्ति ने कहा अब हम को खोलना ही पड़ेगा। तू कहाँ सफल भईलअ, इतना सुन्दर शरीर, धंधा, प्रतिष्ठा सब गवा दिया, अपनी पत्नी और बच्चों को देख भाल नहीं कर सका, उनका भरण-पोषण नहीं कर सका अब कैसे कहु की तू 'एम०ए० होगे पर एह में(इसमे) नहीं हो' इस बात को सुन सभी लोग बिलकुल शांत हो गए। कुछ समय ऐसा लगा की वहाँ कोई है ही नहीं। सभी बस एक दूसरे को देखते भर रह गए।

                               आज सफल होना बहुत जरुरी है। सभी जगह सिर्फ किताबी ज्ञान या रचनात्मक कला एवं ललित कला ही काम नहीं आता। सफल होने के लिए व्यवहारिकता का होना बहुत ही आवश्यक शर्त है। अतः एम०ए० के साथ एह में भी होना जरुरी है। जिस से एक उद्देश्य पूर्ण, अर्थ पूर्ण सामाजिक दृष्टि से सही सफल जीवन पाया जा सके।



सोमवार, 14 दिसंबर 2015

* नाम *


                      आप आम लोगो को कहते सुना होगा, नाम से बड़ा धन कोई नहीं होता, आखिरकार यह नाम है क्या ? जिसे सभी लोग कमाना चाहते हैं। इस जगत में या यू कहें तो इस ब्रह्मांड में हर एक का कुछ न कुछ नाम है, जिसे किसी न किसी के द्वारा रखा गया है, जो बाद में आम प्रचलन में आ गया । जाती नाम, कुल नाम, वर्ग नाम के बाद भी हर एक का अलग से एक और नाम। नाम को उसके निर्धारित पहचान से जोड़ा जाता है।ऐसे पहचान के लिए शस्त्र बलों में या विशेष (गुप्त) टीमों में एक विशेष संख्या होती है, जिस से उनकी पहचान होती है।
                        
                        किसी का नाम देने या रखने के पीछे अलग-अलग मानसिकता कार्य करती है।लोग अपने बच्चों का नाम महात्मा, प्रसिद्ध व्यक्ति या जिसे वह आदर्श मानते हैं, उनके आधार पर पर रखते हैं। नाम देने या रखने के पीछे धार्मिक आस्था के साथ-साथ कुछ रुढ़ी या रीति-रिवाज भी काम करती है, जैसे किसी का देहांत शैशव या बाल अवस्था में हो जाता है तो वह अपने अगले शिशु का नाम उटपटांग रख देता है। जैसे - घुरफेकन , घुरबिनियाँ, डोमन इत्यादि। इन सभी बातों के साथ आम लोग खास कर जो गाँव में निवास करते हैं , ए लोग एक पेशा विशेष को भी नाम देते हैं। जिस से मालूम चलता है की उनके दिल में उस पद के लिए कितना लगाव एवं इज्जत है।इन विशेष प्रकार के नामों से स्पष्ट होता है कि ए लोग या तो अपने यहाँ किसी को उस पद पर देखना चाहते हैं या ए पद उनके लिए आदर्श हैं , जिसे वे पाना चाहते हैं किन्तु वे अपनी आर्थिक और समाजीक स्थिती के कारण नहीं प्राप्त कर पाते तो नाम से ही संतुष्ट हो जाते हैं।इस प्रकार के नामों में हवलदार, जमदार, सुबेदार, कर्नल (करनेल) , जरनल, वकिल, वैरिस्टर, जज, मास्टर इत्यादि हैं । नाम सोच समझकर ही रखी जाती है, जो अभिलेखों में भी संग्रहित हो जाती है।
                       
                     लोग जो जानवर(पालतू) पालते हैं, उसे भी एक विशेष नाम से पुकारते हैं।वह पालतू भी समझता है की अमुक प्रकार का आवाज (नाम) उसे ही इंगित करता है। कुछ लोग अपने पालतू को विशेष वजह से भी विशेष नाम देते हैं। कुछ लोग किसी विशेष बात पर कहते हैं, मेरे नाम का कुत्ता या जानवर पालना और ऐसा होता भी है।
         
                         कुछ लोगों का नाम हास्य परिहास में पर जाता है।जिसे हम व्यंग्य कह सकते हैं।आचार-व्यवहार से लोगों का पुकार का नाम प्रसिद्ध हो जाता है। जिसे कुछ लोग सम्मुख में तो कुछ लोग पिठ पीछे बोलते हैं। इस प्रकार के नाम से वह व्यक्ति जँहा रहता है , अपने समाज में एक पहचान बना लेता है। इस प्रकार के नाम को कुछ लोग पसंद करते हैं और कुछ लोग नापसन्द भी। कुछ लोग इसका विभिन्न तरीको से विरोध भी करते हैं। ऐसे नाम अभिलेखो में नहीं होते पर वहाँ के लोग उसे उस नाम से आसानी से पहचान जाते हैं।
                        हम यहाँ कुछ लोगों के विशेष नमो पर चर्चा करेंगे। मैं और मेरा दोस्त राजू इसी नाम विशेष पर चर्चा कर रहें थे। राजू लगातार हँसने लगा उसकी हँसी रुक नहीं रही थी तो हमने पूछा क्या हो गया ? राजू अपनी हँसी सम्भालते हुए कहाँ अरे भाई सरयू चाचा वाला हल हमारा , फौज में भी हो गया। हम क्या जानते थे की फौज में भी कटाक्ष वाली नाम चलती है। हमने कहा आगे वाली वाली बात तो बताओ उस रोज हुआ क्या ? हम आपको सरयू चाचा की कहानी बाद में सुना देंगे पहले राजू का सुन लेते हैं। राजू बताता है , "मैं अपनी ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) समाप्त कर यूनिट में गया। उस समय यूनिट फिल्ड में थी। वहाँ हेड क्वाटर (मुख्यालय) मध्य में तथा कम्पनियाँ वहाँ से दूर चारो दिशाओं में फैली होती है। हम हेड क्वाटर में गए वहाँ लोगो से मुलाकात और परिचय होने लगी एक सरदार साहब आए और हम लोगों से पूछे किस कम्पनी में पोष्टींग हुआ है। हमने अपनी कम्पनी बताई , फिर वे बोले अच्छा ! नाग रेड्डी के कम्पनी में जरा सम्भल कर रहना नहीं तो डस लेगा। हमने सोचा यह क्या मुसीबत है। अगले दिन हम वहाँ की सारी प्रक्रिया पूरा कर अपनी कम्पनी के लिए प्रस्थान कर गए। हमें छोड़ने के लिए यहाँ से एक टुकड़ी हमारे साथ हो ली और उधर से एक टुकड़ी हमें लेने आ रही थी , दोनों जब मिल गए तो मुख्यालय वाली टुकड़ी वापिस हो गई। वापिस होते समय उनमें से एक जवान ने कहा जाओ नाग रेड्डी तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा।  वहाँ से चलकर हम अपनी कम्पनी पहुँचे। हमने वहाँ देखा एक सरदार साहब बाहर खड़ा हैं। हमने अपनी बेग-बेडिंग उतारा , लाम्बा-लम्बा साँस लिया। हमें पिने के गुनगुना पानी मिला। इसी दौरान सरदार साहब हमारी परिचय लेने लगे। वे पूछे तुम्हारा सीनियर जे. सी.ओ. कौन है , हमने कहा 'नाग रेड्डी' , यह नाम सुनते ही वह भड़क गए और बोले किस ने बताया , हमने कहा निचे एक साहब ने बताया था। वह सोच रहे थे ,जो पार्टी लाने गया था , वो बताया होगा , पर ऐसा नहीं था। वह मुँह बनाते हुए बोले "सी. एच. एम. इनका क्लास लो" एक मोटा सा व्यक्ति जो पहले से हीं वहाँ खड़ा था। कासन बनाते हुए हमें समझाने लगा। वह हमें सजा भी लगाया। वही हमें ऊपर से निचे सभी रैंक धारी ओहदेदारों का नाम बताया। हमें तो साँप ही सूंघ गया फिर हमें समझ आया , ऐ तो सरयू चाचा वाली बात है। हमें अंदर ही अंदर हँसी आने लगी, जिसे हमने दबाए रखा। सरदार साहब और सी. एच. एम. के जाने के बाद हम सभी हँस पड़े।

                         अब आप को सरयू चाचा वाली बात बताये देते हैं। सरयू चाचा शहर में नौकरी करते थे। जब गाँव आते तो गाँव के लोग , वहाँ के रीती रिवाज के अनुसार उनका भी अभिनन्दन करते। जैसे कोई प्रणाम चाचा , प्रणाम भईया , प्रणाम दादाजी इत्यादि अपने रिश्ते और उर्म के अनुसार प्रणाम के साथ एक रिस्ता लगा देतें हैं। इसी दौरान हमारा एक दोस्त पंकज यही हमारे गाँव में हीं रहने लगा। यहाँ उसका अपना ननिहाल है। वह अपने रिश्ते के अनुसार ही लोगों को मामा , नाना ,भईया कहता था। एक रोज हुआ यु की हमलोग खेल रहे थे। सरयू चाचा उसी रास्ते से आ रहे थे। पंकज आगे बढ़ कर बोला प्रणाम मामा , फिर क्या था , सरयू चाचा ने पंकज को मारने के लिए दौरा लिया , विभिन्न प्रकार के अपशब्दों का उच्चारण करते हुए गाली बकने लगे। उस समय हम बच्चों को मालूम नहीं चला, पर बाद में हम समझ गए की वे मामा कहने के कारण गुस्सा हुए थे। फिर क्या था जब वे किसी रास्ते से जाते और किसी लड़के का उन पर नजर पर जाता तो वो छुप कर उन्हें मामा कह देता। लड़का अगर दिख जाता तो मरने के लिए दौड़ाते या फिर गाली-गलौज करते। धीरे-धीरे उनका यह नाम मशहूर हो गया। वे अब बच्चों और बड़ो सभी के लिए हास्य का एक पात्र बन गए। उनका यह नाम उनके क्षेत्र (गाँव-जेवार) में मशहूर हो गया।

                           हमने कुछ ऐसे पुकार नाम वाले सज्जन भी देखें , जिसे बोलने पर वे प्रसन्न होते हैं। हमारे बगल के ही एक सज्जन हैं। ऐसे उनका वास्तविक नाम से भी लोग परिचित हैं पर लोग उन्हें साहेब के नाम से सम्बोधित करते हैं। लोगों से हमने सुना है उनका परिवार पहले सुखी-सम्पन्न था , पर जब से हमने होश सम्भाला है , हमने उनके पास अभाव ही अभाव देखा है। वे अपना जीवन किसी तरह मांग-चांग कर गुजर-वसर करते हैं। लोग जब उन्हें साहेब कहते हैं तो वे शायद अपनी पुराने दिनों को याद कर प्रसन्न होते होंगे।

                            हमारे पास में ही एक बड़ा बाबू हैं बेचारे अभी तो बेरोजगार ही हैं , शायद उन्हें अब कोई रोजगार मिलने की सम्भावना भी नहीं भी है। उनके पिता श्री को पेंसन मिलता है और कास्तकारी से जो थोड़ा-बहुत आय होता है उसी से उनका और सम्पूर्ण प[परिवार का भरण-पोषण हो रहा है। गाँव में जब कभी भी कोई सामाजिक कार्य या कोई उत्सव , पूजा , त्यौहार मनाया जाता है तो वे उस में सबसे ज्यादा सक्रिय रहते हैं , उस विधि-व्यवस्था में वे सचिव, अध्यक्ष या कोषा अध्यक्ष होते हैं। इसी वजह से लोग उन्हें बड़ा बाबू कह कर पुकारते हैं और वे इस से प्रसन्न भी रहते हैं।

                                 एक सज्जन हैं नाम है रघुवर यादव। वे हमारे गाँव (ग्राम) का चकूदार हैं। ऐसे गाँव में परम्परा है आम लोग अपने उर्म के अनुसार रिस्ता तय कर लेते हैं या जिनके बड़े-बुजुर्ग जिस रिश्ते से किसी को बुलाते हैं तो उस घर के अन्य छोटे सदस्य भी अपना रिस्ता की कड़ी तय कर लेते हैं। जब कुछ लोग साथ वाले होते हैं तो नाम से भी काम चलाते हैं। रघुवर यादव के साथ भी यही हुआ। अब इनके साथ वाले एवं कुछ उर्म में छोटे लोग जो पद पर उनसे उच्चे हो गए तो उन्होंने सोचा इन्हें नाम से या चकूदार कह कर बुलाना ठीक नहीं है। एक रोज किसी ने उन्हें किसी काम से बुलाया था और वे नहीं गए या नहीं जा सके तो लोगों ने उन्हें उलाहना वस  ही दरोगा साहेब और दरोगा जी के नाम से ससम्बोधित किया। उसके बाद ए उनका उप नाम ही हो गया , अब हर कोई उन्हें दरोगा जी तो कोई दरोगा साहब कह कर बुलाता है। वे प्रसन्न भी रहते हैं।

                               अब मैं आपको एक जानी-मानी कहानी सुनाता हुँ। आप ने इसे जरूर कहीं न कहीं पढ़ा होगा या सुना होगा। अगर न पढ़े हैं और न सुने हैं तो यहाँ पढ़ लीजिए। एक सज्जन थे। वे सभी तरफ से सुखी-सम्पन्न थे। उन्हें किसी प्रकार का कोई हैरानी-परेशानी , कष्ट-कलेश या चिंता-फ्रिक नहीं था। एक बार वे अपने उधान में आराम कुर्सी पर बैठ कर प्राकृति का छठा निहारते हुए आनंद ले ले रहे थे और उस दृश्य में पूर्ण रूपेण तन्मय थे। एकाएक अपना नाम सुन कर उनका ध्यान भंग हुआँ। कोई बगल से उन्हें उनका नाम से बार-बार पुकार रहा था। वे अपना नाम सुन खिज्झ गए। वे बुदबुदाते हुए बोले घर वालो को और कोई नाम मेरे लिए नहीं मिला था। मेरे पास क्या नहीं है सिर्फ एक अच्छा सा नाम छोड़ कर। फिर वे चिंतित रहने लगे , हर समय नाम पर ही सोचते रहते।वे हर समय खोए-खोए रहने लगे। उनका हालात दिनोदिन विक्षिप्तों जैसा होता जा रहा था।चिंतित रहने के कारण उन्हें अनेकों परेशानियाँ सताने लगी।

                                   एक रोज प्रातः काल वे नित्य क्रिया सम्पन्न कर घर से अपने नाम पर ही सोचते और चिंतन करते हुए निकल पड़े , रास्ते में वे हर मिलने वाले से उसका नाम पूछते , जिस में से जो उन्हें अच्छा , सुन्दर और उचित लगे उसे वे अपने लिए चुन सके। इसी दौरान उन्हें एक शव यात्रा दिखाई दिया तो उन्होंने सोचा पहले स्वर्ग वाशी का ही नाम पूछा जाए। शव यात्रा में जा रहे लोगो से से उन्होंने उसका नाम जानना चाहा। लोगों ने उसका नाम अमर बताया तो वे झेप गए और आगे बढ़ गए। आगे कुछ लोग खेत-खलिहान में काम कर रहे थे। उनमे एक व्यक्ति पुवाल बुन रहा था। उस सज्जन ने उसके ओर मुखातिब हो कर उसका परिचय पूछा , वह अपना नाम धनपत बताया। वे वहाँ से बुदबुदाते हुए आगे बढ़ गए। सामने एक दूसरी वस्ती थी ,वहाँ धुप में कुछ बच्चे खेल रहे थे। उसी में एक लड़की भी थी। उसके तन पर उस मौसम के अनुसार समुचित वस्त्र भी नहीं था।  उस सज्जन ने उसी लड़की से उसका नाम पूछ बैठे , वह अपना नाम लक्ष्मीनिया बताई। फिर क्या था उनके मुख से अन्नयास ही निकल परा - 
 " अमर को मैं मरते देखा
 धनपत बुनत पुआल 
लक्ष्मी के तन वस्त्र नहीं 
   सबसे अच्छा मैं ठठपाल। "
और हस परे। अपने आप से वे कहने लगे पुकार के नाम और अभिलेख के नाम से कुछ नहीं होने वाला है। नाम में क्या रखा है सब तो काम में ही है। मुख्य नाम तो काम है। वे नाम के द्वन्द को अपने मन से निकाला और चिंता मुक्त हो गुनगुनाते हुए अपने घर वापिस चल दिए। अब उन्हें अपने नाम से किसी प्रकार का कोई सिक्वा-शिकायत नहीं था , न घर वालो के प्रति कोई उलाहना। 

                           मेरे बंधू इस प्रकार नामो में कुछ नहीं रखा है। मनुष्य का कर्म प्रकष्ठा ही उसके नाम को उत्कृष्ट बनाता है। व्यक्ति द्वारा किया गया कर्म ही नाम को सिद्धि प्रदान करती है। यथा सिर्फ नाम पर न जाए। सुख-शांति , समृद्धि आपको अपने कर्म से प्राप्त होंगी। 



शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

* मालती चाची *

                   मोनू मालती चाची के सामने पला-बढ़ा और युवा हुआ । उस पर मालती चाची का आच्छा-खासा प्रभाव भी परा । जब वह पाँच (५) वर्ष का था मालती चाची ३५-३७ वर्ष की होंगी। आज मोनू २५ वर्ष का है। 

                   मोनू बताता है जब से वह होश सम्भाला है तब से मालती चाची की दिनचर्या देख रहा है। उस में खास बदलाव नहीं है। वह सुबह उठती है घर में गाये हैं उन्हें बाहर निकलवाती उन्हें चारा डालने या डलवाने के वाद नित्य क्रिया पूर्ण करती , बच्चों के लिए नाश्ता-खाना बनाती उन्हें तैयार कर विद्यालय भेजती , बच्चों को विद्यालय भेजने के वाद चाचा जी आते तो उन्हें खाना देती और सौ बात सुनाती निकम्मा , निठ्ठला न जाने क्या-क्या कहती। सभी का कपड़े  साफ करती साथ में गाय का गोबर का उपला (गोइठा) भी बनाती। और सारे काम करते-करते डेढ़ से दो बज जाता उसके बाद स्नान आदि कर पूजा-अर्चना करने के बाद अन्न ग्रहण  करती। अगर इन सारी क्रिया-कलापो को जल्दी-जल्दी निपटाती फिर भी दिन के बारह  बज ही जाते। उनका सुध लेने वाला कोई नहीं था। 

                     आम तौर पर देखा जाता है , गाँव की मध्यवर्गीय औरतें रास्ते के बगल में बैठ कर गप्पे मारती रहती हैं , जिन्हे न तो कोई काम है न कोई चिंता बस दूसरे की शिकवा-शिकायत लिए बैठी रहती हैं। इन सब बातों से मालती चाची दूर थी , ए न तो किसी के यहाँ अनावश्यक जाती थी न कहीं बैठका लगाती थी , जो इनके उर्म ढलने के बाद भी बना रहा , इनका व्यवहार औरतों के बीच चर्चा का विषय-वस्तु भी रहती। 

                     आज वह अपनी घर की आर्थिक स्थिति एवं दिनचर्या के चलते चिरचिरा स्वभाव की हो गई हैं। पास-पड़ोस वाले बताते हैं , इनका शादी एक सुखी सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनकी शादी हुई तो गाँव-जेवार (इलाके,क्षेत्र) में शोर था। वह शोर समय के साथ शान्त हो गया। इनके पतिदेव जो पहले सरकारी कर्मचारी थे , उसे छोड़ कर वे घर आ गए और गाँव के राजनीती में रहने लगे , जिस से आमद कम खर्च ज्यादा होने लगी , बच्चें बड़े होने लगे दिनों-दिन खर्च बढ़ने लगी , घर का हालात पतली होती गई , साथ में चाची जी के स्वभाव में भी खासी परिवर्तन होती गई। 

                         चाचा जी घर से दूर एक बैठका बना रखे थे , जिसे गाँव देहात में दलान कहते हैं। वे वही रहते थे। अब जब भी चाचा जी घर आते तो चाची जी से नोक-झोक होती , पर उनमें कभी भी मार-पिट नहीं हुआ , चाची जी कभी-कभी बहुत बोलती और पूरा घर सर पर उठा लेती। उस समय चाचा जी कुछ नहीं बोलते बस मुस्का कर चुप-चाप चल देते। चाची जी का बस इतनी सी ख्वाइस थी की बच्चो का सही से पालन-पोषण हो सके पर गाँव में वो भी राजनीती में इतना आमद कहाँ की जिस से घर गिरहस्ति चल सके। समय बीतता गया बच्चे बड़े हो गए , बच्चियाँ शादी योग्य हो गई। चाची जी अब बच्चियों के शादी के लिए घर-वर ढूंढने के लिए चाचा जी पर दबाव बनाने लगी। वह दूसरे लोगों और रिश्तेदारों के मदद से विभिन्न उद्यापन कर घर चलाती थी। ऐसे वह पहले देखा भी था और लोगों से सुना भी था , चाची जी बहुत कम बोलती थी पर बच्चें-बच्चियों के बड़ा होने के साथ वे गाली भी निकालने लगी थी , जिसका अपेक्षा उन से नहीं था। 

                        चाचा जी अपने आर्थिक स्थिति के अनुसार घर-वर ढूंढ कर , बच्चियों की शादी कर दिए , जिसके लिए उन्होंने कर्ज भी लिया और जमीन भी बेचे। लड़कियाँ अपने ससुराल चली गई। एक रोज चाची जी अपने दरवाजे पर बिलकुल शांत बैठी थी। मोनू उनके पास गया और उनके बगल में बैठ गया , वह सम्भलती हुई उसके लिए पीढ़ा ले आई। उन दोनों में बात होने लगी फिर मोनू ने चाची जी से पूछा , चाची एक बात पुछे बुरा तो नहीं मानोगी , चाची बोली पूछो बुरा क्यों मानूंगी वो भी तुम्हारी बात को जो कभी अनावश्यक बोलता नहीं तो अनावश्यक कुछ पूछेगा नहीं। उसने पूछा "आप अपने जवान लड़कियों को  इतनी गन्दी-गन्दी गली क्यों निकालती थी ?" उनका आँख भर आया वह आँखो के आशु को पोछती हुई बोली "बेटा कोई माता-पिता अपने बच्चों को डाँटना भी नहीं चाहते पर क्या करें गाली भी निकालनी पड़ती है , कोई बड़े कुल या जात में सिर्फ जन्म लेने से बड़ा थोड़े ही हो जाता है उसे उसके अनुसार आचरण एवं कर्त्वय भी निभानी पड़ती है और अपना कर्म करनी परती है। तुम नहीं समझोगे गरीब आदमी चाण्डाल के बराबर होता है। ए जो पापी छुधा (पेट) है , इसके आगे बड़े-बड़े लोग घुटने टेक देते हैं , यह विभिन्न पाप और कुकर्म के लिए प्रोत्साहित करती है और हमें इसी का डर लगी रहती थी , कहीं हमारे बच्चे भी एसा न कर दे , जिस से वंश कुल में दाग लग जाए और हम कहीं भी मुख दिखाने लाईक न रह पाए , हमारा मानना है , दाग ले कर जीने से मरना भला है। मैं तो अपने सामर्थ के अनुसार इनकी आवश्कयता पूरी करती हीं थी पर मैं गाली-गलौज या ताना मार कर इनके विचार और संगती को नियंत्रण करना चाहती थी। जब ए खुद गार्जियन हो जाएंगे तो सब समझ जाएंगे। " चाची अपने दोनों होठो को दबाते हुए अपनी भाऊकता छिपाने की कोशिश करने लगीं।

                      समय अपने चाल से चलता रहा , चाची जी के लड़के कमाने लगे पर चाची जी के व्यतिगत जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया। उनका पहला लड़का उनकी जरुरतो और अरमानों से कोई खास सरोकार नहीं रखता पर दूसरे का उनके साथ जुड़ाव बना रहा , वह उनहे खुश रखने का प्रयत्न करता और चाची जी पहले से ज्यादा खुश भी रहती। चाची जी के स्वभाव में एक आदत और थी वह धार्मिक प्रवृति की महिला थी , धर्म में उनका पूर्ण आस्था एवं विश्वास था वह अपने दरवाजे पर आए किसी भी जरूरतमंद या साधु-सन्यासी को रुष्ट नहीं करती , अपनी सामर्थय के अनुसार उन्हें दान-दक्षिणा और जरूरत की सामग्री उन्हें देती। इसी बीच चाचा जी बीमार रहने लगे, उपड़ से मध सेवन से बाज नहीं आते। उनके दावा के लिए अच्छा-खासा नगद राशि व्यय हो रही थी। उनके सेवा में चाची जी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती पर वे (चाचा जी) भी आदत से मजबूर थे और अपनी मनमर्जी करते। दूसरा लड़का जो चाची जी से जुड़ा हुआ था वहीं सारी खर्च का निर्वाहन करता था। चाचा जी बहुत सरे कर्ज भी ले रखे थे , जिसका देनदारी भी चुकाना पड़ता था।  एक रोज चाची जी , चाचा जी का किया हुआ पोटी साफ कर रही थी और उन्हें कोस भी रही थी। जवानी में कुछ कमाया नहीं , एक लड़का कमा कर दे रहा तो उसकी सारी कमाई ए ही खा जा रहें हैं , पूरा जीवन परिवार को पेर कर छोड़ दिए , पता नहीं इनसे बच्चों को कब छुटकारा मिलेगी। उस समय ऐसा नहीं लग रहा था की चाचा जी ज्यादा दिन इस मृतलोक में निवास कर सकेंगे। मोनू उसी समय चाची जी से पूछ दिया चाची जी आप चाचा जी को इतना कोस रही हैं , न जाने क्या-क्या कह रही हो , अगर चाचा जी इस लोक से चले गए तो आप कैसे रोइएगा। एसे इस टोला में विधवाओं का संख्या कम नहीं है। चाची जी बोली भाग मुदईया मैं क्यों रोउ। दूसरे दिन मोनू चाची जी के पास गया उनके चरण स्पर्श कर कहा मैं शहर काम करने जा रहा हूँ , मेरी नौकरी पक्की हो गई है। चाची जी बोली जाओ खुश रहो और मन से काम करना और मस्त रहना।

                      आज दिनांक  १०/१२/२००८ को  मोनू दोपहर बस से उतरा और मिठाई का डब्बा लिए मालती चाची के दरवाजे पर पहुँचा तो देख रहा है , वहाँ लोगों का हुजूम लगा हुआ है , सभी कुछ-न-कुछ चर्चा कर रहें हैं ,  कोई कह रहा है किसे जाना  था और कौन चला गया , सक्षात देवी थी , बेचारी सुख का मर्म नहीं जानी ,मर्द तो कमाया नहीं , बड़ा बेटा भी साथ नहीं दिया , यह इस घर की लक्ष्मी थी , यह अपने आप भूखा रह आए हुए आगंतुको , पांडा-पुजारी , भूखे को भोजन करा देती थी। मोनू भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा और आँगन में गया तो देखा मालती चाची लेटी मुस्का रही हैं और अभी बोलने वाली है। वह उनके पैर पकड़ कर बैठ गया , वह जैसे ही बैठा उसे लगा चाची जी उसके कंधे  हाथ रख कह रही हैं : देखा , अब तुम क्यों रो रहे हो ए तो शाश्वत सत्य है। मैं तुम लोगो के दिल में हूँ ,क्या यह कम है। मोनू रोते हुए हस दिया। अब उसके जेहन में उनके द्वारा कही गई सारी बातें कौंधने लगी जो शायद पहुँचा हुआ साधु-संत और ज्ञानी भी नहीं बता सकता। सचमुच मालती चाची एक कर्म योगिनी थी। उन्हें मेरा सत-सत प्रणाम।